उत्तराखंड में जंगलों से उठते धुएं ने हिमालय को ढंका

DW
सोमवार, 12 अप्रैल 2021 (16:44 IST)
हृदयेश जोशी
 
हिमालयी वनों में आग कोई असामान्य घटना नहीं है लेकिन जंगलों में हो रही विनाशकारी घटनाओं ने कई स्तर पर चिंता पैदा की है। जंगलों में लगने वाली अधिकांश आग मानवजनित है, लेकिन उस पर नियंत्रण का ढांचा चरमरा रहा है।
  
उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले में एक छोटा सा सरहदी कस्बा है मुनस्यारी, जहां से हिमालय की मशहूर पंचचूली रेंज का भव्य नजारा मिलता है। इस मौसम में यहां पर्यटकों का खूब जमावड़ा भी होता है लेकिन इन दिनों मुनस्यारी से पंचचूली नहीं दिख रही क्योंकि धधकते जंगलों से उठे धुएं ने पूरी पर्वत श्रृंखला पर परदा डाल दिया है। आज हाल यह है कि मुनस्यारी के पास सरहद पर गोरीगंगा बह रही है और उसके ऊपर पहाड़ों पर जंगल धधक रहे हैं।
 
उत्तराखंड में सैकड़ों हैक्टेयर वन जले
 
नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, देहरादून और पौड़ी समेत उत्तराखंड के कई जिलों में जंगल जल रहे हैं। राज्य सरकार के मुताबिक एक अप्रैल से 11 अप्रैल के बीच राज्य के जंगलों में 847 जगह आग लगी है जिसमें 1248 हैक्टेयर से अधिक जंगल प्रभावित हुआ है। इसमें से करीब दो-तिहाई क्षेत्रफल (804 हैक्टेयर) आरक्षित वन हैं, जो काफी समृद्ध माने जाते हैं।
 
अब तक आग में 28.5 लाख रुपए से अधिक की संपत्ति का नुकसान हुआ है और 10 पशुओं की मौत हो गई है। कुछ रिहायशी इलाकों में तक यह आग फैल गई है। आग को बुझाने के लिए राज्य सरकार ने पहले वायु सेना के दो हेलीकॉप्टरों की मदद ली लेकिन उससे कुछ खास हासिल नहीं हुआ। फिलहाल आग बुझाने में कोई बड़ी कामयाबी वन विभाग को नहीं मिली है और वह बरसात के भरोसे है।
 
देश के कई हिस्सों में आग
 
अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के फायर इंफॉर्मेशन फॉर रिसोर्स मैनेजमेंट सिस्टम (फर्म्स) की तस्वीरें भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रही हैं जिसमें उत्तराखंड ही नहीं भारत के जंगलों में कई जगह आग लगी हुई है। नासा फर्म्स के मानचित्र को देखने से पता चलता है कि पूरी हिमालयी पट्टी पर पश्चिम से पूर्व तक आग की घटनाएं बिखरी हुई हैं।
 
जानकार कहते हैं कि देश के बाकी हिस्सों की तरह हिमालयी क्षेत्र में भी आग कोई नई या सामान्य घटना नहीं है लेकिन अब आग की घटनाओं का ग्राफ बदल रहा है। फरवरी से जंगलों में आग की घटनाएं शुरू हो जाती है लेकिन मॉनसून के बाद जंगलों की आग की कोई घटना नहीं होती लेकिन 2020 में उत्तराखंड के वनों में गर्मियों के मौसम में आग की जितनी घटनाएं हुई उससे अधिक घटनाएं जाड़ों में हो गई।
 
वनों की आग और जलवायु परिवर्तन
 
डाउन टु अर्थ पत्रिका ने राज्य के वन विभाग के आंकड़ों का हवाला देकर कहा है कि उत्तराखंड के जंगलों में पिछले 6 महीने से जंगलों में आग धधक रही है और इसके पीछे जलवायु परिवर्तन एक वजह है। वन कर्मियों और विशेषज्ञों का कहना है कि हर आग जंगल के लिए खराब नहीं होती लेकिन आग का अनियंत्रित होना और सर्दियों में लगना असामान्य जरूर है।
 
एक उच्च वन अधिकारी ने हिमालयी वनों के बारे में समझाते हुए कहा कि उत्तराखंड के जंगलों में चीड़ के वृक्ष अच्छी खासी संख्या में हैं। इस पेड़ की नुकीली पत्तियां साल में दो बार गिरती हैं। जंगलों की आग इन पत्तियों को न जलाए तो यही पत्तियां मिट्टी की अम्लता (एसिडिटी) को बढ़ा कर काफी नुकसान कर सकती है। अक्सर चीड़ की पत्तियों में लगी आग सतह पर रहती है और जल्दी बुझ जाती है लेकिन अगर यह अनियंत्रित होकर फैल जाए तो हानि का कारण बनती है।
 
