इस बर्फीले रेगिस्तान के एक नए पर्यटनस्थल के रूप में उभरने के बावजूद भी एक पर्यटनस्थल के लिए जिस ढांचे और व्यवस्थाओं की आवश्यकता होती है उसकी आज भी लद्दाख में कमी है। नियमित वे अतिरिक्त उड़ानों की कमी इसमें सबसे बड़ी है। जहां तक पहुंचने के लिए सड़क मार्ग भी है जिसकी यात्रा अत्याधिक रोमांचकारी तो है ही लेकिन कुछ समय तक उसका करीब 20 किमी का भाग सीधे पाक तोपों की मार में होने के कारण यह किसी मौत से कम नहीं माना जाता था।
एक खास बात इस पर्यटनस्थल के दौरे की यह है कि इसका दौरा करना आम स्वदेशी के बस की बात नहीं है। एक तो सड़क मार्ग की यात्रा भी महंगी होने तथा होटलों व अन्य प्रकार के मदों पर होने वाला खर्चा भी बहुत अधिक होने के परिणामस्वरूप एक आम आदमी इसके दौरे पर नहीं आ सकता। पिछले छह सालों के भीतर आने वाले पर्यटकों के आंकड़ें इस बात की पुष्टि करते हैं कि इन छह सालों में मात्रा 40 हजार स्वदेशी ही लद्दाख के दौरे पर आए थे और वे भी सुविधा संपन्न परिवारों के थे।
विदेशियों के कारण लद्दाख की संस्कृति और सुरक्षा खतरे में....
माना कि लद्दाख आज विदेशियों के लिए एक रोमांचकारी पर्यटनस्थल बना है लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि लद्दाख की कला और संस्कृति का दोहन और बलात्कार आज इन्हीं विदेशियों द्वारा किया जा रहा है जिनकी संस्कृति को अपनाने वाले आम लद्दाखी अपनी सभ्यता और संस्कृति को भुलाते जा रहे हैं।
38 वर्ष पूर्व जब लद्दाख को विदेशियों के आवागमन के लिए खोला गया था तो कोई भी लद्दाखी बाहरी दुनिया के प्रति जानकारी नहीं रखता था और आज विदेशी संस्कृति का इतना गहन प्रभाव है इस पर कि जिस लद्दाखी संस्कृति के दर्शानार्थ विदेशी आते हैं उन्हें वह दिखती ही नहीं है।
इस सांस्कृतिक घुसपैठ ने न सिर्फ स्थानीय संस्कृति व सभ्यता को ही खतरे में नहीं डाला है बल्कि उन बौद्ध मंदिरों तथा अन्य एतिहासिक धरोहरों को भी खतरा पैदा कर दिया है जो लद्दाख की पहचान माने जाते हैं। इतना ही नहीं विदेशियों के आवागमन ने देश की सुरक्षा पर भी प्रश्नचिन्ह लगाया है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि सभी जानते हैं कि यह क्षेत्र दो ओर से पाकिस्तान तथा चीन की-सीमाओं से घिरा हुआ है और इनमें से पाकिस्तान की सीमा तो ऐसी है जो साढ़े पांच साल पहले तक हमेशा आग उगलती रहती थी। जबकि विश्व के सबसे ऊंचे युद्धस्थल सियाचिन का आधार शिविर भी लेह ही है।
इन सबके बावजूद लद्दाख को एक नए रोमांचकारी पर्यटनस्थल के रूप में ही नहीं बल्कि पारिस्थितिकी पर्यटन के रूप में भी पेश किया जा रहा है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पेड़-पौधों के अतिरिक्त कई कीमती व दुर्लभ जीवों के साथ-साथ कई दुर्लभ पेड़-पौधे आज तस्करी के माध्यम बने हुए हैं।
सारे संदर्भ में एक गंभीर तथ्य यह है कि सरकार इस क्षेत्र को पर्यटनस्थल के रूप में उभारने में तो जुटी हुई है लेकिन उसने उन सुविधाओं को उपलब्ध करवाने की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया जिनकी एक पर्यटक को आवश्यकता होती है। यही नहीं एतिहासिक धरोहरों आदि को बचाने का प्रयास भी नहीं किया जा रहा है जो आने वाले हजारों पर्यटकों के कारण खतरे में पड़ती जा रही हैं।