हमारे समाज में मां, दादी-नानी जैसे संबोधन बने हैं और इन संबोधनों का समुचित आदर आज के "प्रैक्टिकल" समाज में भी दिखता है। यह सिर्फ कहने की बात नहीं है कि बच्चे को पहली शिक्षा उसकी मां और नानी-दादी की गोद में मिलती है। घर में मां और दादी बच्चे में संस्कार भरती हैं। दादी-नानी की कहानियों, उनके पुचकार में शिक्षा होती है। बच्चे को जीवनशैली का ज्ञान महिलाएं ही कराती हैं।
अगले पेज पर : कम हो रही है बच्चियां
दरअसल, हमारा समाज अभी भी सामंतवादी मानसिकता में जी रहा है। समाज और विज्ञान की तरक्की के साथ हमें पुरुषवादी सोच में बदलाव भी लाना होगा।
मैं जब 2007 में पुरुलिया की "नाचनी" पर काम कर रही थी, तब मुझे लगा कि मां कही जाने वाली महिला का किस कदर शोषण हो सकता है। एक तो आदिवासी, ऊपर से नाचनी। मैंने देखा कि किस तरह उनके दूध पीते बच्चों को हटाकर लोग उन्हें उठा ले जाते। मैंने अपने लेखन में उनके मानवाधिकारों की बात उठाई। पुरुलिया का नाचनी समुदाय ठीक दक्षिण भारत के मंदिरों में "देवदासियों" की तरह का माना जा सकता है।
फर्क यह है कि वहां भगवान के नाम पर होता रहा है और पुरुलिया में नाचनी की खुलेआम खरीद-फरोख्त होती है। आप कल्पना कर सकते हैं कि कम्युनिस्टों के दीर्घ शासन वाले बंगाल में भी ऐसा हो सकता है। उस बंगाल में जहां शारदीय नवरात्र में शक्ति के मातृ रूप की पूजा-अराधना होती है। मैंने अपने उपन्यास "अरण्येर अधिकार" में भी यह मुद्दा उठाया है। मातृ रूप की खरीद-फरोख्त कल्पना से परे है।
यह ज्यादा पुरानी बात नहीं है कि हम घर में अपनी मां, चाची, दादी-नानी या यूं कहें कि मां-जातीय महिलाओं को हमेशा सकुचाते हुए देखते थे। उन्हें कुछ कहना होता तो वे बहुत सोच-विचार के कहतीं। खुद को घर की चाहरदिवारी में बांध लेतीं। ऐसी महिलाओं को जब आकाश मिला, तब काफी खूबसूरत चीजें सामने आईं।
कुछ अर्सा पहले एक तिब्बती महिला लेखिका मुझसे मिलने आईं -गेयांग। बातों-बातों में उन्होंने कहा- हम तो अपने बच्चों को कहानियां सुना-सुनाकर और अपनी बातें कह-कहकर कुछ ऐसा रच गए, जो खूबसूरत लगने लगे। मेरे कहने का मतलब यह कि महिलाएं कभी और किसी भी हालत में अपने बच्चों की बातें नहीं भूलतीं।
( कोलकाता से दीपक रस्तोगी के साथ बातचीत पर आधारित।)