मैं बेहिचक स्वीकार करता हूँ कि मैं चिटचोर हूँ। आप चाहें तो मुझे नकलची भी कह सकते हैं। वास्तविकता को छुपाना या नकारना मेरी आदतों में शुमार नहीं है। इसमें लज्जा या ग्लानि जैसी कोई बात भी नहीं है कि हम डूब मरने के लिए चुल्लू भर पानी ढूँढते रहें। इस छोटी-सी उम्र में ऐसी छोटी-मोटी चोरियाँ, चोरी नहीं कहलातीं। हमने चिटचोरी की है, बोफोर्स या चारा या यूरिया... आदि न खाया न चुराया।
दरअसल इस उपाधि को धारण करने का भी कारण है। अकल नाम की चिड़िया ने भूलकर भी हमारी खोपड़ी में घोंसला बनाना तो दूर की बात, कभी इस ओर पंख भी नहीं फड़फड़ाए। इस चिड़िया को फँसाने की, रिझाने की हमारी सभी कोशिशें नाकाम साबित हुईं। पिश्ता-बादाम का हलुवा खाया, सुबह उठकर ठंडे पानी से लगातार चार दिन नहाया पर ढाक के तीन पात से चौथा नहीं हुआ। मजबूरन अपने आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ काक-दृष्टि से साथियों की कॉपी में जो लिखा दिखता उसे अक्षरशः अपनी कॉपी में उतार लेते। न प्रश्न क्रमांक की चिन्ता न सही-गलत की जाँच। अब यह बहुत पुरानी बात हो गई। इस बीच कई कुर्सियाँ-उलट-पलट हो गईं। कितने ही जंगल व जंगली जानवर जल की तरह भाप बनकर केवल जुबान पर रह गए।
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विगत तीन वर्षों की असफलता को भुलाकर अंतिम अवसर वाली इस बोर्ड परीक्षा में शामिल हुए थे। ताक-झाँक से पड़ोसियों के घर की खबर भले मिल जाए परीक्षा में सफलता नहीं मिल सकती। पहले दिन पुराने ढर्रे पर चलते हुए हमने हथेली व सफेद शर्ट पर रामायण लिख ली, पर वाह री किस्मत, हाय रे दुर्भाग्य प्रश्न-पत्र बनाने वालों ने महाभारत पूछ ली। जीवन में फिर एक बार गैस पेपर्स व आई.एम.पी. बताने वाले शिक्षकों दोनों पर से, लुटे-पिटे मतदाता के समान, विश्वास उठ गया।
परीक्षा कक्ष में वे तीन घंटे हमने कैसे बिताए, हम ही समझ सकते हैं अथवा हमारा 'हम-पेशा' साथी। मेरे चारों तरफ सभी की कलम चल रही थी, केवल हमारी आत्मा मचल रही थी। अपने तथाकथित ज्ञान का परिचय देना आवश्यक था। अतः प्रश्न-पत्र की ही सत्य प्रतिलिपि पूर्ण विराम सहित उत्तरपुस्तिका पर उतार दी और संतोष की एक लंबी साँस लेकर बाहर आ गए। बिल्कुल उसी विजयी मुद्रा में जिस मुद्रा में कोई आत्मसंतुष्ट सांसद चिल्ल-पौं मचाकर या कुर्सियाँ-माइक आदि पटककर बाहर आता है और अपनी अशिष्टता को टी.वी. के प्रवक्ता को शिष्टतापूर्वक बयान कर जाता है।
घर आकर अगले पेपर की तैयारी शुरू कर दी। यहाँ-वहाँ से लाई गई चुराई गई पुस्तकों की धूल झाड़कर, खास-खास पृष्ठों को फाड़कर शर्ट की कॉलर व पेन्ट की तुरपाई में छिपा लिया और घोड़े बेचकर सो गए। परीक्षा कक्ष की औपचारिक चैकिंग में हम बच गए। उचित समय पर हमने नकल अभियान प्रारंभ कर दिया किन्तु भाग्य का खेल देखिए- कुछ ही लाइन लिख पाए थे कि पर दोषायः सहस्त्र नयनेः पर्यवेक्षकजी ने हमारी चोरी पकड़ ली। उन्होंने अपनी दयालुता दर्शाते हुए हमसे हमारी चिट छीन ली, चेतावनी देने का कर्तव्य पूर्ण कर उदासीन भाव से आगे बढ़ गए। उनकी सदाशयता का लाभ उठाकर हमने दूसरी चिट का भरपूर लाभ उठा लिया।
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अपनी सफलता पर हम मुस्कराना ही चाहते थे कि अपनी गलती का हमें एहसास हो गया। पूछे गए प्रश्न व लिखे गए उत्तर में खेत-खलिहान का संबंध भी न था। अब हमें केवल तीसरी चिट का भरोसा था। उसे निकालकर हम प्रश्न पत्र के बीच सुरक्षित रखना ही चाह रहे थे कि पुनः पर्यवेक्षकजी की खोजी नजरों का शिकार बन गए। अबकी बार उन्होंने चिट तो हमारे हाथ में थमा दी किन्तु उत्तरपुस्तिका छीनकर हमें परीक्षा भवन से बाहर का रास्ता बता दिया।
