सातवें-आठवें माले से सब एक से नजर आते हैं। अपने पल्ले ही नहीं पड़ता है कि आदमी-आदमी में अंतर क्या है। जब तक कूके नहीं, हर कोयल भी कौए-सी है। इंसान के बीच तो और कठिन है। वही दो हाथ, दो पैर, दो कान, एक नाक। लोग वर्दी वालों पर बेकार इल्जाम लगाते हैं। उन्होंने बेकसूर बिहारी को हत्यारे मुरारी की जगह धर भी लिया तो क्या जुल्म हो गया। उन बेचारों का क्या दोष है? सब ही तो एक से हैं। किस के चेहरे पर लिखा है कि वह शरीफ है, यह बदमाश?
पुलिस का यकीन तो अपने प्रत्यक्षदर्शी गवाहों पर है जिन्होंने पूनम की रात में, सेल फोन की रोशनी से कातिल को भाँप लिया। कौन अपना गुनाह स्वेच्छा से कुबूल करता है? थोड़ी-बहुत जोर जबर्दस्ती लालच-प्रलोभन तो जरूरी है जुबान खुलवाने को।
बिहारी ने तो लिख कर दिया है कि भैया ! आप कहते हो तो हत्या हमने ही की है। बस, जरा हमें बर्फ की सिल्ली से हटा लो। उसके इकबालिया बयान के बाद पुलिस विवश। करे तो क्या करे, आरोप-पत्र फाइल करने के अलावा! पुलिस के पास इतनी फुर्सत कहाँ है कि वह किसी को पास से जाँचे-परखे? सुबह से शाम तक गरीब खाने-कमाने के कर्तव्य में ऐसे जुटे हैं कि बीवी-बच्चों तक को पहचानने में दिक्कत होती है उन्हें!
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यही क्या कम है कि उन्होंने किसी को पकड़ा। यह दीगर है कि वसूली असली से कर ली। उसे माफ कर दिया। इतनी ताबड़तोड़ मेहनत के बाद उन्हें पेट भी तो पालना है। ऊपर से आका को हिस्सा भी पहुँचाना है। अगर उन्हें शिकायत है तो क्यों न हो? हिंदुस्तानियों की गंदी आदत है। कभी पेट बजाते हैं, कभी गाल। चुप बैठना तो जानते ही नहीं हैं।
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यह ऐसों की ही करतूत है कि हिंदुस्तान, एक हल्ला प्रधान देश है। यह कोई कम उपलब्धि है क्या कि अपराधियों से साँठ-गाँठ के बावजूद पुलिस कानून व्यवस्था कायम रखने में जी-जान से जुटी है। उसने क्या-क्या त्याग नहीं किया है। उसके दिल की जगह पत्थर है। उसके कान सब सुनते हैं, जनता की चीख-चिल्लाहट के अलावा। अब सिर्फ उसके हाथ और जुबान चलते हैं। हाथ बड़े की सलामी और छोटे की पिटाई के लिए। जुबान ऊपर वाले की खुशामद और नीचे वाले की माँ-बहन से रिश्ता जोड़ने को।
कहने को सब भारतीय नागरिक हैं। कुर्सी-अधिकार वाले बड़े और दूसरे उनसे कमतर हैं। शक्ल सूरत का जुदा होना तो, खैर चलता है। कोई साँवला है, कोई काला। किसी की आँख भैंगी है, किसी की सीधी। किसी की नाक पकौड़ी-सी है किसी की लंबी। यह ऊपरवाले के बनाए फर्क हैं। इसके अलावा मानवजनित अंतर है। कुछ अगड़े हैं, कुछ पिछड़े। कुछ डिग्री पाकर बेकार हैं, कुछ निरक्षर मालदार। कुछ पुलिसिया हैं, कुछ आदमी।
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सच यह है कि सफलता के सब सगे हैं। टी-ट्वेंटी में क्या हारे, छिद्रान्वेषी अब क्रिकेट टीम के पीछे पड़े हैं। भाजपा सिद्धांत-प्रिय है। यह उसकी पराजय से जग जाहिर हो रहा है। दूसरे फेंकें तो फेंकें, अब तो अपने ही पत्थर फेंक रहे हैं। दिग्गज दल बचाए कि अपना सिर।
इंसान असफल हुआ नहीं कि टके सेर भाजी, टके सेर खाजा हो जाता है। जानवरों से आदमी इसीलिए बेहतर है। कामयाबी की कसौटी पर फर्क सिर्फ इंसान ही करता है।