गुरुजी, बाटी और उड़नदस्ता

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जगदीश ज्वलं त
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सर्वशिक्षा अभियान के अंतर्गत निर्मित एक विशाल अतिरिक्त कक्ष में वे लगभग 100 से अधिक बच्चों के बीच कुर्सी पर दोनों पैर सिकोड़े हुए इस प्रकार बैठे थे मानो कोई विश्व रिकॉर्ड बनाने की तैयारी में हों। छात्रों के आपसी विवाद एवं संघर्ष की स्थिति से उन्हें बचाकर शांति स्थापना के सतत प्रयास में वे घंटों से जूझ रहे थे।

कहने को शाला में दो पद हैं। दूसरी शिक्षिका हैं। वे सत्र प्रारंभ होते ही प्रसूति-अवकाश पर चली गई हैं। चाहती तो एक माह बाद भी जा सकती थीं किंतु 'जुलाई' से हर शिक्षक बचना चाहता है। डर था उनके प्रसूति-अवकाश के पहले कहीं गुरुजी मेडिकल-अवकाश पर नहीं चले जाएँ। भालू के पंजे किसी को तो पकड़ने हैं। सो, इन्होंने ही पकड़ लिए।

' चल पहाड़े बोल...।' उन्होंने किससे कहा, पता नहीं चला। पच्चीसों हाथ खड़े हो गए, 'मैं बोलूँ... मैं बोलूँ...।' ' चुप्प, कोई नहीं बोलेगा।' उन्होंने घड़ी देखी। लंच-टाइम हो रहा था। उन्होंने निर्देश दिए- सभी एक साथ भोजन-मंत्र बोलेंगे। 'अन्न ग्रहण करने से पहले...' इतने में द्वार पर रसोई बनाने वाली रोडीबाई ने घूँघट निकाले इशारे से गुरुजी को बाहर बुलाया। वे बाहर आए। घूँघट ऊँचा कर वह बोली, 'गैस टंकी खतम हो गई तो बाटी बना दी। दाल के भाव जादा थे तो बेसन की कड़ी बना दी। ठीक है नी?' गुरुजी ने निःश्वास छोड़ते हुए कहा- 'सब ठीक है।'

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सभी बच्चे घास के खुले मैदान में पंक्तिबद्ध बैठ गए। वाह, बाटी! पाँचवीं कक्षा का गणेश चिल्लाया। तालियाँ बजने लगीं। मजे आ गए। कड़ी की बाल्टी थामे कालू पटेल का पूरा चिल्लाया, 'छाछ की कड़ी भी रांदी है रे...।' डबल मजे आ गए।

अन्नक्षेत्र के मध्य खड़े गुरुजी दोनों हाथ कमर पर रखे दानवीर कर्ण-से लग रहे थे। 'खाओ प्यारे, खूब खाओ। आनंद करो।' उन्होंने सभी को अखंड आशीर्वाद दिया। उन्हें लगा शाला-भवन अध्ययनशाला नहीं, भोजन का प्रतीक्षालय है।

शैक्षणिक टीएलएम से अधिक सब्जी का तड़का उन्हें खींच रहा है। जितना रस भोजन की थाली में है, उतना पुस्तकों की थैली में नहीं। सभी एकचित्त, तन्मयता से चटखारे ले-ले सूँ-साँ कर रहे थे। दुर्भाग्य! निरीक्षण दल तभी आ धमका। गुरुजी एक अपराध-बोध लिए दोनों हाथ जोड़े आर्तभाव से जीप के पास जा खड़े हुए।

एक अधिकारी ने पीछे खड़े दो-तीन अधिकारियों के प्रश्न पूछने से पहले ही प्रश्न पूछ लिया- 'आज का मीनू क्या है?'

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जी, आज शनिवार खीर-पूरी-सब्जी...।' 'तो ये क्या है' पीछे खड़े अधिकारी ने ऐसी भाव-भंगिमा बनाई कि गुरुजी की सिट्टी-पिट्टी गुम। 'जी, वो समूह, रोडीबाई, गैस...।' ' हम किसी को नहीं जानते। प्रभारी आप हैं।' गुरुजी पसीने से नहा गए।

वे सोच रहे थे कि अधिकारी उनकी समस्याएँ जानेंगे। बच्चों की उत्तर-पुस्तिकाएँ देखेंगे। लिखना-पढ़ना, जोड़-घटाव, गुणा-भाग देखेंगे। अभिलेखों को व्यवस्थित पाकर प्रसन्न होंगे। लेकिन रोडीबाई ने सारे किए-कराए पर पानी फेर दिया। गुरुजी को लेकर ड्राइवर एक ओर जाने लगा, तभी काना रोता हुआ आया और बोला,'मास्साब म्हारे एक बाटी दी ने गणपत्यो आखी तीन खई ग्यो...।

' चुप्प!' कहकर वे ड्राइवर के साथ चल दिए। ड्राइवर ने लगभग डाँटते हुए कहा, 'कब से चल रहा है ऐसा?' ' ऐसा मतलब कैसा?' गुरुजी ने प्रतिप्रश्न किया। 'अच्छा, अब ये भी हम बताएँ। अरे, इतने दिन की दाल बची, दूध बचा, शकर बची कहाँ हैं? जमा करवाओ।'

गुरुजी देर से समझते हैं। तकनीकी भाषा है। उड़नदस्ता वसूली अभियान पर है। उन्होंने झट अध्यक्ष को राशि सहित बुलवा भेजा। ड्राइवर का इशारा पाते ही निरीक्षण दल ने राहत की साँस ली। समझदार हैं।

बड़े अधिकारी ने कागज में से कार्बन निकालते हुए कहा- 'ऐसी परिस्थितियाँ बन जाती हैं। मेरे ही घर की गैस आज खत्म हो गई। होटल में खाना खाया।' दूसरे ने ठहाका लगाते हुए कहा- 'आपने तो खा लिया, लेकिन मैं खाने ही वाला था कि आपका फोन आ गया, सो मैं खा नहीं पाया।' तीसरा बोला- "ठीक है, चलो यहीं बाटी और कड़ी चख लेते हैं।"

सभी खाने बैठ गए। अध्यक्ष भी आ गए। सभी खा रहे थे। हर तरह से खा रहे थे। अच्छी टीप लिखकर प्रसन्न टीम लौट गई। क्षतिपूर्ति के रूप में अगले दो दिन किचन में ताले लगे रहे। आदर्श शिक्षक की परिभाषा अब गुरुजी जान सके हैं।

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