सम-विषम अर्थात जलाओ पराली बुझाओ दिवाली

डॉ. आशीष जैन
शनै: शनै: कड़ी-4
विषम परिस्थितियों में ताबड़तोड़ थोपे गए निरर्थक समाधान को ही ‘सम-विषम’ कहा जाता है। दिल्लीवाले आम आदमी इसे ऑड़-ईवन, औड-एवेन या आड़-इबिन के उच्चारण से भी जानते हैं। गत दो संस्करणों की अभूतपूर्व असफलता के पश्चात यह निर्लज्ज तीसरी बार पुन: आने को आतुर है। न्यायालय को दिखलाने और जनता को बहलाने के अलावा इससे कोई और उद्देश्य सिद्ध नहीं होता। यह आम आदमी के ऊपर एक विशिष्ट आम आदमी के द्वारा किया जाने वाला संवैधानिक अत्याचार है। 
 
इस बार दिवाली गत वर्षों की दिवाली से सर्वथा भिन्न थी। माननीय के आदेशानुसार अमावस्या की काली रात को न तो पटाखों की मादक गूंज सुनाई दी और ना ही पटाखों पर धन का अपव्यय हो सका। इसलिए जनता जनार्दन ने मादक द्रव्यों के साथ द्यूत क्रीड़ा में धन का अपव्यय कर दिवाली का शगुन पूर्ण किया। ऐसा करने के पीछे एक नेक कारण और भी था। सोचा था, पटाखों की बलि देंगे तो सम-विषम के दैत्य से दो-दो हाथ नहीं करना पड़ेंगे। पर विधाता को यह स्वीकार नहीं था। और विधाता की इस अस्वीकृति का निष्पादन किया किसानों ने।

परमात्मा द्वारा चुने हुए किसानों ने विधाता की इस इच्छा का ध्यान कर पराली को तीली दिखा दी – बेचारे अभागे सूखे धान के ठूंठ, जलते नहीं तो क्या करते! सो सब धू-धू कर के जला दिए। फिर धुआँ तो उठना ही था, सो उठा और एक असंगठित यूनियन के आंदोलन की तरह – “चलो दिल्ली” के आह्वान पर यहाँ आ कर धरने पर बैठ गया। इसमे भोले किसानों का भला क्या दोष? पर बेचारी दिल्ली! पटाखे गए सो गए, सम-विषम भी आ ही गया।

दिल्ली वालों को इस घटना से उतना ही क्षोभ है जितना उन बुद्धिजीवियों को हुआ था जिनके ‘अवार्ड’ लौटने के बाद मिली सुशासन बाबू की सरकार ने तीन तलाक लिया, फिर अगली सुबह अपने ही पूर्व प्रेमी से हलाला कर लिया। अवार्ड भी गए और सरकार भी। उफ़्फ़!! चौबेजी, छब्बे बनने गए और दुबे बनकर लौटे। 
 
दिल्ली की आयु सीमा घटाने वाली और अस्पतालों में भीड़ बढ़ाने वाली इस पीपीएम 2.5 से सराबोर धुंध का श्रेय मात्र उन चुनिन्दा किसानों का ही नहीं है। स्वयं अपनी दिल्ली के आम आदमी और आम आदमियों की सरकारों ने इस हानिकारक स्थिति को बनाने और बनाए रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
 
मंत्रीजी ने बैठकें कीं, भाषण भी दिए, चाय बिस्कुट के दौर भी चले, ठहाके भी लगे, प्रेस वार्ता भी हुई, आरोप भी लगाए, कीचड़ भी उछला, और तो और माननीय को शपथ पत्र भी प्रस्तुत किया। हाँ, कुछ एक निर्णय भी हुए – सफाई के लिए विदेशी मशीनें खरीदेंगे, पानी छिड़केंगे, सड़क धोएँगे, इत्यादि, इत्यादि, इत्यादि। पर सभी निर्णय चुनावी वादे सिद्ध हुए। यह आवश्यक नहीं के आप झूठे वादे मात्र चुनावी रैलियों में ही करें, यह कार्य आप आधिकारिक बैठकों मे भी निपुणता से कर सकते हैं। 
 
पराली, शासन और प्रशासन के ताल-वाद्य वृंद के सुर में सुर मिलाकर आलाप लिया दिल्लीवासियों ने। इनका हृदय से आभार। डीज़ल जेनसेट चलाए, गाड़ी दौड़ाई, कूड़ा जलाया, इमारतें बनाईं और धूल उड़ाई और न जाने क्या-क्या किया दिवाली बुझाने के लिए। 
 
ऐसा प्रतीत होता है की एक छोटा और मोटा सर्वनाशी किम-जोंग-उन तो हम सभी के भीतर स्थापित है। अंतर मात्र इतना, कि वो परमाणु हथियार दुश्मनों के लिए तैयार करता है और हम हैं कि स्वयं अपना ही विस्फोट करने पर आतुर हैं। हर दिवाली दिवाली यह यक्ष प्रश्न अपना आकार दुगना कर हमारे सामने खड़ा होता है – या तो स्वयं को बचा लो या अपने त्योहार को। अब तो कदाचित संभालने का मौका भी जाता रहा। और इस द्यूत क्रीड़ा में जिस पर भी दांव लगाओगे वही उल्टा पड़ेगा। 
 
और ये रहा मेरा नहले पर दहला....
 
॥ इति॥ 
(लेखक मेक्स सुपर स्पेश‍लिटी हॉस्पिटल, साकेत, नई दिल्ली में श्वास रोग विभाग में वरिष्ठ विशेषज्ञ हैं) 
 
अगले सप्ताह पढ़िए – चौराहों पर लगीं ये औचित्यहीन लाल बत्तियां 

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