-आकांक्षा सक्सेना
अलगाववादी सिखों द्वारा खालिस्तान की मांग को लेकर कनाडा, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों में लामबंदी बढ़ रही है। भारत और कनाडा के संबंध तो इससे सीधे तौर पर प्रभावित हो रहे हैं। एक अलगाववादी सिख संगठन ने कनाडा के ब्रैंपटन में बीते रविवार को एक कथित जनमत संग्रह आयोजित किया।
इसमें उत्तर अमेरिकी आप्रवासी सिखों से इस बात पर राय मांगी गई थी कि भारत के सिख बहुल इलाकों को खालिस्तान नाम का स्वतंत्र देश घोषित किया जाना चाहिए या नहीं।
भारत में प्रतिबंधित संगठन 'सिख फॉर जस्टिस' का दावा है कि इस रायशुमारी में हजारों लोगों ने हिस्सा लिया। हालांकि इस बारे में कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है कि कितने लोगों ने मतदान किया और कब इस कथित जनमत संग्रह के नतीजे आएंगे।
सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे वीडियो दिखाते हैं कि खालिस्तान का पीला झंडा लिए पुरुष और महिलाएं एक मतदान केंद्र के सामने लाइन लगाए खड़े हैं। हालांकि डॉयचे वेले इस वीडियो की प्रमाणिकता की पुष्टि नहीं कर सकता।
ब्रैंपटन में रहने वाले हिमांशु भारद्वाज कहते हैं कि ब्रैंपटन के बाहर से भी लोग कारों और बसों से आए थे। कनाडा के अलग-अलग हिस्सों से आने वाले लोगों के लिए खाने और रहने की जगह का प्रबंध था। सिर्फ उन्हीं लोगों को आयोजन स्थल में आने की इजाजत थी, जो इस आंदोलन का समर्थन करते हैं।
कनाडा को चेतावनी
भारत ने इस मतदान की और इसकी इजाजत देने के लिए कनाडा सरकार की कड़ी निंदा की है। पिछले हफ्ते ही भारत ने इस बारे में एक तीखा बयान जारी किया था और कनाडा की सरकार से इस मतदान के आयोजनों पर प्रतिबंध लगाने का आग्रह किया था।
भारत के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा कि यह बेहद आपत्तिजनक है कि उग्रवादी तत्वों द्वारा राजनीति से प्रेरित गतिविधियां एक मित्र देश में हो रही हैं। भारत विरोधी तत्वों द्वारा कथित खालिस्तान जनमत संग्रह कराने की कोशिशों को लेकर हमारा रुख सर्वविदित है और नई दिल्ली व कनाडा, दोनों जगहों पर कनाडा की सरकार को इससे अवगत कराया जा रहा है।
कनाडा की सरकार ने यह तो कहा कि वह भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करती है, लेकिन उसने मतदान को रोकने से इनकार कर दिया।
सीबीसी से सेवानिवृत्त हो चुके एक वरिष्ठ पत्रकार और 'ब्लड फॉर ब्लड : 50 ईयर्स ऑफ द ग्लोबल खालिस्तान प्रोजेक्ट' के लेखक टेरी मिलेव्स्की ने डॉयचे वेले को बताया कि इस विषय पर कनाडा का रुख बहुत पुराना है। यहां कोई अपराध नहीं हो रहा है, जिसके लिए सजा हो। कंजरवेटिव और लिबरल दोनों ही पार्टियां इस बात को लेकर सचेत हैं कि यह अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा ना बन जाए।
बड़ी होती सिख राजनीतिक शक्ति
बीते कुछ सालों में कनाडा, अमेरिका और युनाइटेड किंग्डम में ऐसे संगठनों की शक्ति और संख्या बढ़ी है, जो कथित खालिस्तान के समर्थक हैं। इन सभी जगहों पर सिख आप्रवासी बड़ी तादाद में हैं। कनाडा की कुल आबादी का लगभग 1.4 फीसदी यानी 5 लाख सिख हैं। वे तेजी से उभरती हुई राजनीतिक ताकत बनते जा रहे हैं। देश के कई सांसद सिख हैं और स्थानीय व केंद्रीय सरकारों में भी हैं।
