' बिन सहकार नहीं उद्धार' यह वाक्य सहकारी बैंकों की दीवारों पर लिखा होने से यह मान लिया गया है कि सहकारिता का संबंध सिर्फ सहकारी बैंकों से है। हालाँकि यह बात सही है कि सब कुछ उतना ही नहीं होता है, जितना मान लिया जाता है।
सहकारिता भी उतनी ही नहीं है, जितनी मान ली गई है अर्थात सहकारिता सहकारी बैंकों के अलावा भी है। अब आप साहित्य को ही ले लीजिए। प्रथमदृष्टया ऐसा लगेगा कि साहित्य में सहकारिता का क्या काम? साहित्य में निजता को इतना महत्व दिया गया है कि साहित्य सृजन को निजी अनुभवजन्य माना गया है। मगर साहित्य में सब कुछ निजी अनुभवजन्य ही नहीं है। साहित्य में सहकारिता है और पक्के तौर पर है। इसको जानने के लिए हमें सहकारिता के शाश्वत अर्थ से सहमत होना पड़ेगा। वह अर्थ है सहकारिता का मतलब साथ-साथ करना। ऐसे ही करना जैसे फिल्म "नया दौर" के गीत में लिखा गया है, 'साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना।'
साहित्य में भी जो कुछ किया जाता है, मिल-जुलकर किया जाता है। सिवाय रचना कर्म के। मगर सच्चा साहित्यकार रचना कर्म करता ही कितना है। साहित्यिक जीवन के प्रारंभिक जीवन में जितनी रचना लिखनी होती है, लिख लेता है, बाकी का लंबा जीवन तो सहकारिता में खेलते-कूदते बीत जाता है। मंजा मंजाया साहित्यकार रचनाधर्मिता के बजाय सहकारिता पर ज्यादा ध्यान देता है। वह जानता है, बिन सहकार नहीं उद्धार। इस क्रम में साहित्यकार सबसे पहले साहित्यिक संस्था का गठन करता है। यहीं से साहित्य में सहकारिता का शुभारंभ होता है।
जैसा कि होता है कि डाकू डाका डालते वक्त भले ही एकजुट रहें, मगर लूट के माल के बँटवारे पर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। साहित्य की सहकारिता में भी यही होता है, जब तक तीसरे को उखाड़ना होता है, पहले के दो एकजुट रहते हैं। उनमें गजब का भाईचारा होता है। मगर जैसे ही तीसरा निपटा, दोनों आपस में टाँग खिंचाई करने लगते हैं। बावजूद इन सबके शिष्टता बराबर बनी रहती है। जब भी मिलते हैं, हँस के मिलते हैं। गले तक लग लेते हैं। एक-दूसरे की सृजनशीलता की तारीफ करते हैं। एक-दूसरे को पानी का गिलास और चाय का प्याला पकड़ाते हुए ' पहले आप... पहले आप करते हैं।'
अगले दौर में दूसरी संस्थाओं से मोहब्बत बढ़ती है। आदर्श सहकारिता के तहत तू मेरे को तोक, मैं तेरे को तोकूँ जैसी स्थिति बनती है। वो इन्हें अध्यक्ष बनाते हैं, ये उन्हें मुख्य अतिथि बनाते हैं।
सहकारिता जब गर्भवती होती है, तो साहित्यिक गुटों और खेमों को जन्म देती है। इन खेमों का सरगना साहित्यकार होता है। साहित्य की ये गेंगें या खेमे एक-दूसरे पर परोक्ष हमले किया करती हैं। इन हमलों में सहकारिता की चरम सीमा देखने को मिलती है। एक गेंग दूसरे गेंग की काट करती है। एक सरगना दूसरे सरगने को घोंचू बताता है। यहाँ तक कि एक-दूसरे की उपाधियों, सम्मानों और पुरस्कारों पर उँगलियाँ उठती हैं। उन्हें प्रायोजित कबाड़ा हुआ बताया जाता है। जुबानी बमबारी में रचना चोरी करने तक के आरोप-प्रत्यारोप पीठ पीछे तक लगते हैं।
मैं चला था जानिबे मंजिल अकेला ही मगर, लोग मिलते गए, कारवाँ बनता गया की तर्ज पर साहित्यकार मिलते जाते हैं और संस्था की कार्यकारिणी गठित हो जाती है। मार्गदर्शकों तथा संरक्षकों के रूप में कुछ बुढ़ाए हुए, कुछ छुटे हुए साहित्यकार तथा नेताओं को ले लिया जाता है। न...न... करते हुए भी ये लोग संरक्षण और मार्गदर्शन का बोझ अपने कंधों पर ले ही लेते हैं।
खैर फिर, कुछ समय तक तो बाकायदा गोष्ठियाँ होती हैं जिनमें रचनापाठ होता है। इस दौर में सहकारिता की भूमिका एक-दूसरे की रचनाओं की तारीफ तथा परस्पर सहयोग से चाय-पानी और प्रेस नोट लिखना, टाइप करवाना, बँटवाने तक सीमित रहती है। अगले दौर में दूसरी संस्थाओं से मोहब्बत बढ़ती है। आदर्श सहकारिता के तहत तू मेरे को तोक, मैं तेरे को तोकूँ जैसी स्थिति बनती है। वो इन्हें अध्यक्ष बनाते हैं, ये उन्हें मुख्य अतिथि बनाते हैं। कार्यक्रम में एक-दूसरे की प्रशंसा 'अहो रूपो अहो ध्वनि' वाले अंदाज में की जाती है। सहकारिता का यह दौर आगे बढ़ता है तो अभिनंदन, सम्मान और षष्टिपूर्ति तक जा पहुँचता है।
इस पूरी अवधि में वे लोग जाने कहाँ छूट जाते हैं, जो संस्था के लिए भागा-दौड़ी करते थे। अब सहकारिता अवसरवादियों के हाथों में चली जाती है। वे सब मिलजुलकर नींव के पत्थरों को ठेंगा दिखाते हुए एक तरफ कर देते हैं। नींव के पत्थर सोचा करते हैं कि हमारे साथ तो यह हुआ 'वक्त पड़ा तो खून हमने दिया, बहार आई तो कहते हैं तेरा काम नहीं।' अवसरवादी एकजुट हो जाते हैं और वे साहित्य की सहकारिता करने लगते हैं। मंच पर वे। माइक पर वे। कैमरे की जद में वे। अतिथियों के आगे-पीछे वे। इस दौरान वे इतनी ग ुटबाजी कर लेते हैं कि भविष्य में लाभ लिया जा सके।