सरकार के मुताबिक भारत के 10 प्रतिशत जंगलों में आग की घटनाएं बार-बार होती हैं लेकिन हिमालय में अनियंत्रित आग इसलिए भी चिंता का विषय है कि यहां संवेदनशील ग्लेशियर हैं। क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (साउथ एशिया) के निदेशक संजय वशिष्ठ कहते हैं कि आग की घटनाएं तो पहले भी होती रही हैं लेकिन अब उनका विकराल स्वरूप और बार-बार होना चिंताजनक है। वशिष्ठ ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अमेरिका में लगी आग का हवाला देते हुए कहते हैं कि धरती का तापमान बढ़ रहा है और जलवायु परिवर्तन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
 
वशिष्ठ के मुताबिक कि हिमालय भारत और पूरे विश्व के लिए विशेष महत्व रखता है। धरती के तीसरे ध्रुव (थर्ड पोल) के नाम से जाना जाने वाला क्षेत्र कई दुर्लभ वनस्पतियों, पक्षियों और जंतुओं का बसेरा है। यह जैव विविधता का भंडार है और यहां कई ऐसी प्रताजियां हैं, जो इसी क्षेत्र में पाई जाती हैं, दुनिया में कहीं और नहीं होती। इन्हें एंडेमिक प्रजातियां कहा जाता है। अनियंत्रित आग इस जैव विविधता को खतरा पैदा कर सकती है। भारत ने पेरिस क्लाइमेट संधि में भी यह कहा है कि वह 2030 तक करीब 300 टन कार्बन सोखने लायक जंगल लगाएगा।
 
मॉनिटरिंग और सामुदायिक भागीदारी की कमी
 
जंगलों में लगने वाली अधिकांश आग मानवजनित है। पशुओं के लिए बेहतर चारा उगाने के लिए अक्सर चरवाहे जंगलों में आग लगाते हैं लेकिन कई बार आग अनियंत्रित हो जाती है। लेकिन वन विभाग के पास लगातार घटते वन आरक्षियों (फॉरेस्ट गार्ड्स) और संसाधनों की कमी आग के विकराल होने का कारण बनती है। असल में वन विभाग में अफसर तो बहुत हैं लेकिन जमीन पर मॉनिटरिंग और जंगलों की सुरक्षा के लिए फॉरेस्ट गार्ड नहीं हैं। अभी भड़की आग के बाद उत्तराखंड हाइकोर्ट ने राज्य सरकार को आदेश दिया कि वह आरक्षियों के 60% खाली पड़े पदों को अगले 6 महीने में भरे।
 
उधर वन अधिकार कार्यकर्ता और जानकार कहते हैं कि सामुदायिक भागीदारी के बिना जंगलों को नहीं बचाया जा सकता। कई दशकों से हिमालयी पर्यावरण और समाज से जुड़े कार्यकर्ता चारु तिवारी कहते हैं कि बीसवीं सदी की शुरुआत में जब अंग्रेजी हुकूमत ने लोगों के जंगलों में प्रवेश पर पाबंदी लगाई तो वहां आग की घटनाएं बढ़ने लगी। तिवारी के मुताबिक इसी बात को समझ कर अंग्रेजों ने 1927 के वन कानून में ग्रामीणों के हक-हुकूक बहाल किए और समुदायों का वनों से रिश्ता बना। लेकिन वन अधिनियम 1980 ने एक बार फिर से ग्रामीणों और जंगलों के बीच का वह रिश्ता तोड़ दिया।
 
चारू तिवारी के मुताबिक कि जंगलों की आग को सरकार नहीं रोक सकती। वनों को सामुदायिक दखल ही बचाएगा। जंगल की आग सदियों से ग्रामीण ही बुझाते रहे हैं लेकिन जंगल और ग्रामीणों के बीच के अंतरसंबंध पिछले कुछ दशकों में टूटते गए हैं जिसके लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं। जब ग्रामीण जंगल से जुड़े थे तो वह जैव विविधता वाले वन उगाते थे लेकिन अत्यधिक सरकारी नियंत्रण से टिंबर फॉरेस्ट ही उगाए जा रहे हैं, जो पैसा कमाई का साधन तो बनते हैं लेकिन हमें एक निर्जीव पारिस्थितिकी की ओर धकेल रहे हैं। जंगलों में अनियंत्रित आग इसी का नतीजा है।

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