अपनी शर्तों पर पत्रकारिता करते थे विनोद मेहता...

श्रवण गर्ग
रविवार, 8 मार्च 2015 (16:12 IST)
विनोद मेहता का चले जाना इन मायनों में बड़ा नुकसान है कि अपनी शर्तों पर पत्रकारिता करने वाला उनके कद का संपादक-पत्रकार अब हमारे ‍बीच मौजूद नहीं रहेगा। देश में पत्रकारिता जिस तरह से पल-पल में करवटें बदल रही हैं, विनोद मेहता की कमी का सार्वजनिक रूप से स्मरण करना और उनके जैसा संपादक बनने का प्रयास करना भी एक चुनौतीपूर्ण कार्य रहेगा।
 
विनोद मेहता के साथ मुझे एक बार 'आउटलुक' के दफ्तर में भेंट करने और फिर पत्रकारों के एक दल के सदस्य के रूप में उनके साथ पाकिस्तान की यात्रा करने का अवसर मिला था। एडिटर्स गिल्ड की बैठकों में तो उनके तेवर अलग से देखने को मिलते ही थे।
 
एक अच्‍छे और कुशल संपादक से जिस तरह के गुणों और साहस की उम्मीद की जा सकती है, वे सब विनोद मेहता में मौजूद थे। खबरों के प्रति गजब की समझ, ईमानदारी और साहस सभी कुछ उनमें मौजूद थे।
 
उनका हाथ हमेशा अपने रिपोर्टर्स की पीठ पर मौजूद रहता था। वे पाठकों की जरूरत के मामले में अपने सिद्धांतों के साथ कभी समझौता नहीं करते थे। उन्होंने कई प्रकाशनों की शुरुआत की और कई को अपनी इसी छाप के साथ छोड़ भी दिया कि उसे उनके अलावा कोई और इतनी सफलता के साथ उन्हें नहीं चला सकता।
 
उनकी जीवनयात्रा और पत्रकारिता का काफी कुछ दर्शन उनकी दो किताबों 'लखनऊ ब्वॉय' और 'एडिटर अनप्लग्ड' से हो जाता है। कल्पना से परे लगता है 'आउटलुक' जैसे गंभीर प्रकाशन के संपादक विनोद मेहता ने अपनी पहली चुनौती को 'डेबोनेयर' जैसी रंगीन पत्रिका को 'री-लांच' करने से स्वीकार की होगी। 'आउटलुक' के साथ कोई सत्रह वर्षों तक जुड़े रहे और इसी दौरान उन्होंने टेलीविजन सहित दिल्ली की पत्रकारिता के प्रत्येक कोने को अपनी उपस्‍थिति से भर दिया। 
 
वे एक ऐसे संपादक थे जिस पर समाचार पत्र मालिक सफलता का भरोसा कर सकते थे, पर उनके साथ लंबी दूरी तय करने का साहस नहीं जुटा पाते थे। इसका सबसे बड़ा कारण विनोद मेहता की 'किसी भी तरह का समझौता नहीं करने' की पत्रकारिता को माना जा सकता है। विनोद मेहता ने इसके कारण कई बार नुकसान भी उठाए। 
 
द पायोनियर, द संडे ऑब्जर्वर, द इंडिपेंडेंट, द इंडियन पोस्ट ऐसे प्रकाशन हैं जिन्हें केवल विनोद मेहता के लिए ही याद किया जाता रहेगा। 'इंडिपेंडेंट' अंग्रेजी समाचार पत्र की कहानी को केवल इसी तथ्य के कारण याद रखा जा सकता है‍ कि 1989 में उसे शुरू करने के केवल 29 दिनों में ही उन्हें उसे छोड़ना पड़ा था। इसका कारण उस समय के सबसे ताकतकर राजनीतिज्ञ यशवंतराव चव्हाण के खिलाफ उन्होंने एक जबर्दस्त समाचार करने की हिम्मत की थी। 
 
विनोद मेहता की एक ईमानदार संपादक के रूप में सबसे जबर्दस्त खूबी यही थी कि वे हमेशा इस बात से परिचित रहते थे कि वे स्वयं क्या हैं और किस तरह की मिट्टी से बने हैं। एक ऐसा संपादक जो दूसरों के विचारों को सुनने, समझने और समायोजित करने के लिए हमेशा उपलब्‍ध रहता है। 
 
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