' भोगी के दिन अभयंग स्नान कर साज सिंगार श्याम सुभग तन।
पुण्य काल तिलवा भोग घर के प्रेम सों बीरी अरोगावत निज जन॥1॥
मोहन श्याम मनोहर मूरति करत विहार नित व्रज वृंदावन।
' परमानंददास' को ठाकुर राधा संग करत रंग निश दिन॥2॥'
राज भोग में पुण्य काल में तिल की सामग्री भोग में आती है। यही तिल की सामग्री शक्कर एवं गुड़ की धराई जाती है।
शीत ऋतु के अनुसार ठाकुरजी का सुख विचार कर अर्थात गुड़ तथा तिल व शक्कर की सामग्री जो कि उष्ण होती है वह ठाकुरजी के लिए शीतकाल में लाभप्रद है। इसलिए इसका भोग लगता है। फिर ऋतु अनुसार राग, भोग एवं श्रृंगार पुष्टि संप्रदाय में श्री श्रीनाथजी को किया जाता है।
तिल की सामग्री में एक तिल दूसरे तिल से जितना निकट है उतने ही प्रभु अपने निजजन को निकटता प्रदान करते हैं।
मकर संक्रांति पर पुष्टि संप्रदाय में ठाकुरजी के सन्मुख संध्या आरती एवं सेन दर्शन में पतंग उड़ाने के पद गाए जाते हैं।
' कान्ह अटा चढ़ि चंग उड़ावत हो। अपुने आंगन हू ते हेरो।
लोचन चार भए नंदनंदन काम कटाक्ष भयो भटु मेरो ॥1॥
कितो रही समुझाय सखीरी हट क्यो नमानत बहुतेरो।
' नंददास' प्रभु कब धों मिले हैं ऐंचत डोर किधों मन मेरो ॥2॥'
इस प्रकार पूरी भारतीय संस्कृति में मकर संक्रांति का विशेष महत्व है। भगवान सूर्य का उत्तरायण इसी दिन होता है। उत्तरायण में प्राण त्यागने वाले की उर्धगति होती है। उसे गोलोकवास की प्राप्ति होती है।
भारतीय परंपरा में प्रत्येक उत्सव का तथा इससे जुड़े व्यंजनों का भी अपना महत्व है। चूंकि तिल की सामग्री, (गुड़ तथा शक्कर के साथ बनी) उष्ण होती है। अतः शीत ऋतु में इसका सेवन स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभप्रद है। अतः मकर संक्रांति तिल की सामग्री का एवं खिचड़ी (मूंग की दाल तथा चावल आखा नमक) का विशेष रूप से दान देने का पर्व माना जाता है।
मकर संक्रांति उत्सव के बाद प्रथम आने वाली षट ्तिल ा एकादशी का भी विशेष महत्व है। इस दिन भी तिल की सामग्री ठाकुरजी को एकादशी के भोग में आती है एवं इस दिन भी दान का विशेष महत्व है। तिल को पीसकर इसका उबटन भी शरीर पर लगाकर स्नान किया जाता है। साथ ही गाय को गुड़, दलिया विशेष प्रकार से बनाकर खिलाया जाता है।
तीर्थ स्थानों एवं पवित्र नदियों (गंगा, यमुना, त्रिवेणी संगम, नर्मदा आदि) में स्नान कर दान देकर, श्राद्ध भी किए जाते हैं। इस प्रकार यह उत्सव धर्म, अर्थ, काम एवं पुष्टिमार्गीय मोक्ष को प्रदान करने वाला है ।