साहित्य में पशुओं का योगदान

Webdunia
- यशवंत कोठार ी
सुबह-सुबह अखबार खोला तो समाचार यह था कि पशुप्रेमी अमेरिकी व्यंग्यकार एडम ने अपना नया विवाह तिरसठ वर्ष की आयु में न्यूयॉर्क के कब्रिस्तान में रचाया, उनकी पत्नी मेलिम मेरयूल मिरल भी पशुप्रेमी है, शायद पशुओं का साहित्यकारों को प्रभावित करने का इससे शानदार उदाहरण नहीं मिलेगा।

सबसे रोचक बात यह है कि श्मशान में जो दावत दी गई उसमें चार कुत्ते भी निमंत्रित थे और उनके भोजन हेतु टेबल अलग थी। हमारी भारतीय संस्कृति में भैरव वाहन को श्मशान में जो गौरव प्राप्त है उसे अब अमेरिकी व्यंग्यकार ने भी स्वीकार कर लिया। विकसित देश का अविकसित व्यंग्यकार बेचारा। इस समाचार के अध्ययन के बाद से ही मैं साहित्य में पशुओं के योगदान पर चिंतन कर रहा हूँ। चिंतन एक राष्ट्रीय बीमारी है। जो कुछ नहीं कर सकता है, वह चिंतन करता है।
सुबह-सुबह अखबार खोला तो समाचार यह था कि पशुप्रेमी अमेरिकी व्यंग्यकार एडम ने अपना नया विवाह तिरसठ वर्ष की आयु में न्यूयॉर्क के कब्रिस्तान में रचाया, उनकी पत्नी मेलिम मेरयूल मिरल भी पशुप्रेमी है


वेदों, उपनिषदों और अन्य प्राचीन ग्रंथों में पशुओं पर विस्तृत जानकारी उपलब्ध है। भगवान विष्‍णु ने कई बार पशुओं की योनि में जन्म लेकर संसार में व्याप्त पापों का निवारण किया था। संस्कृत साहित्य में भी पशुप्रेमी विशद रूप में वर्णित हैं। एक जगह लिखा है कि जो व्यक्ति साहित्य, कला और संगीत से प्रेम नहीं करता वह वास्तव में सींग व पूँछविहीन पशु ही है। मेरी समझ में आज तक यह नहीं आया कि पशु होने के लिए सींग और पूँछ की अनिवार्यता क्यों है। गधे के सींग नहीं होते और नेताओं के पूँछ, फिर भी उनका साहित्य में योगदान स्पष्ट है। रामायण का तो आधार ही वानर सेना है और राम ने इस‍ी से अपनी खोई पत्नी प्राप्त की। मुझे ऐसे ही वानर की तलाश है।

साहित्य को थोड़ा आगे ले जाता हूँ तो सूर, तुलसी तक ने पशुओं पर अपनी कलमें तोड़ी हैं तुलसीदास तो यहाँ तक कहते हैं--------
ढोर, गँवार शूद्र पशु, नारी।
ये सब ताड़ना के अधिकारी ।।

आप स्वयं विचार कीजिए कि साहित्य में यह सम्मान पशुओं और नारियों को ही दिया गया है। आखिर स्थिति वैसी ही है जैसी कि आधुनिक काल में दरिंदे और बकरी की है, एक लेखक ने रीछ पर लिखा जो बिलकुल काला था। दूसरे क्यों पीछे रहते, किसी ने बारहसिंघे, किसी ने भेडि़या और किसी ने भैंस पर कहानी लिख डाली। भैंस की चर्चा के दौरान ही बता दूँ कि भैंस के आगे बीन बजाना वैसा ही है जैसे आलोचक के आगे घास डालना। वैसे पशुओं को लेकर मुझे कुछ कहावतें और याद आ रही हैं, जैसे घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या।

