'' खुश तो बहुत होंगे आज...! इतने सारे बच्चों ने ठंडी सुबह में नमस्कार किया है आपको।'' दोपहर बाद अलसा रहे सूरज से मैंने पूछा... तो उनकी त्यौरियाँ चढ़ गईं। आजकल ठंड में भी सूरज को ताव आने लगता है, वरना पहले तो कोहरे के डरसे मुँह भी नहीं दिखाते थे।
'' ये अमिताभ का दीवार वाला डायलाग मार कर समझ रहे हो कि मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है। करते तो तुम लोग हो और तानाकशी मुझ पर कर रहे हो! मैंने कब कहा कहा कि यूँ जबर्दस्ती सूर्य-नमस्कार करवाओ। बड़ों से ही नहीं कहा कभी... तो बच्चों को मैं क्यों तलूँगा ऐसी ठंड में। मुझे कई बार घर से निकलने के पहले यही डर सताता है कि न जाने कितने बच्चों की हाय लगने वाली है मुझे। मैं अपना टाइम टेबल जितना बदल सकता हूँ, उतना ही देर से उग सकता हूँ ना। मेरी भी जिम्मेदारी है।
मुझे तो बच्चे-बड़े सभी को देखना पड़ता है। बूढ़े, मुझे बार-बार घड़ी देखकर कोसते हैं कि अरे क्या बात है, छः बजे सूर्योदय होना था, पाँच मिनट बचे हैं मगर आसार ही नजर नहीं आ रहे हैं। उधर बच्चों को जब नींद भरी आँखों के साथ जगाया जाता है तो वे भी कोसते हैं कि इस सूरज को इतनी जल्दी क्या पड़ी रहती है। खुद को तो नींद आती नहीं। देर रात तक होमवर्क भी नहीं करना पड़ता है। खुद तो सरी शाम से सो जाता है और आधी रात को ही बच्चों को सताने निकल पड़ता है। मेरी तो कहीं भी खैर नहीं है।
दोपहर बाद अलसा रहे सूरज से मैंने पूछा... तो उनकी त्यौरियाँ चढ़ गईं। आजकल ठंड में भी सूरज को ताव आने लगता है, वरना पहले तो कोहरे के डरसे मुँह भी नहीं दिखाते थे।
वैसे बूढ़ों के डाँटने का मुझे बुरा नहीं लगता। उम्र है, नींद नहीं आती है। वैसे भी दिनभर सोते ही रहते हैं। मगर सच कहूँ, बच्चों को नींद से जगाने का पाप मुझे हमेशा तकलीफ देता है। स्कूल तो स्कूल, माँ-बाप भी बच्चों को ढोर-डंगर समझते हैं और सुबह-सुबह राजा बाबू बनाकर स्कूल-बस में लाद कर, सो जाते हैं। तुम, मेरा मजाक बना रहे हो... उन माँ-बाप को क्यों नहीं कुछ कहते? उन शिक्षा मंत्री को कुछ क्यों नहीं कहते कि जो बच्चों के स्कूल भी अल-सुबह लगाने देते हैं।
कभी-कभी तो मुझे इतना गुस्सा आता है कि सुबह के इन स्कूलों को भस्म कर दूँ... मगर क्या करूँ। उनमें बच्चे सोए रहते हैं तो ठंडा पड़ जाता हूँ। अब ये सूर्य-नमस्कार! नाम मेरा हो रहा है और इंसान राजनीति खेल रहा है। कहने को इस देश में लोकतंत्र है...
मगर सूर्य-नमस्कार के मामले में तानाशाही ही नजर आ रही है। जिनकी बसें पकड़ ली गईं वे भी सरकार को नहीं, सूर्य-नमस्कार को ही कोस रहे हैं। मुझ पर हर तरफ से इतनी लानतें-सलामतें तो रही हैं और आपको लग रहा है कि मेरा सम्मान हो रहा है, मान बढ़ रहा है? मुझे नहीं चाहिए ऐसा नमस्कार प्लीज...! मेरे चाहने वाले तो मन से मुझे नमस्कार करते हैं और पूजते हैं। सरकार के दम पर अगर यह काम दो-चार साल चला तो मेरी छवि का तो भट्टा ही बैठ जाएगा। नहीं चाहिए ऐसा सरकारी सम्मान मुझे...! बख्श दो मुझे।
'' सूरज की आँखें नम हो रही थीं... गुस्सा तो खूब आ रहा था मगर, शाम का वक्त हो चला था। इसलिए सूरज ने अपना कोट पहना और धीरे-धीरे अस्ताचल की तरफ चल दिया!