दक्षिण एशिया की महिलाएं समय से पहले बूढ़ी क्यों हो रही हैं ?

जब समाज में औरत की अहमियत सिर्फ उसकी मां बनने की क्षमता से तय की जाती है, तो बढ़ती उम्र उसके लिए बोझ बन जाती है। उम्र का बढ़ना ना सिर्फ सामाजिक नजरिए से एक चुनौती है, बल्कि यह एक गंभीर स्वास्थ्य समस्या भी है।

DW
शनिवार, 12 जुलाई 2025 (08:12 IST)
कौकब शायरानी
विदेश में रहने वाली पाकिस्तानी महिला, सुमरिन कालिया की शादी 18 साल की उम्र में ही हो गई थी और 25 साल की होने तक वह चार बच्चों की मां भी बन गई थी। 37 की उम्र में उन्हें अचानक से उनके मेनोपॉज हो गया। जबकि इससे पहले उन्हें इसका कोई संकेत भी महसूस नहीं दिखा था। 
 
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "मुझे बहुत ज्यादा ब्लीडिंग होने लगी थी। जब डॉक्टर के पास गई तो उन्होंने कहा कि शायद मैं पेरिमेनोपॉज (मेनोपॉज से पहले की अवस्था) में हूं।” विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, दुनियाभर में मेनोपॉज की औसत उम्र 45 से 55 साल के बीच है।
 
सुमरिन ने बताया, "किसी ने मुझे कभी इसके बारे में ठीक से बताया ही नहीं था। यह सब अचानक से सामने आया जब बार-बार बहुत ज्यादा ब्लीडिंग होने लगी।” उस समय वह गर्भनिरोध के लिए आईयूडी (इंट्रायूटेरिन डिवाइस) का इस्तेमाल कर रही थी। जब उन्होंने उसे निकलवाया, तो अचानक से उनकी माहवारी पूरी तरह से बंद हो गई।
 
डीडब्ल्यू से बात करने वाली कई अन्य दक्षिण-एशियाई महिलाओं ने भी इसी तरह के अनुभव साझा किए। हालांकि, सभी कहानियों में एक समानता थी कि बाकी दुनिया की महिलाओं की तुलना में उन्होंने मेनोपॉज के लक्षण कहीं पहले महसूस होने लगे थे।
 
मेनोपॉज के पीछे छिपी सच्चाई
एक अमेरिकी रिसर्च के अनुसार, दक्षिण एशियाई मूल की अमेरिकी महिलाएं औसतन 48 से 49 साल की उम्र में मेनोपॉज का अनुभव करती हैं। जबकि अमेरिकी महिलाओं में यह औसत उम्र 52 साल है।
 
दूसरी ओर, दक्षिण एशिया में मेनोपॉज की औसत उम्र और भी कम है। खासकर, भारत और पाकिस्तान में, जहां महिलाएं लगभग 46 से 47 साल की उम्र में ही मेनोपॉज में प्रवेश कर जाती हैं। उससे पहले उन्हें पेरिमेनोपॉज (शुरुआती लक्षण) का सामना भी करना पड़ता है, जो कि मेनोपॉज का अहम हिस्सा है।
 
इस बीच पाकिस्तान में प्रति महिला औसत बच्चों की संख्या में भी गिरावट दर्ज की गई है। 2023 में यह आंकड़ा 3.61 था, जो कि 2024 में घटकर 3.19 हो गया। हालांकि, भारत में यह गिरावट धीमी रही लेकिन फिर भी यह आंकड़ा 2.14 से गिर कर 2.12 पर आ गया है।
 
यह साफ नहीं है कि जल्दी होते मेनोपॉज और कम होती प्रजनन दर के बीच कोई सीधा संबंध है या नहीं। लेकिन इतना साफ है कि कई सामाजिक, जैविक और पर्यावरणीय कारक मिलकर दक्षिण एशियाई महिलाओं की जल्दी उम्र बढ़ने की प्रक्रिया पर असर डालते हैं। 
 
जेनेटिक्स, बायोलॉजी और विटामिन-डी की कमी
हार्मोनल हेल्थ की विशेषज्ञ और पाकिस्तान में कंसल्टेंट फिजीशियन, पलवाशा खान बताती हैं कि मेनोपॉज का समय काफी हद तक जेनेटिक यानी आनुवांशिक होता है।
 
डीडब्ल्यू को उन्होंने बताया, "कोई तय नियम तो नहीं है, लेकिन रिसर्च बताती हैं कि महिलाओं के आमतौर पर उतनी ही उम्र में पीरियड्स शुरू और बंद होते हैं, जितनी उम्र में उनकी मां का हुआ था। अगर किसी लड़की को जल्दी पीरियड्स शुरू होते हैं, तो मेनोपॉज भी जल्दी आ सकता है।”
 
खान ने एक और अहम कारण पर भी ध्यान केंद्रित किया। दक्षिण-एशियाई महिलाओं में तेजी से घटते विटामिन-डी के स्तर पर, जो कि उम्र बढ़ने से जुड़ी कई बीमारियों को और भी गंभीर बना सकती है।
 
इसके अलावा, उन्होंने बताया कि बहुत-सी महिलाओं को 30 के अंत या 40 की शुरुआत में ही ओवरी फेलियर यानी अंडाशय की कार्यप्रणाली में गिरावट का सामना करना पड़ता है, जो कि अक्सर शुरुआत में पता नहीं चल पाता हैं। जिससे कि आगे जाकर काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है।
 
स्वास्थ्य से ज्यादा महत्वपूर्ण है प्रजनन
दक्षिण एशिया में, खासकर पाकिस्तान जैसे देशों में, महिलाओं पर बहुत जल्दी मां बनने का दबाव दिया जाता है। जिसका असर अक्सर उनकी सेहत पर होता है।
 
