'कांट टेक दिस शिट एनीमोर' को राष्ट्रीय पुरस्कार

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टीवी पत्रकार से फिल्म निर्देशक बन चुके विनोद कापड़ी को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया है। उन्हें उनकी डॉक्यूमेंटरी 'कांट टेक दिस शिट एनीमोर' (Can’t take this shit anymore) के लिए पुरस्कृत किया गया है जो ग्रामीण महिलाओं के लिए शौचालय की समस्या पर बनाई गई है। उस इसे समाजिक कैटेगरी की फिल्मों के लिए पुरस्कार दिया गया है।
 
निर्देशन में हाथ आजमाने से पहले विनोद कापड़ी ने तत्कालीन स्टार न्यूज (अब एबीपी न्यूज), जी न्यूज, इंडिया टीवी और न्यूज एक्सप्रेस में शीर्ष पदों पर काम किया है। उन्होंने ‘मिस टनकपुर हाजिर हों’ नामसे एक फीचर फिल्म भी बनाई है जिसे फॉक्स भारत में रिलीज करने वाला है।
 
पुरस्कार के बाद कापड़ी ने फेसबुक पर कुछ ऐसा लिखा : ‘यकीन ही नहीं होता कि मेरी फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया है। इसका सारा श्रेय मेरी टीम और मेरे प्यारे परिवार को जाता है। ये तस्वीर उस दिन की है, जब आज से दो महीने पहले हम नेशनल अवॉर्ड के लिए इंट्री भर रहे थे। याद है मानव एम यादव?? यक़ीन नहीं होता कि हमारी पहली ही फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल गया। यक़ीन ही नहीं हो रहा कि फ़िल्म को नेशनल मिल गया!! क्या करूँ’??
 
फिर फिल्म बनाने की प्रक्रिया के बारे में उन्होंने एक दूसरा पोस्ट लिखा,- ‘दफ़्तर नहीं, पैसा नहीं, लोग नहीं पर फ़िल्म भी बन गई और नेशनल भी मिल गया।  कहानी थोड़ी सी फ़िल्मी है पर सच है।
 
ये कहानी बताना आज बहुत ज़रूरी है!! इसलिए क्योंकि हमने भी कितनी कहानियाँ सुनी गैराज की, पर यहाँ तो गैराज भी नहीं है अब तक इस कहानी का एक अहम किरदार है मेरा पुराना दोस्त संजय पांडे। जी वाला अपना पहाड़ी भाई। कोई भी ख़बर हो या कहानी हो या आइडिया हो, संजय से मैं सालों से बात करता आया हूँ। संजय की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि आप संजय को एक आइडिया बताओ, वो आपको चार बताएगा। संजय ने तुरंत हामी भरी और कहा कि आप इस पर फ़िल्म बनाओ, देखी जाएगी। बस काम शुरू हो गया।
 
पर कैमरा कहाँ से आएगा? तो बात हुई पुराने साथी मनोज त्यागी से, उन्होंने रशेज के लिए पैसे लिए बिना कैमरा दे दिया। फ़िल्म के लिए एक थीम सोंग के लिए आलोक श्रीवास्तव से काफ़ी चर्चा हुई और बन गया 'टट्‍टी गीत'। आलोक से सिर्फ़ कर्म की बात हुई, धन की अब तक नहीं।
 
कैमरा तो मिला पर चलाएगा कौन? एक बड़ा प्रतिभाशाली कैमरामैन है इंदिश बतरा, मेरे जी के दिनों का साथी। पिछले कई साल से सिर्फ़ बीबीसी, डिसकवरी और नेट जियो के लिए ही डॉक्यूमेंटरी कर रहा है। उससे आइडिया पर बात हुई तो ये भाई भी बोला : बस काम अच्छा करना है विनोद, पैसे भूल जाओ।
 
फ़िल्म की शूटिंग हो गई। अब एडिट कौन करेगा? बड़ा सवाल था। पहला और आख़िरी नाम ज़ेहन गिरीश जुनेजा का। एडीटिंग में तो बड़ा नाम है ही, एक फ़ीचर फ़िल्म मुआवज़ा भी बना चुके हैं। सोचा कि शायद हम अफोर्ड नहीं कर पाएं या गिरीश बहुत व्यस्त हो। फ़ोन लगाया और जवाब मिला; पा जी!! पैसों की तो बात ही मत करो। सब तय हो गया, संजय के यहाँ ही एडिट शुरू हुआ। फिर विनय कश्यप, मोहम्मद सैफुल्लाह तौहीदी और मानव एम. यादव ने कमान सँभाली।
 
विनय और मानव, बार-बार चेजेंज और नए-नए एडिट्स के लिए माफ़ करना यार। एक और किरदार हैं उपमन्यु, क्या कमाल का संगीत दिया। भाई ने भी दिया ही है, लिया कुछ नहीं। फ़िल्म जब तैयार हो गई, तब हमने मां के नाम पर कंपनी रजिस्टर की: भागीरथी फिल्म और देखिए पहली ही बार में आसमान से ही कहीं मां ने कमाल कर दिया। साक्षी जोशी कापड़ी, अम्बुजेश्वर पांडेय, रितुल जोशी और शिवानी रावत को मैं कैसे भूल सकता हूँ भाई!!! और फ़िल्म का प्यारा सा छोटा सा कवर डिज़ाइन किया मुकेश भाटी ने। मुकेश से भी पैसों की बात अभी होनी बाक़ी है।
 
ये नेशनल अवॉर्ड हम सबका है दोस्तो, आप सबका है। किसी भी एक कड़ी के बिना ये अवॉर्ड बिलकुल असंभव था !!! थैंक यू मां !!!
 
पुनश्च : एक सज्जन और हैं अमित त्रिपाठी!! अमित वो सज्जन हैं जिन्होंने फ़िल्म का आइडिया सुनते ही कहा था कि यार इसमें तो अवॉर्ड पक्का है और बाद में पैसा भी। लाओ मैं भी पैसा लगाता हूँ। आगे की कहानी फिर कभी।’ 
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