मिलेव्स्की कहते हैं कि कनाडा के नेता सिख मतों को खोना नहीं चाहते। लेकिन उनका यह मानना गलत है कि ऊंचा बोलने वाले अल्पसंख्यक सिख खालिस्तानियों की आवाज, सारे कनाडाई सिखों की आवाज है। अगर आप मान लें कि एक लाख सिख मतदान करने आए, जो कि बहुत बढ़ा-चढ़ाकर कहने वाली बात है, तब भी 80 फीसदी सिखों को इस बात से कोई लेना देना नहीं है। ऐसा लगता है कि यह एक जनसंपर्क अभियान है, एक धन-कमाऊ समूह है, जो इसके जरिए खूब धंधा चमका रहा है।
रविवार को मतदान से पहले भारत ने कनाडा को 1985 के एयर इंडिया उड़ान 182 पर हुआ आतंकवादी हमलाभी याद कराया था जिसमें 268 कनाडाई नागरिकों समेत कुल 382 लोग मारे गए थे। इस हमले के लिए कनाडा में रहने वाले सिख चरमपंथी जिम्मेदार था। 9/11 से पहले यह दुनिया का सबसे घातक आतंकवादी हमला था।
पिछले सितंबर में मतदान के पहले चरण से पहले भारत ने कनाडा के खिलाफ एक यात्रा चेतावनी भी जारी की गई थी जिसमें भारत विरोधी घटनाओं में वृद्धि का हवाला दिया गया था। ओटावा और नई दिल्ली के बीच यह मुद्दा लगातार तनाव की वजह बनता जा रहा है।
मिलेव्स्की जोर देकर कहते हैं कि कनाडा के लिए यह ज्यादा बड़ा मामला नहीं है लेकिन दोनों देशों के बीच घर्षण की एक वजह तो है। भारत के एक राज्य के लिए कनाडा की धरती पर मतदान होना अजीब बात है।
हिन्दू-सिख तनाव का डर
भारत में ऐसे लोगों को सख्ती से दबाया जा रहा है, जो खालिस्तान आंदोलन से संबंधित हो सकते हैं। ऐसे मामलों में वकालत करने वाले मानवाधिकार वकील आर एस बैंस कहते हैं कि अनलॉफुल एक्टीविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट (यूएपीए) जैसे कड़े कानून के तहत कुछ सिख युवकों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। ये सभी 20 साल से कम उम्र के हैं। उन्हें खालिस्तान जनमत संग्रह संबंधी सामग्री रखने या पोस्टर लगाने जैसे आरोपों में जेल में डाल दिया गया है।
बैंस कहते हैं कि विदेशों में बैठे आयोजक नहीं समझते हैं कि इन युवाओं के जीवन और परिवारों को कितना नुकसान उठाना पड़ रहा है। डॉयचे वेले को उन्होंने बताया कि वे गुमराह युवकों का प्रयोग करते हैं जिन्हें अक्सर ऐसी गतिविधियों के लिए पैसा दिया जाता है। दुख की बात है ये लोग सालों तक जेल में सड़ते हैं।
इन कथित जनमत संग्रहों के कारण सिखों और हिन्दुओं के बीच कनाडा में भी खाई बढ़ रही है। पिछले कुछ दिनों में ऐसी घटनाएं भी हुई हैं, जो तनाव को दिखाती हैं। भारत से कनाडा गए अकाउंटेंट हिमांशु भारद्वाज कहते हैं कि उन्हें तनाव बढ़ने का डर लगता है। भारद्वाज बताते हैं कि हिन्दू समुदाय भड़क सकता है और मेरा डर है कि वैसे तो हम यहां सिखों के साथ शांतिपूर्ण रूप से रहते हैं, लेकिन मेरा मानना है कि ऐसे जनमत संग्रहों से हालात बिगड़ सकते हैं और विवाद बढ़ सकता है। वह कहते हैं कि उनके आसपास के लोग आपस में बढ़ती दूरियों से चिंतित हैं।
कनाडा में भारत के राजदूत रह चुके अजय बिसारिया कहते हैं कि घरेलू राजनीति अक्सर आप्रवासियों के साथ विदेशों में पहुंच जाती है। उन्होंने कहा कि आप्रवासी अपने पुराने घर की पहचान को नए घर में लाते हैं। सरकारों का रुख उसे प्रभावित करता है। वे अक्सर घरों को ध्रुवीकृत राजनीति को विदेशों में ले आते हैं। सोशल मीडिया, तकनीक और आवाजाही बढ़ने के साथ घर से संपर्क भी मजबूत हुआ है। ब्रैंपटन और लीस्टर में तनाव रोकने के लिए आपके पास सीमाओं की सुविधा नहीं है। और हम देख चुके हैं कि पाकिस्तान की सरकारी एजेंसियां कश्मीर या खालिस्तान जैसे भारत विरोधी मुद्दों पर विरोध को हवा देती हैं।
Edited by: Ravindra Gupta