पलवाशा खान ने कहा, "महिलाओं का स्वास्थ्य एक अहम मुद्दा है, लेकिन उसे काफी नजरअंदाज किया जाता है।” उन्होंने बताया कि हॉर्मोन से जुड़ी बीमारियों को लेकर जागरूकता तो और भी कम है और हॉर्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपी जैसे इलाज तो लगभग ना के बराबर है। आपको 10,000 में से शायद ही दो महिलाएं मिलेंगी, जिन्होंने हॉर्मोन रिप्लेसमेंट थेरेपी ली हो।
 
ऐसे समाज में जहां मां बनने की भूमिका को इतनी प्रमुखता दी जाती है। वहां अक्सर मेनोपॉज और महिलाओं के शारीरिक और मानसिक बदलावों को ना तो सही से समझा जाता है और ना ही उनकी सही से देखभाल की जाती है।
 
मेनोपॉज की असली कीमत
कराची में रहने वाली 45-वर्षीय सबीना काजी ने डीडब्ल्यू को बताया कि मेनोपॉज उनके लिए सिर्फ एक शारीरिक बदलाव ही नहीं था, बल्कि एक गहरी मानसिक और भावनात्मक चुनौती बन गया था।
 
उन्होंने बताया, "मेरे पति और बच्चे मुझसे बात करते थे, लेकिन बातों का मतलब कहीं बीच में ही छूट जाता... क्योंकि मुझे हर वक्त यह साबित करने की जरूरत महसूस होती रहती थी कि मैं मूर्ख नहीं हूं।”
 
इसके साथ ही उन्होंने बताया कि इन दिमागी उलझनों और ‘ब्रेन फॉग' के लक्षण उन्हें तब ज्यादा सताने लगे, जब उन्होंने "रैडिकल हिस्टरेक्टॉमी” करवाई यानी जब कैंसर के खतरे के कारण महिलाओं का गर्भाशय, फैलोपियन ट्यूब्स और अंडाशय हटा दिए जाते हैं।
 
सबीना ने कहा कि यह ऑपरेशन, जो एक तरह से सर्जिकल मेनोपॉज का रूप है। इससे जुड़ी सबसे बड़ी दुखद बात यह थी कि डॉक्टरों ने इसके दीर्घकालिक असर पर ध्यान ही नहीं दिया। भले ही सर्जरी एक एहतियाती कदम था, लेकिन उससे जुड़े मानसिक तनाव के बारे में कभी चर्चा ही नहीं की गई।
 
बल्कि ऐसा बताया गया जैसे यह तो होना ही था। कुछ सालों में तो वैसे भी मेनोपॉज आता, तो इसे अभी ही क्यों न खत्म कर दिया जाए?
 
बाद में उन्होंने मेनोपॉज के लक्षणों को संभालने के लिए हॉर्मोन रिप्लेसमेंट थैरेपी शुरू की। लेकिन फिर भी मानसिक धुंध, यानी ‘ब्रेन फॉग', जिसमें एकाग्रता और सोचने-समझने की क्षमता प्रभावित होती है, उनके लिए सबसे जटिल समस्या बनी रही।
 
सबीना का अनुभव केवल उनका नहीं है। पलवाशा खान जैसी विशेषज्ञों का कहना है कि दक्षिण एशिया की कई महिलाओं में 30 के अंत या 40 की शुरुआत में ही अंडाशय की कार्यप्रणाली में गिरावट आ जाती है। यह गिरावट अक्सर कई दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़ी होती है, जिन्हें अब तक नजरअंदाज किया जाता रहा है।
 
सबीना काजी के शारीरिक जख्म तो भर गए, लेकिन उसकी भावनात्मक चोट लंबे समय तक बनी रही। उनके समुदाय और करीबी लोगों से उन्हें कोई खास सहारा नहीं दिया। उनके आस-पास के लोग अक्सर उनको बोलते रहे कि तुम्हें किस बात की चिंता, तुम्हारे तो पहले ही तीन बच्चे हैं।
 
काजी कहती हैं कि इस सोच के पीछे एक गहरी सांस्कृतिक भावना है कि एक महिला के प्रजनन अंगों का मकसद सिर्फ बच्चे पैदा करना है। जब वो काम पूरा हो गया है, तो इसे खो देना कोई बड़ी बात नहीं है।
 
"ब्राउन महिलाएं थक चुकी हैं”
पलवाशा खान ने कहा कि दक्षिण एशियाई महिलाओं में उम्र बढ़ने की प्रक्रिया तेजी से क्यों हो रही है, इसके पीछे कई परतें हैं। जैसे कि लगातार बनी रहने वाली बीमारियां, मानसिक तनाव, और सामाजिक दबाव। यह सभी कारण एक-दूसरे को गहराई से मजबूती देते हैं।
 
खान ने कहा, "ब्राउन महिलाएं अब बहुत थक चुकी हैं। समाज का बोझ, सासों की उम्मीदें। महिलाएं हर बात का बोझ अपने सिर पर लेती हैं और यही उन्हें जल्दी बूढ़ा कर रहा है।”
 
इन महिलाओं से समाज हर भूमिका निभवाना चाहता है, वह भी बिना किसी सहारे के। चाहे वह मां की हो, बहू की हो, या कामकाजी पत्नी की हो। जिसका नतीजा क्या निकलता है? उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर, जिसके बारे में कोई बात नहीं होती। सऊदी अरब में रहने वाली एक दक्षिण एशियाई मूल की महिला ने कहा, "मुझे हमेशा गुस्सा आता रहता है।”
edited by : Nrapendra Gupta 

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