बच्चों के बहाने

वर्तिका नन्दा
“जब मैं अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा से मिली तो मैंने कहा कि अफगानिस्तान में बन्दूक और बम भेजने के बजाय आप कॉपी, कलम और शिक्षक क्यों नहीं भेजते। मैंने उनसे कहा कि दहशतगर्दी से लड़ने का यही सबसे कागगर तरीका है।”- मलाला युसुफज़ई
 
सबसे कम उम्र की नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला युसुफजई के ये शब्द उम्मीदों को जगाते हैं। इस बार के बाल दिवस में मलाला के अलावा भारत से नोबेल पुरस्कार के लिए चयनित किए गए कैलाश सत्यार्थी भी नई उम्मीदों को जगा रहे हैं। वे बरसों से बचपन बचाओ आंदोलन चलाते रहे हैं। उन्हें बच्चों और युवाओं के दमन के ख़िलाफ़ और सभी को शिक्षा के अधिकार के लिए संघर्ष करने के लिए शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया है। उन्हें बाल श्रम के ख़िलाफ़ अभियान चलाकर हज़ारों बच्चों की ज़िंदग़ियां बचाने का श्रेय दिया जाता है। इस समय वे 'ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर' (बाल श्रम के ख़िलाफ़ वैश्विक अभियान) के अध्यक्ष भी हैं। 
 
नोबेल समिति ने बयान जारी करते हुए कहा है, "ये पुरस्कार सभी बच्चों के लिए शिक्षा और बच्चों और युवाओं के दमन के खिलाफ किए गए उनके संघर्ष के लिए दिया जा रहा है। ये ज़रूरी है कि बच्चों का आर्थिक शोषण न हो और हर बच्चा स्कूल ज़रूर जाए। दुनिया भर में जितने भी ग़रीब देश हैं, उनकी 60 फीसदी आबादी की उम्र 25 साल से कम है। विशेष रूप से संघर्षग्रस्त देशों में, बच्चों की अनदेखी के कारण उनके साथ हो रही हिंसा की समस्या पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ती जा रही है।"
 
एक ऐसे दौर में, जबकि दुनिया में करीब 18 करोड़ बाल श्रमिक हैं और कम से कम 3 लाख बाल सैनिक – मलाला और कैलाश उन सबके हक की बात कर रहे हैं जिन पर राजनीति तो खूब हुई पर हकीकत उससे परे रही। 1947 के बाद आज़ाद भारत ने जिन बुनियादी मुद्दों को अपने केंद्र में रखा, उनमें बच्चे नहीं थे। यह बात अलग है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हमेशा ही बच्चों के प्रिय रहे और बाल दिवस उन्हीं की वजह से वजूद में आया लेकिन इसके बावजूद इस देश का बचपन कभी भी खुशहाल हो न सका। यही वजह है कि 14 नवंबर अल्पकालिक खुशी तो लाता है लेकिन स्थाई भरोसा नहीं।
 
भारत में 45 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल से कम उम्र में कर दी जाती है। 63.3 प्रतिशत लड़कियां अपनी पढ़ाई कभी पूरी नहीं कर पातीं। देश में शुरू की गई मिड डे मील की योजना अपने मकसद को पूरा नहीं कर पाई। आंकड़ों की लंबी फेहरिस्त के बावजूद हम उम्मीद करते हैं कि इस देश का भविष्य सुरक्षित होगा। दरअसल हमारी व्यवस्था के मूल ढांचे में बच्चों की समस्याओं को कभी भी गंभीर बहस से जोड़ा नहीं गया। चूंकि बच्चा अपने हर फैसले के लिए बड़ों पर निर्भर करता है, इसलिए अक्सर सुधार की चर्चाएं भी बड़ों की सुविधाओं के अनुसार ढाल दी जाती हैं। बच्चों के नाम पर जो योजनाएं बनती हैं, उनका प्रचार और प्रसार भी बड़े शहरों की चारदीवारियों में सिमट कर रह जाता है।

इसके अलावा बनाई जाने वाली योजनाओं पर पैनी नजर भी नहीं रखी जाती, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। सड़कों पर झाडू चल रहे हैं। सरकार के अंदर अच्छे दिनों के गाने गाए जा रहे हैं। बहुत कुछ जो पहले कभी सपने में भी नहीं हुआ, अब होने लगा है। रेडियो पर बाल कलाकारों को आमंत्रित किया जा रहा है। टेलीविजन नन्हें कलाकारों को बड़े मंच देने लगा है। बच्चों के लिए स्कॉलरशिप देने वाली योजनाओं में कई गुना इजाफा हो गया है। एनसीआरटी और सीबीएसई भी हर तबके के बच्चे में शिक्षा का जज़्बा भरने के लिए नए कोर्सों को जोड़ता चला जा रहा है। 
 
जब इतना कुछ हो रहा है तो यह उम्मीद भी की जा सकती है कि बच्चों के दिन भी अब जल्दी सुधरेंगे। खास तौर पर लड़कियों के क्योंकि अगर लड़कियों को सुरक्षा शिक्षा और सम्मान मिला तो देश के अच्छे दिन आने से कोई नहीं रोक सकता। 
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