राजधानी और राजनीति

Webdunia
- यशवंत कोठारी

वे हमारे कस्बे के सर्वेसर्वा हैं, पीर, बावर्ची, भिश्ती और खर, उनके बिना हमारा काम नहीं चलता और उनका काम बिना राजधानी गए नहीं चलता। अकसर वे राष्ट्र की राजधानी का नाम लेकर प्रादेशिक राजधानी जाते हैं और फिर जाते हैं, कई बार तो ऐसा लगता है कि हर बस, रेलगाड़ी, वायुयान बस एक ही दिशा में जा रही है और वह दिशा राजधानी की दिशा है।

आप पूछेंगे वे दिल्ली या प्रादेशिक राजधानी क्यों जाते हैं, बहुत आसान जवाब है, ताकि भविष्य में भी वे राजधानी जाने योग्य रह सकें। राजधानी जाना और वहाँ से गौरव की मुस्कान के साथ वापस आना अपने आप में एक योग्यता है, एक महत्वाकांक्षा है, एक उपलब्धि है। सच पूछो बिना राजधानी सब सून। राजधानी बताती है कि अगली बार आप आएँ तो क्या लाएँ। राजधानी आने वालों का स्तर और गुणवत्ता तय करती है। हर ऐरा-गैरा नत्थूखैरा राजधानी नहीं जा सकता। एक बार चला भी जाए तो आँखें चौंधियाँ जाती हैं, और हमेशा के लिए अंधा हो जाता है। राजधानी राजधानी है, कोई मामूली चीज नहीं।

राजधानी कस्बों के छुटभैया को रंग सियार बना देती है। राजधानी से आकर ये सियार शेर की आवाज में दहाड़ते हैं, उनका रिमोट कंट्रोल राजधानी से होता है, बटन दबा और सब कुछ खलास राजधानी इन पिचके टायरों में हवा भर कर इन्हें सड़कों पर चलने का अवसर देती है और मौका देखकर पंक्चर कर देती है।

मेरी आपकी सबकी अपनी-अपनी राजधानी है, किसी की राजधानी मंत्री के चपरासी की जेब में है तो किसी की राजधानी मुख्यमंत्री है। अकसर यार दोस्त कह देते हैं- तुम भी चले जाओ राजधानी इतना पढ़ते-लिखते हो कुछ तो फायदा लो।

मगर मैं जानता हूँ अपनी औकात। वहाँ राजधानी में कौन पूछता है गया भी तो क्या पाऊँगा। राजधानी मेरे दिल में बसी है, सोचता हूँ चला जाऊँ। जाऊँ या न जाऊँ की उहापोह में फँसा मैं नहीं जा पाता। आजकल हर कोई जाता है और कुछ आश्वासन लेकर लौटता है।

आजकल हर प्रश्न का उत्तर है राजधानी चलो वहीं से कराएँगे स्थानांतरण, नियुक्ति। वहीं से लेंगे कोटा, परमिट, लाइसेंस आदि। राजधानी से लौटने वाले के पाँव जमीन पर नहीं पड़ते। वह आगे-आगे और पीछे हुजूम चलता है। लंबे इंतजाम के साथ, फूल-मालाओं से लदकर आते हैं वे वापस शहर में। हर किसी को देखकर मुस्कराते रहते हैं और थमा देते हैं आश्वासन। सरकारी मंचों पर काँव-काँव करते हैं। और फिर उड़ जाते हैं राजधानी।

वे फिर किसी के हाथ में हाथ डाले राजधानी चले जाते हैं। इस बार आपका काम पक्का, सीएम से आधा घंटा बात हो गई है। आप निश्चिंत रहें, चिंता न करें मैं फिर जा रहा हूँ, राजधानी।

वे फिर राजधानी में हैं। अफसरों, सचिवों, मंत्रियों आदि के चक्कर लगा रहे हैं। मौका मुनासिब देखकर कुछ झटके लेते हैं। चला रहे हैं। अपना काम। भुना रहे हैं, अपना नाम, राजधानी की राजनीति कर रहे हैं। वे और पूरे शहर को अपनी नाक के नीचे रख रहे हैं वे चलो दिल्ली, चलो राजधानी।

कोई अकड़ा तो राजधानी में जाकर निपट लेते हैं। कोई बहके तो उसे राजधानी सुँघा देते हैं। कोई ईमानदार हो तो उसे राजधानी खिला देते हैं। वे राजधानी को ओढ़ रहे हैं, खरीद रहे हैं और बेच रहे हैं।

जैसी जिसकी औकात, किसी की राजधानी छोटी, किसी की बड़ी। किसी की राजधानी जयपुर तो किसी की दिल्ली। देश का हर फूल राजधानीमुखी हो गया है। साहित्य, पत्रकारिता, संस्कृति, कला संगीत, आदि क्षेत्रों के लोग भी अपनी पतंगों को राजधानी में लाकर उड़ा रहे हैं।

वे राजधानी जाते थे, जा रहे हैं और जाते रहेंगे। वास्तव में राजधानी के लिए, राजधानी वालों के लिए, राजधानी के द्वारा हैं, वे समस्याओं के पहाड़ को तोड़कर राजधानी की नहर गाँव में लाते हैं। अपने बाग-बगीचों, पेड़-पौधों, चेलों-चपाटियों को सींचकर पुनः राजधानी उड़ जाते हैं। वास्तव में राजधानी वह पूँछ है, जिसको पकड़ राजनीति का भवसागर पार किया जा सकता है।


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