क्या बिहार में फिर दागी बन पाएंगे माननीय विधायक

DW
शनिवार, 5 सितम्बर 2020 (08:49 IST)
रिपोर्ट मनीष कुमार, पटना
 
 
बिहार में राजनीतिक पार्टियां आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को धड़ल्ले से उम्मीदवार बनाती रही हैं किंतु सुप्रीम कोर्ट के एक निर्देश के बाद अब पार्टियों को बताना होगा कि दागी व्यक्ति को प्रत्याशी क्यों बनाया?
 
बिहार में पड़ोसी राज्य उत्तरप्रदेश की तरह राजनीति व अपराध का बड़ा ही पुराना गठजोड़ रहा है। चुनाव जीतने के लिए राजनीतिज्ञों ने पहले अपराधियों का भरपूर उपयोग किया। किंतु जब इन दागियों को यह समझ में आ गया कि वे हमारी बदौलत माननीय बन सकते हैं तो हम क्यों नहीं? तब वे सीधे ही लोकतंत्र के अखाड़े में कूद पड़े। जाति, धर्म जैसे प्रमुख कारकों पर राजनीति के निर्भर होने के कारण इनकी राह आसान हो गई और फिर लोकसभा व विधानसभा में बड़ी संख्या में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों की उपस्थिति दर्ज होने लगी।
 
धन और बाहुबल के दम पर सरकार बनाने और बिगाड़ने में इन बाहुबलियों का खासा योगदान रहा। शायद यही वजह है कि राज्य की किसी भी पार्टी को इनसे परहेज नहीं रहा। चुनाव के पूर्व पार्टियां भले ही आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को टिकट न देने का राग अलापती रहीं हों किंतु ऐन मौके पर अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए उन्हें प्रत्याशी बनाने से कोई गुरेज नहीं किया।
 
80 के दशक में बिहार की राजनीति में वीरेंद्र सिंह महोबिया व काली पांडेय जैसे बाहुबलियों का प्रवेश हुआ, जो 90 के दशक के अंत तक चरम पर पहुंच गया। इनमें प्रभुनाथ सिंह, सूरजभान सिंह, पप्पू यादव, मोहम्मद शहाबुद्दीन, रामा सिंह व आनंद मोहन तो लोकसभा पहुंचने में कामयाब रहे जबकि अनंत सिंह, सुरेंद्र यादव, राजन तिवारी, अमरेंद्र पांडेय, सुनील पांडेय, धूमल सिंह, रणवीर यादव, मुन्ना शुक्ला आदि विधायक व विधान पार्षद बन गए। यह वह दौर था, जब बिहार में चुनाव रक्तरंजित हुआ करता था। इस दौर में यह कहना मुश्किल था कि पता नहीं कौन अपराधी कब माननीय बन जाए।
2005 में नीतीश कुमार की सरकार बनने के बाद स्थिति तेजी से बदली। 2006 में नीतीश सरकार ने पुराने आपराधिक मामलों की त्वरित सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन किया। इसके बेहतर परिणाम सामने आए। कई दबंग अदालत द्वारा दोषी ठहराए गए और चुनाव लड़ने के योग्य नहीं रहे। जैसे-जैसे कानून का राज मजबूत होता गया, इन बाहुबलियों की हनक कमजोर पड़ती गई। फिलहाल कुछ जेल में सजा काट रहे हैं तो कुछ से पार्टियों ने ही दूरी बना ली।
 
बाहुबलियों से सांठगांठ में कोई पार्टी पीछे नहीं
 
2005 में बिहार में लालू राज का अंत हो गया किंतु ऐसा नहीं हुआ कि इसके साथ ही बिहार की राजनीति से आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों का खात्मा हो गया। इसके बाद भी हुए विधानसभा चुनावों में अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए सभी दलों ने इनका सहारा लिया। राज्य का शायद ही कोई विधानसभा क्षेत्र ऐसा होगा, जहां एक-न-एक दबंग चुनाव को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं होगा। यही वजह है कि पार्टियां अपनी जीत सुनिश्चित करने के इन स्थानीय दबंगों या उनके रिश्तेदारों को अपना उम्मीदवार बनाने से परहेज नहीं करती हैं।
 
एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्मस (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार 2010 में हुए विधानसभा चुनाव में 3,058 प्रत्याशी चुनाव मैदान में थे जिनमें 986 दागी थे, वहीं 2015 के चुनाव में 3,450 प्रत्याशियों में से आपराधिक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों की संख्या 1038 यानी 30 प्रतिशत थी। इनमें से 796 यानी 23 फीसदी के खिलाफ हत्या, हत्या के प्रयास, सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने, अपहरण व महिला उत्पीड़न जैसे गंभीर मामले दर्ज थे।
 
2015 के चुनाव में जदयू ने 41, राजद ने 29, भाजपा ने 39 और कांग्रेस ने 41 प्रतिशत दागियों को टिकट दिया। यही वजह है कि 243 सदस्यीय विधानसभा के 138 अर्थात 57 प्रतिशत विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। इनमें 95 के खिलाफ तो गंभीर किस्म के मामले थे। अगर दलगत स्थिति पर गौर करें तो राजद के 81 विधायकों में 46, जदयू के 71 में 37, भाजपा के 53 में 34, कांग्रेस के 27 में 16 व सीपीआई (एम) के तीनों तथा रालोसपा और लोजपा के 1-1 विधायक के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे। एक नजर में 2010 में चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे 57 प्रतिशत तो 2015 में विजयी 58 फीसदी माननीय नेताओं पर केस चल रहा था। 2010 में 33 प्रतिशत तो 2015 में 40 फीसदी विधायक गंभीर आपराधिक मामले में आरोपित थे।
 
