'पिता और पुत्र'-गहरी पैठ का मोती

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- नीहारिका झा

1860 ईस्वी में महान रूसी लेखक इवान तुर्गेनेव द्वारा रचित उपन्यास 'पिता और पुत्र' वर्तमान परिपेक्ष्य में भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि उस दौर में था। उपन्यास का हिन्दी अनुवाद मदनलाल 'मधु' ने किया है। तुर्गेनेव ने इस उपन्यास को उस दौर में लिखा था, जब रूस में तानाशाह जार निकोलाई प्रथम के शासन का अंत हुआ था और वहाँ सामाजिक बदलाव अँगड़ाइयाँ ले रही थीं। हर दौर की तरह इस दौर में भी नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच एक अंतर देखने को मिलता है। नई पीढ़ी में हमेशा एक नई सोच और नए विचारों का प्रार्दुभाव होता है और पुरानी पीढ़ी उसका विरोध यह कहकर करती है कि यह नीतिगत नहीं है, इस उपन्यास के मूल में भी यही विचार निहित है। साथ ही पिता और पुत्र के रिश्ते का जो वर्णन मिलता है वह वाकई दिल को छूने वाला है।

हरेक शब्द रिश्ते की समझ की परत-दर-परत खोलती है। पिता-पुत्र और माँ-बेटे के रिश्तों की गहराई तक पहुँचने का प्रयास बहुत कम लेखकों ने किया है, लेकिन कुछेक उदाहरण हैं, जिनकी रचनाएँ अजर-अमर मानी जाती हैं। मैकसिम गोर्की की 'माँ' और लियो टॉलस्टाय की कुछ कहानियों को कालजयी माना गया है, लेकिन पिता-पुत्र के उस संवेदनशील रिश्ते को बड़े कैनवास पर जिस सहजता और संवेदना के साथ उतारा है, वो तुर्गेनेव ही हैं।

उपन्यास के पात्रों के माध्यम से उन्नीसवीं सदी के शुरुआत में रूस की सामाजिक स्थिति कैसी थी, इस पर बारीकी से प्रकाश डाला गया है। बजारोव, अरकादी निकोलाई पेत्रोविच, पावेल पेत्रोविच जैसे अलग-अलग विचारों वाले पात्रों के जरिए इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है कि जार के शासन के बाद लोगों को किन-किन वैचारिक और सामाजिक संघषों का सामना करना पड़ा है। इन सब के बीच विभिन्न घटनाओं के जरिए लेखक ने किसानों की स्थितियों पर भी प्रकाश डाला है। उपन्यास के केन्द्र में बजारोव है, जो रूस के उस दौर की सामाजिक और मानसिक सोच के बिल्कुल उलट है। वह खुद को निहलिस्ट (कुछ भी नहीं) मानता है, उसका अक्कड़पन ही उसकी सबसे बड़ी खासियत है।

एक पिता के रूप में निकोलाई पेत्रोविच जितने कोमल ह्दय हैं उसी तरह अरकादी अपने पिता की भावनाओं का पूरा-पूरा ख्याल रखता है और उसका सम्मान करता है, लेकिन बजारोव अपने पिता वसीली इवानोविच और अपनी माँ की भावनाओं को कमजोरी मानता है। उसकी नजर में ये सारी चीजें इंसान को कमजोर बनाती हैं। इन रिश्तों को व्यर्थ मानने वाला बजारोव भी अन्ना सेर्गेयवना को पसंद करने लगता है। बजारोव के विचार उस दौर के रूसी समाज से कहीं आगे थे। यही वजह रही कि तुर्गेनेव को उसे अन्नतः उपन्यास में मारना पड़ा।

पाठकों को पिता और पुत्र के रिश्ते के उस अद्भूत वर्णन को अवश्य ही पढ़ना चाहिए, यह केवल रूस की सामाजिक परिस्थितियों के अुनूकूल नहीं, बल्कि हर देश और समाज की स्थिति के अनुसार है, क्योंकि हर समाज में नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ियों के बीच कड़वाहट और टकराहट की स्थिति बनी रहती है। यह जानना भी रोचक होगा कि जार के उस निरकुंश शासन से मुक्त होने के बाद समाज ने किस तरह खुद को नए सिरे से विकसित करने का प्रयास किया।

पाठकों को तुर्गेनेव के उस गहन चिंतन और अनुभव को भी जानने-समझने का मौका मिलेगा। तुर्गेनेव का युग रूसी साहित्य का उर्वर युग था, और उसी दौर में पुश्किन, गोगोल, चेखव जैसे लेखक हुए, लेकिन उन्हीं चमकते सितारों के बीच तुर्गेनेव ने अपने इस उपन्यास के जरिए अपनी चमक दुगुनी कर ली। ऐसे ऐतिहासिक उपन्यास से पाठकों को वंचित नहीं रहना चाहिए।

पुस्तक : 'पिता और पुत्र'
प्रकाशन : पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस(प्रा.) लिमिटेड, नई दिल्ली

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