Indore traffic problem: इंदौर शहर में यातायात का प्रबंधन केवल सड़क और वाहनों का सुचारु रूप से चलाने का प्रश्न नहीं है। इसमें बहुत सारे कारक हैं, जो आपस में एक दूसरे से उलझ गए हैं। कई बार शहर के यातायात की समस्या लाइलाज दिखती है। दरअसल, हमने इंदौर के नगर नियोजन और यातायात प्रबंधन को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। ऐसा भी नहीं है कि इसके बारे में अच्छे से सोचा नहीं गया। बहुत अच्छे से सोचा गया। शहर के मास्टर प्लान में बहुत ही विस्तार से बातें कही गई हैं। राज्य शासन, नगर निगम, पुलिस-प्रशासन और विकास प्राधिकरण ने इंदौर के यातायात की समस्या को दुरुस्त करने के लिए कई प्रयोग किए, लेकिन हमसे एक बड़ी चूक हो गई। हमने इस बारे में कभी दूरदृष्टि और समग्रता से नहीं सोचा। हम खंडित दृष्टि से सोचते रहे। यही कारण है कि यह समस्या अब हमें लाइलाज लग रही है।
बहुत ही भयावह दृश्य : आजादी के बाद के इंदौर और आज के इंदौर में जमीन-आसमान का अंतर है। यातायात की मुख्य समस्या सबसे बड़ी चुनौती के रूप में दिखाई दे रही है। शहर के राजवाड़ा को केन्द्र मानकर यदि हम 5-6 किलोमीटर के दायरे में देखें तो जो दृश्य है, वह बहुत ही भयावह है। नागरिकों, बाजारों और वाहनों का घनत्व दिन-ब-दिन बढ़ता ही जा रहा है। उसे रोकने का विचार हमारे दिमाग में आया ही नहीं। मध्य क्षेत्र का इलाका जिसे हमने स्मार्ट सिटी के रूप में स्वीकार किया, इसमें दो तरह के परिवर्तन हुए।
पुराने इंदौर का इलाका शुरुआत में रहवासी था या कहें कि मिलाजुला रहवासी और कॉमर्शियल था। लेकिन, धीरे-धीरे यहां से रहवासी आबादी पलायन कर गई और यह क्षेत्र इंदौर का सबसे बड़ा व्यावसायिक क्षेत्र हो गया। घरों के स्थान पर व्यावसायिक कॉम्प्लेक्स खड़े हो गए। यहां बड़ी संख्या में ऑफिस और दुकानें बन गईं। स्वाभाविक तौर पर व्यावसायिक इलाके में भीड़ होती ही है। यहां लोग वाहनों से ही आते हैं। अब न तो व्यवसाय को रोका जा सकता है और न ही आने जाने वालों को। शहर में पार्किंग की समस्या सबसे जटिल है। दुकानों और ऑफिसों के सामने वाहन सड़कों पर ही नजर आते हैं।
आर्थिक नीति ने बढ़ाई मुसीबत : यातायात की समस्या से जुड़ा दूसरा और अहम प्रश्न आर्थिक नीति का है। आज के दौर में कार और दोपहिया वाहन बैंक फाइनेंस के जरिए बहुत आसानी से खरीदे जा सकते हैं। सिर्फ आपके हां करने की देर है। इस इकोनॉमी ने वाहनों की संख्या को विस्फोटक रूप से शहर के भीतर फैला दिया है। यदि हम देखें तो इंदौर के सभी लोग इतने धनी नहीं हैं कि वे 10-20 लाख की कार खरीद सकें, लेकिन लोन की व्यवस्था आसान होने से कोई रुक नहीं पा रहा है।
इस पहलू को हम नहीं देख पा रहे हैं। एक दौर वह भी था जब वेस्पा स्कूटर के लिए भी नंबर लगाना पड़ता था। इस बार दशहरे पर ही 9 हजार कारें सड़क पर आ गईं। इसको हम रोक नहीं सकते क्योंकि हमारे पास इच्छा शक्ति ही नहीं है, सोचने की दृष्टि नहीं है। दरअसल, यह आर्थिक प्रश्न है। ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री इतनी पॉवरफुल है कि सरकारें और प्रशासन इसे रोक नहीं सकते। यह बुनियादी आर्थिक नीति का सवाल है, जो हमारी समस्या को और जटिल बना रहा है।
नागरिक भी कम जिम्मेदार नहीं : इस समस्या के लिए नागरिक भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। टाउन एंड कंट्री प्लानिंग में यह व्यवस्था है कि वाहन रखने के लिए घर में गैरेज होना चाहिए, लेकिन लोगों ने गैरेज किराए पर उठा दिए और वाहन सड़क पर खड़े होते हैं। ऐसे बहुत सारे छोटे-बड़े सवाल हैं, जिन पर हम चर्चा नहीं करते, सोचते नहीं। हम एक ही रास्ता अपनाए हुए हैं कि चालान कर दो। 1977-78 के दौर में जब चालान बनता था तो कोर्ट जाना पड़ता था। भीड़ बढ़ने पर कोर्ट ने मनिऑर्डर की व्यवस्था की। 2025 आते-आते अब चालान 24 घंटे कैमरे से बनने लगे। अब चालान वसूली एक नई समस्या बन गई। हमें अपनी समूची कार्यप्रणाली का पुनरावलोकन करना होगा।