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से कठिन हुई राह
 
ऐसा नहीं है कि राजनीति में बाहुबलियों के बढ़ते दखल से पूर्ववर्ती सरकारें अवगत नहीं थीं और इसे रोकने के प्रयास नहीं किए गए। 1993 में वोहरा कमेटी की रिपोर्ट तथा 2002 में बने राष्ट्रीय आयोग एनसीआरडब्ल्यूएल ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश की राजनीति में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों की संख्या बढ़ रही है जिसे नियंत्रित करना नितांत आवश्यक है।
 
चुनाव सुधार के लिए किए गए प्रयासों की कड़ी में 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि संसद, राज्य की विधानसभाओं या नगर निगमों के लिए चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक उम्मीदवार को अपनी शैक्षणिक, वित्तीय और आपराधिक पृष्ठभूमि, यदि कुछ हो तो उसकी घोषणा करनी होगी जबकि 2005 के एक फैसले में सर्वोच्च अदालत ने कहा कि सांसद या विधायक को अदालत द्वारा दोषी पाए जाने पर चुनाव लड़ने के अयोग्य माना जाएगा और उसे 2 साल से कम की सजा नहीं दी जाएगी। वहीं 2017 के एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने राजनीतिज्ञों पर चल रहे आपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना का आदेश दिया था।
 
किंतु फरवरी, 2020 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी किए गए निर्देश ने राजनीतिक दलों तथा आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों की राह वाकई कठिन बना दी है। निर्देश के अनुसार सभी दलों को यह बताना होगा कि आखिर किस वजह से पार्टी ने दागी नेता को अपना प्रत्याशी बनाया है, वहीं उम्मीदवारों को अपने संपूर्ण आपराधिक इतिहास की जानकारी पार्टी प्रत्याशी घोषित होने के 48 घंटे के भीतर स्थानीय व राष्ट्रीय समाचार पत्रों में प्रकाशित करवानी होगी तथा 72 घंटे के अंदर सभी जानकारी चुनाव आयोग में जमा करनी होगी। अदालत ने अखबारों में प्रकाशन के लिए प्वॉइंट साइज तक भी निर्धारित कर दी है, जो कम से कम 12 प्वॉइंट में होगा। इसके अलावा उन्हें यह सारी जानकारी सोशल मीडिया हैंडल पर भी सार्वजनिक करनी होगी। साथ ही यह भी कहा कि अगर ऐसा नहीं किया गया तो यह अदालत की अवमानना मानी जाएगी।
 
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद पहली बार बिहार में ही विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। चुनाव आयोग ने भी अदालत के आदेश के संबंध में राज्य की रजिस्टर्ड 150 पार्टियों को पत्र भेज दिया है जिसमें सुप्रीम कोर्ट के आदेश का अनुपालन सुनिश्चित करने की ताकीद की गई है।
 
पार्टियों और मतदाताओं की जिम्मेदारी
 
अब देश की बड़ी और मुख्य धारा की पार्टियों को उम्मीदवारों के चुनाव में पारदर्शिता दिखानी होगी। वरिष्ठ पत्रकार सुभाष पांडेय कहते हैं, 'इससे स्थिति पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा। पार्टियों को अगर उस प्रत्याशी की जीत सुनिश्चित लगेगी तो उन्हें यह प्रकाशित करने में कोई हर्ज नहीं होगा कि प्रथमदृष्टया उनके खिलाफ अमुक-अमुक मामले दर्ज हैं। असली फैसला तो जनता को करना है।'
 
वहीं रिटायर्ड प्रोफेसर मधुलिका शर्मा कहती हैं, 'इससे पार्टियां सुधरने वालीं नहीं हैं। इसके तोड़ में ऐसे लोगों के रिश्तेदारों को टिकट देकर पार्टियां बीच का रास्ता निकालेंगी। पहले भी ऐसा होता रहा है। उन्हें तो किसी भी हालत में बस जीत चाहिए। आम आदमी को सोच-समझकर मतदान करना होगा तभी स्थिति में फर्क आएगा।'
 
किसी भी लोकतंत्र की तरह भारतीय लोकतंत्र की भी असली ताकत तो जनता है। अदालत ने चुनावी प्रक्रिया को पारदर्शी और स्वच्छ बनाने के कोशिश की है। अब अंतरदलीय लोकतंत्र के प्रभाव से ग्रसित विकास व सुशासन की राजनीति करने का दंभ भरने वाले दलों के नेतृत्व को टिकट वितरण में पारदर्शी प्रक्रिया अपनानी होगी। सभी दलों को इस पर विचार करना होगा तथा आम जनता को भी जाति-धर्म से ऊपर उठकर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले या इनसे जुड़े प्रत्याशियों का बहिष्कार करना होगा।
 
व्यवसायी अजय कुमार कहते हैं, 'इस फैसले से इतना तो जरूर होगा कि लोगों को यह जानकारी मिल जाएगी कि वे जिसे चुनने जा रहे हैं, वह व्यक्ति आपराधिक चरित्र का है अथवा नहीं? फिर भी अगर जनता उसे ही चुनेगी तो इसमें क्या किया जा सकता है?'

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