UCC: समान नागरिक संहिता के समर्थन में क्यों हैं मुस्लिम औरतें?

DW
सोमवार, 14 अगस्त 2023 (08:54 IST)
-शकील सोभन
 
Muslim women: भारत में मुसलमानों को परिवार या उत्तराधिकार जैसे मामलों में शरिया कानून का पालन करने की अनुमति है, लेकिन समान नागरिक संहिता लागू करके इसे खत्म किया जा सकता है। इस कानून पर मुस्लिम महिलाओं की क्या राय है? भारत में 2024 में आम चुनाव होने वाले हैं और समान नागरिक संहिता (यूसीसी) का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है। 
 
दरअसल, परिवार और उत्तराधिकार जैसे मामलों के लिए देश में अलग-अलग धार्मिक समूहों को अपने हिसाब से नियमों और कानूनों का पालन करने की अनुमति है। वर्तमान केंद्र सरकार अब सभी धर्मों के लिए समान नागरिक संहिता लागू कर सकती है।
 
कई मुस्लिम महिलाएं भी इस कानून को लागू करने की मांग कर रही हैं। उन्हें लगता है कि नया कानून लागू होने से उनके समुदाय को पुराने और पितृसत्तात्मक व्यक्तिगत कानूनों को खत्म करने में मदद मिलेगी। संवैधानिक विशेषज्ञ शिरीन तबस्सुम ने यूसीसी को लेकर कहा कि अगर इस कानून से समानता आती है तो यह मुस्लिम महिलाओं के लिए फायदेमंद होगा। यूसीसी से लैंगिक भेदभाव खत्म होगा।
 
महिला अधिकार कार्यकर्ता जाकिया सोमन भी इस बात से सहमत हैं कि यूसीसी के तहत लैंगिक न्याय और समानता को बढ़ावा देना चाहिए। उन्होंने कहा कि जब नेताओं ने यूसीसी की परिकल्पना की थी, तब उनके मन में भारतीय महिलाओं के अधिकारों के बारे में चिंताएं सबसे ऊपर थीं। यह कानून लैंगिक तौर पर हो रहे भेदभाव को जड़ से खत्म करने और सभी को न्याय दिलाने वाला होना चाहिए।
 
समान नागरिक संहिता क्या है?
 
यूसीसी व्यक्तिगत कानूनों का एक सेट है, जो धर्म, लिंग या यौन रुझान की परवाह किए बिना सभी भारतीय नागरिकों के लिए एक समान होगा। व्यक्तिगत कानूनों के तहत ही विवाह, तलाक, उत्तराधिकार और विरासत जैसे मामलों को नियंत्रित किया जाता है।
 
मौजूदा व्यवस्था के तहत महिलाओं को अकसर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ऐसा अलग-अलग धार्मिक समुदायों के लिए बने व्यक्तिगत कानूनों की वजह से होता है। यूसीसी उन कानूनों को देश के आपराधिक कानून के बराबर लाएगा, जो पहले से ही सभी पर लागू होता है।
 
1947 में भारत की आजादी के बाद से इस अवधारणा की कई बार कल्पना की गई है, लेकिन इसे लागू नहीं किया गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले महीने इस बात पर फिर से चर्चा शुरू की है, जिसमें कहा गया है कि 'अलग-अलग समुदायों के लिए अलग कानून' नहीं होने चाहिए। हालांकि 1.4 अरब की आबादी वाले देश में कई धार्मिक और जातीय समूह हैं और सभी के लिए एक समान कानून लागू करना आसान नहीं होगा।
 
एक समान कानून का विचार विवादास्पद क्यों है?
 
