आडवाणी के इस अरण्यरुदन पर कौन कान देगा?

अनिल जैन
भारतीय जनता पार्टी में इस समय कतिपय नेताओं के लिए 'विवेक-जागरण’ का काल चल रहा है। मार्गदर्शक और वरिष्ठ लेकिन हाशिए पर पटक दिए गए नेताओं के श्रीमुख से बहुत ही अच्छी-अच्छी और प्यारी-प्यारी बातें निकल रही हैं। इतनी अच्छी और प्यारी कि जाहिरा तौर पर कोई भी उनसे असहमत नहीं हो सकता।

पिछले पांच वर्षों से पार्टी में उपेक्षा, तिरस्कार और अकेलापन झेल रहे भाजपा के संस्थापकों में से एक उम्रदराज लालकृष्ण आडवाणी ने लम्बे समय बाद एक ब्लॉग लिखकर अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा है कि उनकी पार्टी ने राजनीतिक रूप से असहमत होने वाले को कभी 'राष्ट्र विरोधी’ नहीं माना है। 
 
कभी आडवाणी की ही बेहद करीबी रहीं और मौजूदा सरकार में बराए-नाम विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को भी अचानक याद आया कि आडवाणी उनके पिता तुल्य हैं और उनकी शान में कोई गुस्ताखी नहीं होनी चाहिए। सुषमा स्वराज को इस सिलसिले में भाषायी शालीनता की भी याद आई और उन्होंने आडवाणी के संदर्भ में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को उनके एक बयान पर भाषा की मर्यादा का पालन करने की नसीहत दे डाली।

यह और बात है कि पूरे पांच साल तक विभिन्न अवसरों पर आडवाणी का हाथ जोड़े खड़ा रहना और सत्ता तथा संगठन के शीर्ष नेतृत्व द्वारा उनकी उपेक्षा और अपमान करना सुषमा स्वराज को कभी अमर्यादित नहीं लगा। 
 
हाल ही में दिवंगत हुए गोवा के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर ने तो छह साल पहले उस वक्त आडवाणी को सड़े हुए अचार तक की संज्ञा दे डाली थी, जब संघ के निर्देश पर पार्टी ने आडवाणी की असहमति को दरकिनार कर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित कर दिया था। उस समय भी पार्टी में न तो सुषमा स्वराज ने और न ही किसी अन्य नेता ने पर्रिकर के बयान पर ऐतराज जताया था।
 
बहरहाल आडवाणी ने जो कहा वह ज्यादा महत्वपूर्ण है, लिहाजा बात को उस पर ही केंद्रित रखते हैं। 'नेशन फर्स्ट, पार्टी नेक्स्ट, सेल्फ लास्ट (राष्ट्र प्रथम, फिर पार्टी, अंत में स्वयं)’ शीर्षक से लिखे अपने ब्लॉग में आडवाणी ने कहा, 'भारतीय लोकतंत्र का सार विविधता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सम्मान है।

भाजपा ने अपनी स्थापना के समय से ही राजनीतिक तौर पर अपने से असहमत होने वालों को कभी 'दुश्मन’ नहीं माना बल्कि प्रतिद्वंद्वी ही माना।’ उन्होंने लिखा है, 'राष्ट्रवाद की हमारी धारणा में हमने राजनीतिक रूप से असहमत होने वालों को भी 'राष्ट्र विरोधी’ नहीं माना है। हमारी पार्टी व्यक्तिगत एवं राजनीतिक स्तर पर प्रत्येक नागरिक की पसंद की स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध रही है।’ 
 
सरकार का विरोध करने वाले या उसके कामकाज पर सवाल खडे करने वाले राजनीतिक या गैर राजनीतिक स्वरों को 'राष्ट्र विरोधी’ करार देने के जारी चलन को लेकर छिड़ी बहस के बीच भाजपा के वरिष्ठतम नेता की यह टिप्पणी काफी मायने रखती है। ब्लॉग का शीर्षक ही अपने आप में पार्टी नेतृत्व पर एक तरह से तीखा कटाक्ष है।

प्रकारांतर से इसे पार्टी का मार्गदर्शन करना भी कहा जा सकता है। उनकी संपूर्ण टिप्पणी सीधे-सीधे भाजपा और उसकी सरकार के शीर्ष नेतृत्व को तो कठघरे में खडा करती ही है, साथ ही उस पर प्रहार करने के लिए उसके विरोधियों को हथियार भी उपलब्ध कराती है।
 