हम बुझे मन व थके कदमों से घर आ गए। बहुत दुःख हुआ वह चोर ही क्या जो चोरी करते रंगे हाथों पकड़ा जाए। वह दूधवाला ही क्या जो पानी मिलाते पकड़ा जाए। ऐसा तो नाबालिग-नौसिखिए के साथ भी कभी-कभी होता है, हम तो इस खेल के मँजे हुए खिलाड़ी माने जाते हैं कैसे रन आउट हो गए पता ही न चला।
मातम मानने का न तो सवाल ही था न समय, अतः अगले पेपर की तैयारी शुरू कर दी। नकल करने का नया तरीका ईजाद करना था। एक पैकेट सिगरेट एवं तीन कप चार की चुस्कियाँ लेने पर चमत्कारिक रूप से एक उपाय खल-खोपड़ी में कौंध गया। बाजार से तीन नए पेन खरीदे, उनकी निब निकालकर कूड़ेदानी में फेंक दी तथा स्याही भरने की जगह जितनी चिट समा सकती थीं उतनी भर दीं।
अगले दिन पाँच पेन का काफिला लेकर हम परीक्षा कक्ष में पहुँच गए। प्रश्न-पत्र देखकर हमने अनुमान लगा लिया कि पेन की अंतर-आत्माओं में छिपा ज्ञान लगभग पूर्णता को प्राप्त कर रहा था। पर्यवेक्षक महोदय की सजगता से हमारा साहस साथ छोड़ता सा जा रहा था। जैसे-तैसे साहस बटोरकर अपने भूले-बिसरे इष्ट देवी-देवताओं का स्मरण कर नकल का महान अभियान प्रारंभ कर दिया।
हमारा नकल अभियान निर्विघ्न व सुचारु रूप से चल रहा था किन्तु किस्मत को हमसे रूठना ही था सो रूठ गई। पर्यवेक्षकजी को कुछ कागजों पर हस्ताक्षर करने की आवश्यकता आन पड़ी।
खुद की कलम रखना उनकी मर्यादा के खिलाफ था और किसी की पेन लेकर वापिस न करना उनका स्वभाव। उनकी लोलुपी दृष्टि हमारे जेब की शोभा बढ़ा रहे नवीन पेन पर टिक गई। जब तक हम सोचते-समझते निब रहित नई कलम उनके हाथों में पहुँच चुकी थी। नई कलम पाकर वे गदगद् हुए जा रहे थे और हम पसीने-पसीने। पेन का ढक्कन खुलते ही हमारी काली करतूतें किसी भुतहा महल में वास कर रहीं चमगादड़ों की भाँति पंख फड़फड़ाने लगीं। निब रहित नई कलम देखकर शंकालु पर्यवेक्षकजी को दाल में काला नजर आने लगा। पेन छिड़ककर स्याही की जाँच करनी चाही, स्याही थी ही नहीं निकलती कहाँ से? उनका संदेह विश्वास में बदल गया। अगले ही पल हमारी सारी चिट टेबिल पर पड़ी-पड़ी हमको ही चिढ़ा रही थीं। निरीक्षक महोदय अपनी इस अप्रत्याशित सफलता से प्रसन्नचित्त थे।
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उन्होंने बाकी पेन की सारी चिट भी निकालकर हमारी टेबल पर रख दीं और पेन अपनी जेब में सुरक्षित रख लिए। उनकी ऊँची आवाज सुनकर केन्द्राध्यक्ष महोदय भी कक्ष में आ गए। हम मुँह दिखाने के लायक तो नहीं रह गए थे, फिर भी क्षमा प्राप्ति की आशा में याचक दृष्टि से कभी-कभी उनका मुँह ताक लेते थे। अपने साथियों की नजरों में भी हम गिर चुके थे। एक मछली ने सारे तालाब को गंदा कर दिया था। तलाशी अभियान की आशंका से अनेक चेहरे बदरंग हो रहे थे। केन्द्राध्यक्ष महोदय ने हमारी पिछले तीन वर्षों की रिकार्ड तोड़ असफलता से इस वर्ष का पूर्वानुमान लगाकर हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया। उनका यह व्यवहार हमारी आत्मा को कचोट गया। नौ सौ चूहे हजम कर बिल्ली खाला हज की तैयारी करने लगी, अपने किए की सजा हम स्वयं को देने पर उतारू हो गए।
शेष सारे पर्चे हमने बिना नकल के, बिना अकल के पूरे किए हैं। जानते हैं इसका प्रतिफल अच्छा नहीं मिलेगा, परीक्षाफल पूर्व वर्षों की तरह खट्टा या कड़वा ही रहेगा। उत्तीर्ण होने की आशा तो दूर की बात पूरक आने की संभावना भी नहीं है। बस उम्मीद है तो एक ही कि सरकार द्वारा हम जैसे लोगों के वोट पाने के लिए अगली कक्षा में प्रमोशन दे दिया जाए तो कदाचित हमारा भी उद्धार हो जाए। पर बिल्ली के भाग्य से छींका टूटे तब न....!