-डॉ. भरत छापरवाल (पूर्व कुलपति देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर)
यह 1957 की बात है, जब मैं पहली बार मेडिकल की पढ़ाई के लिए इंदौर आया था। उस समय राजस्थान के मुख्यमंत्री एवं हमारे पारिवारिक मित्र मोहन लाल जी सुखाड़िया ने नई जगह होने के कारण मुझे 2 पत्र दिए थे। एक पत्र बाबू लाभचंद जी छजलानी के नाम था और दूसरा कन्हैया लाल जी खादीवाला के नाम पर। पत्र के साथ जब मैं बाबूजी से मिला तो उन्होंने मुझसे कहा कि तुम मिलते रहना। सुखाड़िया जी ने कहा है तो हम तुम्हारी देखभाल करेंगे। मैं 15-20 दिन के अंतराल में उनसे मिलने भी जाया करता था। बाबूजी मुझे बिना खाना खाए आने नहीं देते थे।
उसी दौरान जब मैं बाबूजी से मिलने जाता था तो अभय जी मुझे से दूर से देखा करते थे। उनके मन में स्वाभाविक तौर से एक सवाल होता था कि आखिर यह कौन व्यक्ति है, जो बाबूजी से मिलने आता है। इसी दौरान मेरी अभय जी से मुलाकात हुई और फिर हमारे बीच गहरी मित्रता हो गई। धीरे-धीरे हम शकर में दूध की तरह मिल गए थे। हमने साथ में रहकर इंदौर में खेलों को बढ़ावा देने का काम किया। 'अभय प्रशाल' अभयजी के परिश्रम का ही फल है, जहां लंबे समय से खिलाड़ियों की पौध तैयार हो रही है। यहां टेबल टेनिस के अंतरराष्ट्रीय स्तर के टूर्नामेंट भी हो चुके हैं।
अभय जी यारों के यार थे। यारों के यार का मतलब यह नहीं कि कोई उनके कार्य में, उनके प्रोफेशन में दखल दे। वे मित्रता और प्रोफेशनलिज्म दोनों को ही अलग रखते थे। मैं तब देवी अहिल्या विश्वविद्यालय का कुलपति था और वे नईदुनिया की बागडोर संभाल रहे थे। हम दोनों के बीच इतनी अच्छी आपसी समझ थी कि कभी भी एक-दूसरे के काम में हस्तक्षेप नहीं किया न ही अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया। हालांकि मैं खुलेमन से यह स्वीकार करता हूं कि मेरे करियर में अभयजी बड़ा योगदान रहा है।
मैंने अभय जी का वह दौर भी देखा है जब वे 16-17 घंटे काम करते थे। आज नई तकनीक के बाद काम काफी आसान हो गया है, लेकिन अभय जी उस समय अपने हाथ से टाइप सेट किया करते थे। वे तब तक काम करते थे, जब तक कि अखबार छप नहीं जाता था। बाबूजी का अनुशासन ही ऐसा था।
अभय जी जितने सौम्य थे, उतनी ही दृढ़ इच्छाशक्ति वाले व्यक्ति थे। वे कहते थे कि हमें कभी भी शासन से डरना नहीं है। हम शासन की गलत नीतियों का विरोध करेंगे, लेकिन अच्छी नीतियों का समर्थन भी करेंगे। 1965-66 के नर्मदा आंदोलन को ही ले लीजिए। तब उस जमाने के युवाओं के नेतृत्व में इस आंदोलन की शुरुआत हुई थी। नईदुनिया ने उस आंदोलन का खुलकर समर्थन किया था। यदि नईदुनिया उस समय आंदोलन का समर्थन नहीं करता तो शायद उस योजना को हम देख भी नहीं पाते।
एक प्रसंग मुझे याद आता है। नईदुनिया में एक खबर छपी थी कि कल छुट्टी रहेगी, यकीन मानिए दूसरे दिन सरकारी कार्यालय नहीं खुले। इससे ज्यादा विश्वसनीयता की मिसाल और क्या दी जा सकती है। दरअसल, उस दौर में नईदुनिया में कोई खबर छप जाती थी तो वह सरकारी गजट से ज्यादा भरोसेमंद मानी जाती थी।
अभयजी ने कभी भी विरोध की परवाह नहीं की। इंदौर स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने टेबल टेनिस ट्रस्ट के लिए एक कार्यक्रम किया था। उस समय शहर के प्रभावशाली नेताओं ने इस कार्यक्रम का विरोध भी किया था। लेकिन, फिर भी कार्यक्रम हुआ। शायद अच्छा न लगे, लेकिन आज मीडिया पर 'गोदी मीडिया' होने के आरोप लगते हैं, लेकिन उस दौर में नईदुनिया जैसे अखबार जनता की परवाह किया करते थे। यारों के यार और प्रखर पत्रकार अभयजी को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
(वृजेन्द्रसिंह झाला से बातचीत पर आधारित)