अरे भाई खाने का इतना ही शौक है तो साहित्य में क्यों घुसपैठ कर रहे हो। पेट में अगर चूहे बहुत हैं तो पानी में रहकर मगर से बैर मत करो, मगर कौन सुनता है। साहित्य में पशुओं की कोई नहीं सुनता। किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगती। किसी के कान पर जूँ रेंगने पर याद आया- लोमडि़यों और सियारों ने साहित्य का बड़ा अहित किया है। कुछ ने अपने पर कहानियाँ लिखवा ली और रंगे सियार शेर बनकर साहित्य के जंगल पर राज करने लग गए। गीदड़ भभकियों का असर साहित्य पर भी होने लगा है। कुछ गीदड़ों ने व्यंग्यकारों पर हमले भी किए, लेकिन शेर है कि दहाड़ता ही जा रहा है।
कृष्णचन्दर की 'एक गधे की आत्मकथा' फिर पढ़ें और साहित्य में पशुओं के इस महान योगदान पर एक परिचर्चा संवाद, गोष्ठी, से‍मिनार, कॉन्फ्रेंस या कन्वेंशन का आयोजन करें जिसके अध्यक्ष पद पर खाकसार को बैठाना न भूलें


वैसे एक राज की बात बताऊँ आपको कि हाथी के पीछे कुत्ते भौंकते ही रहते हैं। उपरोक्त ‍वर्णित सभी जानवरों के मुकाबले साहित्य में जो अक्षय योगदान गधे का रहा है वैसा ‍चिरस्थायी योगदान अन्य पशु का नहीं रहा। मैं आपसे विनम्र किंतु दृढ़ स्वर में अनुरोध करूँगा कि आप कृष्णचन्दर रचित ' एक गधे की आत्मकथा' का गंभीर रूप से पारायण करें और जब बोर हो जाएँ तो साहित्य में एक गधे की वापसी का इंतजार भी कर सकते हैं। पशुओं में गधे के बाद सबसे ज्यादा योगदान चूहों का ही है, कोई अनाज खा जाता है तो कोई फाइलें। कुछ चूहों के पेट इतने बड़े हैं कि वे चीनी, गेहूँ और केरो‍सीन के गोदाम भ‍ी ‍पेट में रखकर आराम से घूमते रहते हैं।

पंचतंत्र का साहित्य तो टिका ही है पशुओं के चारों पाँव पर। चतुष्पादीय आधार मिलना बड़ा मुश्किल है। प्रजातंत्र के भी चतुष्पाद हैं और अक्सर दो पाद बीमार रहते हैं या उनके पाँवों पर प्लास्टर चढ़ा रहता है। सरकारी जीपों पर सवार इल्लियाँ पूरे देश को खा रही हैं और हम हैं कि चुपचाप देख रहे हैं। साहित्य में पशुओं के इस योगदान के क्रम में साँप पर भी दो शब्द चाहूँगा अज्ञेय की कविता साँप तुम सभ्य तो नहीं हुए... के बाद एक देहधर्मी उपन्यास लेखिका ने चित्तकोबरा के रंग दिखाए, कुल मिलाकर स्थिति यह हुई कि अगर पशु नहीं तो हमारे साहित्य का क्या हो, साहित्यकारों का क्या हो, देहधर्मिता का क्या हो।

लोकगीतों में भी पशुओं का उल्लेख है। आधुनिक भारतीय राजनीति में तो गोवंश की रक्षा के नाम पर कई व्यक्तियों ने अपनी मिलें बना लीं।

हो सकता है हुजूर की तबियत मुझे गधा कहने की हो रही हो, अगर ऐसा है तो मैं आपके द्वारा प्रदत्त उपाधि विनम्रता से स्वीकार करता हूँ। आपसे सिफारिश करता हूँ कि आप कृष्णचन्दर की ' एक गधे की आत्मकथा' फिर पढ़ें और साहित्य में पशुओं के इस महान योगदान पर एक परिचर्चा संवाद, गोष्ठी, से‍मिनार, कॉन्फ्रेंस या कन्वेंशन का आयोजन करें जिसके अध्यक्ष पद पर खाकसार को बैठाना न भूलें ताकि आप फलें और फूलें। आमीन।
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