यदि हमें सुचारु यातायात प्रबंधन करना है तो हमें खंडित नहीं बल्कि समग्र रूप से सोचना होगा। आर्थिक, राजनीतिक, नगर नियोजन, नागरिक उत्तरदायित्व आदि से जुड़े प्रश्न भी हैं। इनमें से एक भी एजेंसी अपनी भूमिका को ठीक तरह से नहीं निभा रही है। अराजकता में रहना हमारा स्वभाव हो गया है। सड़क हादसे होते हैं, लोग मरते भी हैं। अखबारों में हो-हल्ला होता है, विरोध प्रदर्शन होते हैं, लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है।
जब दूसरे कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं? : ऐसा भी नहीं है कि इंदौर दुनिया का सबसे बड़ा शहर है। इंदौर से बड़े हजारों शहर हैं। यातायात प्रबंधन के लिए यहां भी प्लान किया जा सकता है। दूसरे देशों में वहां के लोगों ने, सरकारों ने, इकोनॉमी ने गंभीरता से सोचा और यातायात का प्रबंधन किया। दरअसल, हमारे भीतर विल पॉवर नहीं है। हमें सिर्फ अपनी पीठ थपथपाना आता है कि हम नंबर वन हैं। हम समग्र चिंतन के लिए तत्पर क्यों नहीं हैं? हमारा आलस्य, एरोगेंस और हमारी खुशफहमी इंदौर के यातायात की अराजक व्यवस्था को सुधारने में कभी भी सफल नहीं हो सकती।
दरअसल, आपका चिंतन यह होना चाहिए कि यह करें कैसे, कहें कैसे? लेकिन, न कोई सोचने को तैयार है, न कोई सुनने को तैयार है, हम सब असहाय हो गए हैं। किसको कहें, केन्द्र, राज्य सरकार या प्रशासन से कहें, कोई इसे गंभीरता से लेने को तैयार ही नहीं है। भुगतने का अलावा रास्ता ही क्या है? इसे निराशावादी कहा जा सकता है, लेकिन ऐसा है नहीं।
हम कैसा जीवन चाहते हैं : यह केवल मुद्दा उठाने की बात नहीं है। यातायात का सवाल इंदौर के समग्र जीवन का सवाल है। इंदौर मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा शहर है। यह भी प्रश्न है कि इंदौर में कारखानों या अन्य स्थानों पर रोजगार नहीं है तो लोगों को सड़क पर रोजगार करना पड़ रहा है। फिर उन्हें हटाते हैं, ठेले तोड़ते हैं तो नए दृश्य उत्पन्न होते हैं। हमारे जनप्रतिनिधि आजादी के 75 साल बाद भी सायरन बजाते हुए शाही अंदाज में निकलते हैं। सभी को यह सोचना चाहिए कि हमारे निकलने से किसी को व्यवधान नहीं आना चाहिए। शादी-ब्याह, शोभायात्रा, जुलूस आदि सड़क पर ही निकालना है। हम ज्वालामुखी विस्फोट की तरह जीवन जीना चाहते हैं तो ज्वालामुखी के अंदर व्यवस्था कैसी होगी? उसकी आग से सबको झुलसना ही पड़ेगा।
क्या यह उपाय हम नहीं कर सकते? : सिंगापुर में कानून है कि जिसके पास पार्किंग की व्यवस्था नहीं है, वह कार नहीं खरीद सकता। क्या इस तरह का कानून में भारत में नहीं बनाया जा सकता? यदि ऐसा कानून बनाया जाए तो इससे वाहनों की संख्या पर तो रोक लग ही सकती है। इस तरह का उपाय हमें भी करने चाहिए।
सबसे अहम बात यह है कि हम भविष्य की कल्पना करके इंदौर को 50-60 लाख की आबादी वाला शहर बनाना चाहते हैं, लेकिन इस पर पुनर्विचार होना चाहिए। जब आप 20-30 लाख के शहर को अराजकता से नहीं बचा पा रहे हैं तो इसी ढर्रे पर महानगर कितना भयावह होगा? बड़े शहर बनाए ही क्यों जाएं? यदि हम छोटे शहरों को प्रमोट करेंगे तो ऐसी समस्याएं भविष्य में खड़ी ही नहीं होंगी। ... और यह सिर्फ ट्रैफिक की ही समस्या नहीं है। इससे लोगों के काम के घंटे खराब होते हैं, वाहनों के प्रदूषण से स्वास्थ्य पर बुरा असर होता है, कास्ट ऑफ लिविंग भी बढ़ती है। असल में इस तरह के मुद्दे जनचर्चा का विषय बनने चाहिए। इससे ही समाधान सामना आएगा क्योंकि यह हमारे जीवन-मरण का सवाल है। (फोटो : धर्मेन्द्र सांगले)
(गांधीवादी चिंतक और एडवोकेट अनिल त्रिवेदी से बातचीत पर आधारित)