अक्षय ऊर्जा की अनंत चुनौतियां

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जर्मनी में पर्यावरण को बचाने के लिए कई लोग सस्ते में ऊर्जा का कम इस्तेमाल करने वाले घर बना रहे हैं। लेकिन क्या भारत में इस विकल्प का इस्तेमाल किया जा सकता है।

पर्यावरण को बचाने के लिए तो बहुत लोग खड़े हो जाते हैं लेकिन भारत जैसे देश में यह महंगा पड़ सकता है। लेकिन जर्मनी में अब ऊर्जा बचाने वाले घर सस्ते में बन सकते हैं।

जर्मन डाक कंपनी डॉयचे पोस्ट में काम कर रहे माथियास शेफर को यह पता चला। जब उन्होंने घर खरीदने की सोची तो उन्हें कोलोन की एक पुरानी इमारत में सुंदर फ्लैट मिला। इसे 1905 में बनाया गया था और ऊर्जा बचाने के लिए इसे रेनोवेट किया जा रहा था।

उनके नए घर में कम ईंधन इस्तेमाल करने वाली हीटिंग है, नई खिड़कियां हैं और सर्दी से बचाने के लिए दीवारों और छत पर इंसुलेशन है। वह कहते हैं, 'यह पुरानी इमारत है और इसकी सुंदरता को खराब किए बिना इसमें बदलाव लाना मुश्किल था।'

लेकिन पर्यावरण और ऊर्जा को बचाने के लिए शेफर को बैंक से कम ब्याज पर कर्ज मिला। विकास बैंक केएफडब्ल्यू ने उनके घर के लिए 75,000 यूरो (लगभग 50 लाख रुपए) का कर्ज मंजूर किया। बैंक के मुताबिक जर्मन सरकार ने ऊर्जा खर्च की जो सीमा तय की है, ये घर उसका महज 55 से 70 फीसदी ऊर्जा खर्च कर रहा है।

केएफडब्ल्यू ने बाजार में बैंकों के मुकाबले शेफर को दो प्रतिशत की दर पर कर्ज दिया। शेफर का कहना है कि उनका निवेश काफी फायदेमंद रहा, 'ऊर्जा पर मैं अब पहले से आधा पैसे खर्चता हूं। मैं बहुत खुश हूं कि मेरा फैसला पर्यावरण के लिए नहीं, बल्कि मेरे लिए भी अच्छा रहा।'

भारत में स्थिति : भारत में पर्यावरण या ऊर्जा को बचाने के लिए कार्यक्रमों से कोई सीधा फायदा नहीं मिलता। सबसे पहले तो भारतीय शहरों में जगह की कमी है। अंतरराष्ट्रीय रियल एस्टेट कंपनी जोन्स लांग लासाल के मुताबिक पर्यावरण को बचाने के चक्कर में भारतीय घर उद्योग को बहुत चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।

पश्चिम एशिया पर जोन्स लांग लासाल के लिए काम कर रहे रजत मल्होत्रा कहते हैं कि 2014 तक भारत के सात शहरों में 25 प्रतिशत जगह खाली हो जाएगी और निर्माण कंपनियों को इन जगहों के लिए किरायदार या खरीदार मिलने में मुश्किलें आएंगी।

साथ ही 2030 तक औद्योगिक और रिहाइशी इलाकों में ऊर्जा की खपत देश की पूरी ऊर्जा खपत का 40 प्रतिशत होगी, यानी करीब 2000 किलोवॉट घंटा। 2012 में हम इसका आधा खर्च रहे हैं। इस आंकड़े में रिहाइशी इलाकों में 60 प्रतिशत ऊर्जा की खपत होगी।

लेकिन कुछ प्रोत्साहन और नियमों के साथ स्थिति को बदला जा सकता है। हाल ही में सरकार ने कुछ ऐसी नीतियां बनाई हैं जिससे ऊर्जा बचाव को अनिवार्य किया जा सकतेगा। पर्यावरण और वन मंत्रालय ने तय किया है कि 20,000 वर्ग मीटर से बड़े औद्योगिक क्षेत्रों को पर्यावरण क्लियरेंस की जरूरत होगी। 1.24 अरब वर्ग फीट को हरित क्षेत्र घोषित किया गया है।

हालांकि मल्होत्रा कहते हैं कि घर खरीदने वाले शायद पेड़ पौधों के लिए और पैसे देना नहीं चाहेंगे। या तो सरकार को सीधा प्रोत्साहन देना होगा ताकि लोग खुद ऐसे फैसले लें।

जर्मनी में घर खरीदने वालों को अच्छा प्रोत्साहन मिलता है। ऊर्जा बचाने के लिए बनाए गए घरों में देखा जाता है कि वहां के हीटिंग सिस्टम कम ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं। साथ ही अक्षय ऊर्जा जैसे पवन, सौर या बायोगैस पर निर्भरता को भी देखा जाता है। अगर घरों में सर्दी को रोकने के लिए इंसुलेशन लगाया गया हो तो यह भी घर के मालिकों के फायदे में होता है।

केएफडब्ल्यू जैसे बैंक भी इन घरों को जांचते हैं और ऊर्जा बचाव कार्यक्रमों के अनुसार इन्हें फायदा मिलता है। अगर कोई घर ऊर्जा बचाव श्रेणी 55 में हो तो पूरे खर्चे के 20 प्रतिशत तक का कर्ज आराम से मिल जाता है।

माथियास शेफर के ही अनुभव को लिया जाए तो ऊर्जा में अपने खर्चे को पहले के मुकाबले वह 20 प्रतिशत तक ला पाए हैं। पहले हर साल ऊर्जा में वह 2,730 (लगभग डेढ़ लाख रुपए) यूरो खर्चते थे, अब वे केवल 564 यूरो (करीब 35000 रुपए) देते हैं।

अगर भारत में बैंक और सरकार इस तरह का प्रोत्साहन दे तो भारत में भी घर पर्यावरण को बचाने में मदद कर सकते हैं।

रिपोर्टः सारा एब्रहम/एमजी
संपादनः ए जमाल

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