व्यंग्य रचना : बदलते देश की तारीफ में कुछ कसीदे

Webdunia
पंकज प्रसून 
देश बदल रहा है। महंगाई तो विलुप्त होने के कगार पर है। सरकार नहीं चाहती, आने वाली पीढ़ी महंगाई देखने म्यूजियम जाए, इसलिए इसके संरक्षण और संवर्धन के लिए मजबूरीवश दाम बढ़ाने पड़ रहे हैं। वरना महंगाई की हालत भी कहीं चील और गिद्ध वाली न हो जाए।
 
देखो न रुपया कितना ऊपर उठ गया है। गरीबों को नजर नहीं आ रहा। हमें रूपये पर गर्व भी हो रहा है, क्योंकि हमारे देश का रुपया विदेशी बैंकों का सरताज बन गया है। कुछ देशों की अर्थव्यवस्था इसी धन के वजह से चल रही है। हम ठहरे वसुधैव कुटुम्बकम की सोच वाले। अगर स्विट्जरलैंड हमारी वजह से तरक्की कर रहा है, तो हमारा सीना और भी चौड़ा हो जाना चाहिए की नहीं?
 
देश की जीडीपी भी आसमान छू रही है। देश में जो भी 70-80 करोड़ गरीब बचे हैं, वह मात्र जीडीपी न देख पाने की वजह से बचे हैं। लोन, तेल लकड़ी में उलझी रहने वाली आम जनता को जीडीपी दिखाई जाएगी, फिर सब लाइन पर आ जाएगा।
 
शिक्षा मंत्री को बदल कर साबित कर दिया गया है कि शिक्षा व्यवस्था बदल रही है। शिक्षा का स्तर बढ़ रहा है। शिक्षितों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही है, बढ़ती बेरोजगारी इस बात का प्रमाण है। जब एक क्लर्क की पोस्ट के लिए हजार पीएचडी कैंडीडेट लाइन लगाकर खड़े होते हैं तो वहीं स्टैंड अप इंडिया हो जाता है।
 
पहले हम बेरोजगारी के मामले में हम आत्म निर्भर थे। अब हम अमेरिका को आयात कर रहे हैं। प्रतिभाएं आयातित हो रही हैं। विपक्षी इसको पलायन का नाम दे रहे हैं। पलायन तो सिर्फ हिंदुओं का हो रहा है। कुछ दशक पहले जब भारतीय प्रधानमंत्री विदेश जाते थे, तो प्रेक्षागृह ही भर पाता था। अब तो पूरा स्टेडियम भी कम पड़ जाता है। यह गौरव हमारी प्रतिभाओं ने दिलाया है। अगर उनको भारत में ही नौकरी मिल जाती तो पराए देश में तालियों की गूंज और नारे कहां नसीब होते? यह अभूतपूर्व उपलब्धि न तो अमेरिका को मिल पाई है और न ही ब्रिटेन को। अरे काहे के विकसित, वहां की प्रतिभाएं,वहीं तक सीमित रह जाती हैं।
 
हम पुरातन संस्कृति और सरोकारों की ओर लौट रहे हैं। मन की बात से रेडियो की दशा सुधरी है। ऑल इंडि‍या रेडियो पुनर्स्थापित हो रहा है। बदलाव यह आया है कि अब रेडियो पर बोलने वाला दिखाई भी पड़ने लगा है। युवा की आस्था प्रियंका चोपड़ा से होते हुए पतंजलि तक पहुंची है। पतंजलि स्टोर गांव-गांव में खुल रहे हैं। जहां काला धन च्यवनप्राश के रूप में बिक रहा है। योग(जोड़)का राजनीति पर सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। पूंजी पतियों को जोड़ते-जोड़ते अब नेता हाथ भी शास्त्रीय अंदाज में जोड़ने लगे हैं।
 
आतंकवाद तो दुसरे देशों में शिफ्ट हो चुका है। यहां जो भी आतंक के अवशेष बचे हैं, वो देशभक्ति को बचाने के लिए जरूरी हैं। पिछली सरकार में वीर रस के कवियों पर संकट आ गया था। अब उनके पास कविता लिखने के लिए अनेकों विषय हैं। सिंहनाद और तालि‍यां बटोरने के असीमित अवसर हैं। 
 
यह देश इस कदर बदला है कि गांधी के सिद्धांतों पर चलने लगा है। न तो दिल्ली  सरकार केंद्र का सहयोग करती है न केंद्र सरकार दिल्ली का। न तो एलजी मुख्यमंत्री को सहयोग करते हैं न मुख्यमंत्री का। केंद्र और राज्य सरकारों, पक्ष-विपक्ष के बीच असहयोग को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि 1920 के बाद सबसे बड़ा असहयोग आंदोलन इस समय हो रहा है। गांधी जी ने कहा था की कोई एक गाल पर तमाचा मारे तो दूसरा गाल उसकी ओर हाजिर कर देना चाहिए। आज सीमा के एक छोर पर पाकिस्तान सीज फायर उल्लंघन करता है, तो भारत दूसरा छोर उसके हवाले कर देता है। फर्क इतना है की गांधी का सत्याग्रह अब सत्तागृह में बदल चुका है।
 
बदलते देश की तस्वीरें लगातार विज्ञापन देकर छपवाईं जा रही हैं। कमबख्त आलोचक  हंसते हुए किसान की तस्बीर देखकर भी नहीं समझ रहे कि देश बदल रहा है। किसान की भूमि पथरीली होती जा रही है तो ये खुशी की बात है। पत्थर में तो भगवान् होता है न। खुशहाली का आलम यह है कि अन्नदाता अब दुखी मन के बजाए खुशी मन से आत्महत्या करता है।
 
देश बदल रहा है और विपक्ष आरोप लगाता है कि सरकार दो साल से देश को डुबो रही है। फिर सरकार के प्रवक्ता को मजबूरन यह कहना पड़ता है कि आप ने तो 65 साल तक डुबोया है। अर्थात अभी इस सरकार को 63 साल और मौका देना चाहिए, फिर कहीं जाकर विपक्ष सवाल पूछने योग्य होगा। वैसे भी हमारे प्रधानमंत्री जी जब जहाज में बैठ कर दूसरे देश पहुंचते हैं तो देश बदल ही तो जाता है।
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