एक सच प्रतियोगी परीक्षाओं का

जीवन के रंगमंच से

भारती पंडित
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हाल ही में दसवीं कक्षा के परिणाम आए हैं और सीबीएसई ने भले ही ग्रेडिंग के द्वारा बच्चों का तनाव कम करने की पहल की हो मगर वास्तव में इन बच्चों का तनाव तो इस परिणाम के साथ ही शुरू हो जाता है। सारे अखबार कोचिंग कक्षाओं के इश्तेहारों से भरे नजर आते हैं और पालक इनके लुभावने प्रलोभनों से आकर्षित होकर इनकी ओर दौड़ पड़ते हैं।

हर दूसरे पालक को अपने बच्चे को आईआईटी,पीएमटी या ऐसी ही किसी परीक्षा में झोंकना होता है और ऐसे में कई बार वे बच्चे की रूचि या क्षमता का ध्यान ही नहीं रखते। कई बार बच्चे स्वयं इन प्रलोभनों में आकर पालकों को मजबूर करते है कि उन्हें इन कक्षाओं में प्रवेश दिलाया जाए और इस रेस का घोड़ा बना दिया जाए।

कितनी हैरत की बात है कि छात्रों के भविष्य के बारे में इतना महत्त्वपूर्ण निर्णय लेते समय न तो ये कोचिंग वाले बच्चे के लिए कोई मानक परीक्षा आयोजित करते है(जिससे यह जाना जा सके कि बच्चा वास्तव में इन परीक्षाओं को देने लायक है या नहीं या वह गणित विषय की पढ़ाई कर सकता है या नहीं ) न ही पालक इस बारे में सोचते हैं।

कुछ जागरूक स्कूलों द्वारा यह परीक्षण कराया भी जाता है मगर बच्चे की रूचि कला या साहित्य में निकलने पर पालक इसे बकवास करार देते हैं और बच्चे को गणित-विज्ञान लेने को मजबूर करते हैं। एक सामान्य सी सोच है कि गणित-विज्ञान में जॉब सिक्योरिटी ज्यादा है और कला में नहीं। जबकि आज परिदृश्य बिलकुल बदल चुका है। कला और साहित्य में भी अवसरों की और अच्छे वेतन वाले जॉब की भरमार है।

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कोचिंग क्लास जाने वाले बच्चों को विषय के कॉन्सेप्ट विस्तार से पढ़ाए जाने की बजाय केवल आईआईटी जैसी परीक्षाओं पर फोकस करना सिखाया जाता है। इससे हो सकता है कि बच्चे का विषय का मूल ज्ञान कमतर ही रहे। इसके अलावा 12वीं कक्षा के बच्चों को यह सलाह अक्सर दी जाती है कि वे या तो डमी स्कूल ज्वॉइन करें या स्कूल से छुट्टी मारकर कोचिंग में टेस्ट दें। क्या ऐसे में बच्चे का बोर्ड परीक्षाओं का नतीजा प्रभावित नहीं होगा?

इस बारे में एक तथ्य पर और गौर करे कि यदि एक कोचिंग वाले इन प्रतियोगी परीक्षाओं के 5 बैच चलाते है तो उनमें से कुछ ही बच्चे होते है जो वास्तव में ही योग्य होते है, शेष तो बस खानापूर्ति का सामान मात्र बन जाते हैं। इसी तरह इन परीक्षाओं में सफल छात्रों का प्रतिशत भी मुश्किल से 10 या 12 का होता है।

फिर बाकी बच्चों के भविष्य का क्या? सफल बच्चों की जय-जयकार में इन असफल बच्चों की कोई सुध लेता है? नहीं। ये बच्चे या तो स्ट्रीम बदलते है या फिर एक और ट्रायल की लाइन में लग जाते हैं। उनके फ्रस्ट्रेशन का कोई अंत नहीं होता। कई बार इस चक्कर में उनका बोर्ड का परिणाम भी बिगड़ जाता है और वे कहीं के नहीं रहते।

वास्तव में हमारी शिक्षा नीति की ढील पोल के चलते इस तरह के सारे संस्थान जम कर पैसा कूट रहे है और पालक मूर्ख बनते जा रहे हैं। आईआईटी जैसी संस्थाएँ जब अपनी प्रवेश परीक्षाओं के प्रश्नपत्र में एक बड़ी गलती को नजरअंदाज कर सकती है(जिसक‍ी वजह से इस वर्ष कई बच्चों का चयन नहीं हो पाया) और बच्चों के भविष्य को दाँव पर लगा सकती है तो इनकी क्षमताओं को किस कदर विश्वसनीय माना जाए?

इन परीक्षाओं के बारे में एक और बात बताना चाहूँगी कि चयनित बच्चों को भी अच्छा कॉलेज और सही ब्रांच तभी मिलती है जब उनकी रेंक400-500 के अंदर हो, अन्यथा उन्हें भी मन मारकर किसी भी ब्रांच या कॉलेज के साथ समझौता करना पड़ता है और भविष्य पर खतरा ज्यों का त्यों बना रहता है।

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आश्चर्य होता है कि हम इस बारे में सीधी राह क्यों नहीं अपनाते। कई अच्छे संस्थान उन बच्चों को जो बोर्ड परीक्षाओं में 94 % से ऊपर अंक लाते हैं, सीधे ही अच्छे कोर्सेस में प्रवेश देते हैं और अच्छे प्लेसमेंट की भी ग्यारंटी देते हैं। यही नहीं इन बच्चों के लिए विदेशी संस्थानों के भी दरवाजे खुले रहते हैं जो निश्चय ही बेहतर भविष्य की ग्यारंटी होते हैं।

मगर इस बारे में प्रचार सही न होने से सूचना लोगों तक पहुँच ही नहीं पाती है। जानकारी के अभाव में दोनों ही एक-दूसरे से वंचित रह जाते हैं।

एक भुक्तभोगी अभिभावक होने के नाते मेरा सभी से निवेदन है कि बच्चों को इस राह पर भेजने से पहले उसे स्कूल की पढ़ाई का और गतिविधियों का पूरा मजा लेने दें, उसे मूल परीक्षा में अच्छे अंक लाने के लिए प्रेरित करे। आवश्यक समझे तो एक वर्ष का ड्रॉप दिलाकर ही इन परीक्षाओं की तैयारी कराएँ। इंजीनियरिंग ही गणित का एक मात्र विकल्प नहीं है, राहें और भी हैं। बस ज़रा नजर का चश्मा बदलने की जरूरत है।

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