यूसीसी के समर्थकों का कहना है कि इससे समानता को बढ़ावा मिलेगा जबकि इसके आलोचकों का कहना है कि इससे धर्म और संस्कृति के हिसाब से जीने की आजादी खत्म हो सकती है। सबसे ज्यादा विरोध मुस्लिम समुदाय की ओर से हो रहा है। भारत में मुसलमानों की आबादी करीब 20 करोड़ है और उनमें से कई लोगों को लगता है कि यूसीसी से उनके धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार पर असर पड़ेगा।
 
गैर-सरकारी संगठन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि इस कानून के लागू होने से मुसलमानों की पहचान खो सकती है। यह संगठन मुसलमानों के लिए शरिया कानून की वकालत करता है। हालांकि, मुस्लिम बहुल देशों में भी धार्मिक कानून की अलग-अलग तरीके से व्याख्या की गई है।
 
मुस्लिम महिलाओं के लिए क्या बदलेगा?
 
भारत में शरिया कानून की पितृसत्तात्मक व्याख्या का खामियाजा मुस्लिम महिलाओं को भुगतना पड़ा है। विशेषज्ञों का कहना है कि पितृसत्तात्मक व्याख्या की वजह से महिलाओं को वे अधिकार नहीं मिल पाते जिससे वे सशक्त बन सकें।
 
महिला अधिकार कार्यकर्ता जाकिया सोमन ने कहा कि मुस्लिम महिलाओं को शादी, तलाक और पारिवारिक कानून के मामलों में कानूनी सुरक्षा की सख्त जरूरत है। दुर्भाग्य की बात यह है कि धार्मिक गुरु मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधार करने में विफल रहे हैं। इसके कारण काफी ज्यादा भेदभाव हुआ है और महिलाओं को न्याय नहीं मिला। एक बेहतर यूसीसी इस भेदभाव को काफी हद तक दूर कर सकता है।
 
भारत में प्रचलित शरिया कानून के तहत मुस्लिम पुरुष चार महिलाओं से शादी कर सकते हैं। वहीं जब तलाक के साथ-साथ पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण की बात आती है तो उस मामले में भी मुस्लिम पुरुषों का दबदबा होता है। विरासत के मामले में बेटियों को बेटों की तुलना में आधा हिस्सा मिलता है। गोद लिए गए बच्चों के विरासत से जुड़े अधिकारों के बारे में भी शरिया कानून में स्पष्ट नियम नहीं हैं।
 
इसके अलावा भारत में शादी की कानूनी उम्र पुरुषों के लिए 21 और महिलाओं के लिए 18 वर्ष है जबकि मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक लड़का और लड़की में प्यूबर्टी या यौवन की शुरुआत हो जाती है तो उनकी शादी हो सकती है।
 
समान नागरिक संहिता के बारे में विस्तार से लिखने वाली स्तंभकार आमना बेगम अंसारी का कहना है कि इन मानदंडों को बदलने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि बहुविवाह बिल्कुल खत्म होना चाहिए। शादी की उम्र सभी के लिए एक समान होनी चाहिए। कम उम्र की लड़कियों के साथ शादी को बलात्कार माना जाना चाहिए।
 
क्या रास्ता अपनाया जाना चाहिए?
 
तबस्सुम का कहना है कि हर तरह के सुधार का विरोध होता है, लेकिन सरकार को इसकी परवाह किए बगैर आगे बढ़ना चाहिए। उन्होंने कहा कि सती प्रथा, बाल विवाह, तीन तलाक जैसी प्रथाएं भी सरकार और सुप्रीम कोर्ट के सामूहिक प्रयास की वजह से ही खत्म हुईं। समाज में पूरी तरह जड़ जमा चुकी इस तरह की प्रथाओं को खत्म करने के लिए सरकारों को ही आगे बढ़ना होता है।
 
यूसीसी के कुछ आलोचकों का कहना है कि सभी के लिए एक समान कानून लागू करने की जगह व्यक्तिगत कानूनों में सुधार करना बेहतर होगा जबकि, अंसारी इस बात से सहमत हैं कि इस सुधार का स्वागत किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर सभी के लिए आपराधिक कानून एक समान हैं तो व्यक्तिगत कानून क्यों नहीं?

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