यहाँ कविता सुनी जाती है

व्यंग्य

Webdunia
जवाहर चौधरी
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कविता सुनना श्रम कानून से बाहर होने के बावजूद एक श्रमसाध्य कार्य है। इसमें कविता लिखने से ज्यादा धैर्य, साहस, एकाग्रता और ज्ञान की आवश्यकता होती है। चाय पिलाकर कविताएँ सुनाने की परंपरा पुरानी है। बाद में कॉफी हाउस खुले तो मसाला डोसा खिलाने का चलन हो गया। लेकिन कविता सुनने वाला एक भला आदमी दिन में कितने मसाला डोसे खा सकता है!

बावजूद इसके, आज भी नए कवियों का आग्रह मसाला डोसा के लिए ही रहता है। अनुभवी कवि इंडियन कॉफी हाउस में कविता सुनाने को प्राथमिकता देते हैं। वहाँ डोसा ऑर्डर करने और उसके टेबल पर आने में एक घंटा लग जाता है और कवि बड़े आराम से पंद्रह कविताएँ सुना लेता है।

धीरे-धीरे कवियों की यह चालाकी उजागर होने लगी। बहुत-से सुनने वालों ने तय किया कि वे एक डोसे में तीन से ज्यादा कविताएँ नहीं सुनेंगे। इसके बाद कवि पाँच डोसे में पंद्रह कविताएँ पेलकर उनका हाजमा बिगाड़ने लगे। जाहिर था, यह सिस्टम भी ज्यादा दिनों नहीं चल पाया। आज मार्केट में चाय, डोसे से लेकर बहुत आगे तक के छोटे-बड़े कविता सुनने वाले प्रोफेशनल्स बाजार में जमे हुए हैं।

इनमें जामवरसिंह का मामला सबसे ऊँचा है। वे 'अच्छी कविताएँ' शाम को किसी क्लब में ही सुनते हैं जिसका खर्च कवि को पाँच सौ से ऊपर बैठता है। बावजूद इसके, बुकिंग आठ दिनों से ऊपर की ही रहती है। जो समर्थ कवि जामवरसिंह को कविता सुना लेते हैं, अन्य कवियों के बीच उनका कद अपने आप ऊँचा हो जाता है। उनका साहित्य संपर्क अच्छा है, प्रसन्न हो जाने पर वे संपादकों को कवियों की अनुशंसा भी कर देते हैं।

बावजूद इसके, नगर में कविता सुनने वाले की बड़ी मारामारी है। कवि हाथ में रुपए और जेब में कविताएँ लिए यहाँ-वहाँ भटकते रहते हैं। रोजगार की संभावना देखकर इधर दो ट्रेनिंग सेंटर भी खुल गए हैं। विश्वविद्यालय ने भी साहित्य पढ़ने वालों के लिए कविता सुनने का 'क्रेश कोर्स' चला रखा है जिसमें जामवरसिंह विजिटिंग फेकल्टी हैं और अक्सर छात्रों को मिसगाइड कर आते हैं। चाहे कोई भी काम हो, शिखर पर बने रहने के लिए आदमी को बहुत कुछ ऐसा करना पड़ता है।

इधर महँगाई के कारण पार्ट टाइम काम करके अतिरिक्त कमाई करने का चलन कुछ ज्यादा हो गया है। प्रायः घरों पर छोटा-सा बोर्ड लगा दिखाई देता है कि 'यहाँ फॉल टाँकी जाती है', 'यहाँ मेहँदी लगाई जाती है', 'यहाँ जन्मपत्री बनाई जाती है'। संभावना देखकर कानसेन ने भी एक बोर्ड लगा दिया, 'यहाँ कविता सुनी जाती है'।

डॉक्टर, वकील, ज्योतिषी और कविता सुनने वालों को जमने में थोड़ा समय लगता है। चूँकि कानसेन पहले से ही चाय-डोसे में सुनते आ रहे थे, उन्हें जमने में उतना समय नहीं लगा। महँगे पेट्रोल, प्रदूषण और दूरियों की समस्या के चलते कानसेन ने फोन पर भी कविता सुनाने की सुविधा देकर बाजार में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की। उन्होंने कवियों के प्रीपेड खाते बना लिए हैं जिसे आवश्यकतानुसार रिचार्ज किया जा सकता है। रविवार और दूसरे छुट्टी के दिनों बड़ी दिक्कत होती है, एक अनार सौ बीमार!