यही वजह है कि मोदी ने इस टिप्पणी की आंच को हल्का करने के मकसद से तुरंत प्रतिक्रिया जताई। उन्होंने ट्विटर पर कहा कि 'आडवाणी जी ने भाजपा के सार को पूर्णता में पेश किया है, खासकर 'देश प्रथम, फिर पार्टी, अंत में स्वयं’ के मूलमंत्र को। मुझे अपने भाजपा कार्यकर्ता होने पर गर्व है। मुझे इस बात पर भी गर्व है कि आडवाणी जी जैसे महान लोगों ने पार्टी को मजबूत बनाया है।’
 
बहरहाल डेमैज कंट्रोल के लिए मोदी चाहे जो कहें, लेकिन आडवाणी की यह टिप्पणी जितना सरकार को कठघरे में खड़ा करती है, उतना ही खुद आडवाणी से भी आईना देखने की गुहार लगाती है। देश के जिस राजनीतिक माहौल के मद्देनजर आडवाणी ने यह टिप्पणी की है, वह माहौल कोई आज-कल में नहीं बना है बल्कि पिछले चार-पांच वर्षों से बना हुआ है।

सवाल है कि आडवाणी ने अपनी चुप्पी अभी ही क्यों तोडी? पांच वर्ष तक वे सत्ता के शीर्ष पर बैठे अपने पुराने शिष्य से क्या पाने की प्रत्याशा में मूकदर्शक बने रहे? सवाल यह भी है कि क्या आडवाणी का राजनीतिक आचरण वैसा ही उदात्त रहा है, जैसे उदात्त विचार वे अपने ब्लॉग में बयान कर रहे हैं? 
 
आडवाणी ने अपनी टिप्पणी में नेशन फर्स्ट की बात कही है, लेकिन हकीकत यह है कि उनके और उनकी पार्टी के लिए कभी नेशन फर्स्ट नहीं रहा। उनके लिए देश से पहले रहा है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, जो उन्होंने सत्ता पाने के लिए अपनी सोमनाथ से अयोध्या की रामरथ यात्रा के जरिए पैदा किया था।

उनके लिए देश से पहले रहा है हिंदुत्व की नफरत फैलाने वाली विचारधारा का प्रसार, जिसके तहत कभी ओडिशा में तो कभी गुजरात में और कभी झारखंड में गिरजाघरों पर बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के हमले होते हैं तो कभी किसी पादरी और उसके बच्चों को जिंदा जला देने और कभी ननों से बलात्कार जैसी वीभत्स वारदातों को अंजाम दिया जाता है।

आडवाणी के लिए देश पहले रहा होता तो वे सांप्रदायिक और हिंसक मानसिकता वाले अपने उस शिष्य का कतई पोषण और बचाव नहीं करते जो 2002 में गुजरात के भीषण सांप्रदायिक नरसंहार के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार था। 
 
आडवाणी के लिए देश से पहले रहा है बाबरी मस्जिद को ढहाने का अपना 'सांस्कृतिक स्वप्न’, जिसके साकार हो जाने से पूरे देश में व्यापक पैमाने पर सांप्रदायिकता नफरत का हिंसक माहौल बन गया था। बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद ही मुंबई समेत देश के कई हिस्से साम्प्रदायिक नफरत की आग में झुलस गए थे। 
 
प्रायोजित दंगों की प्रतिक्रिया में ही सिलसिलेवार बम ब्लास्ट हुए थे, सैकड़ों लोग मारे गए थे और अरबों रुपए की सम्पत्ति नष्ट हो गई थी। उनकी इसी मुहिम के चलते देश के कई आंतरिक हिस्सों आतंकवाद का प्रवेश हुआ। देश के विभिन्न इलाकों आए दिन बम विस्फोट और आत्मघाती हमले की घटनाएं होने लगीं, जिनका सिलसिला आज तक जारी है।

इस सबके लिए आडवाणी ने देश से माफी मांगना तो दूर कभी अफसोस तक जारी नहीं किया। इसीलिए कहा जा सकता है कि आडवाणी अब जो कुछ कह रहे है, वह महज पाखंड और उनके अरण्य-रुदन के अलावा कुछ नहीं है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)
 

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