आज भी छुट्टी है, भोर में ही घंटी बजी। पत्नी ने उठकर देखा और आगंतुक को बैठने का कहकर कानसेन को सूचना दी, 'तुम्हारा पेशेंट।

' कौन आ गया इतनी भोर में?'

' मुँह मत बनाओ... सामने वाले प्रोफेसर छट्टा वेतनमान मिलने के बावजूद सुबह पौने चार बजे से ट्यूशन पढ़ाते हैं छुट्टी के दिन भी। जाओ बोहनी-बट्टा करो। भगवान ऐसे कवि और कान सबको न दे।' पत्नी ने नीबू-पानी देते हुए कहा।

देखा, बैठक में वियोगीजी बैठे हैं। बोले, 'सोचा कि भोर में ही चलूँ। फ्रेश मूड में सुन लेंगे तो बड़ा मजा आएगा।'

' हाँ-हाँ, फ्रेश मूड की तो बात ही अलग होती है। कितनी सुनाएँगे?'

' पाँचेक लाया हूँ। ताजी हैं।'

' सुनती हो' वियोगीजी के लिए चाय और पचास रुपए की रसीद बना लाओ तो जरा।' कानसेन ने तरकीब से रेट बताया। 'शोले' के जरिए बसंती ने देश को समझा दिया है कि पहले से बता देना अच्छा होता है, बाद में किटकिट नहीं।

वियोगीजी चौंके, 'पचास!!... जरा एक मिनट... तीन तो बहुत छोटी हैं... दो लंबी वाली ही सुना देता हूँ... ठीक है?'

' जैसी आपकी मर्जी। ...अरे सुनती हो... वियोगीजी के लिए पानी और बीस रुपए की रसीद तो लेते आना।'

पत्नी पानी और रसीद के साथ फोन भी लेकर आई। कहा, 'किसी का फोन है।'

' हाँ... हलो, ...अच्छा पंछी आवाराजी... नमस्कार... आदेश करें...। हाँ-हाँ... क्यों नहीं... जरूर सुनेंगे... आप तो निराला और अज्ञेय की परंपरा के कवि हैं... आपको सुनना तो कविता के इतिहास और ऊँचाइयों को दोहराना है। वो क्या है... अभी वियोगीजी बैठे हैं... दो कविताएँ सुनाएँगे, आप बीस मिनट बाद फोन कर लेंगे प्लीज... ओके-ओके...।' फोन रखकर कानसेन मुखातिब हुए।

' फोन पर सुनने का क्या लेते हैं?' वियोगीजी ने कविता से पहले प्रश्न किया।

' पाँच कविता के पैंतीस रुपए।'

' मुझे पता नहीं था वरना मैं फोन पर ही...'

' देखिए लाइव सुनाने में जो बात होती है वो फोन पर सुनाने में नहीं होती है। यहाँ मैं आपके सामने बैठकर कायदे से सुन रहा हूँ। फोन का ऐसा है कि लेटे हैं, पड़े हैं, खाने के दौरान कहीं भी सुना जा सकता है। इसमें टाइम देना पड़ता है और कवि को भी लाइव रिएक्शन मिलती है...।'

' फिर भी... मुझे इतना फर्क नहीं पड़ता है। कई बार तो मैंने गणपतिजी को कविताएँ सुनाईं और मुझे बराबर लगा कि वो मुस्करा रहे हैं। ...सिर्फ एक अगरबत्ती में।'

' खैर... बोहनी-बट्टे का टाइम है... आप परेशान न हों... बड़ी कविताओं के साथ दो छोटी कविताएँ भी सुना दीजिए।'

चार कविताएँ सस्ते में सुनाकर वियोगीजी प्रसन्न हो ही रहे थे कि फोन की घंटी फिर बजी...

हल्लो... कौन?

' हाँ, हलो... मैं निराला द्वितीय...।

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