हे पड़ोसी...अपने बच्चों को इतना बर्बर मत बनाओ कि....

स्मृति आदित्य
एक चिट्ठी पाकिस्तान के नाम... 

प्रिय पाकिस्तान, 
 
तुम नहीं मानोगे यह हम जानते हैं पर कहना बस इतना है कि जो विष की बेल तुमने रोपी है उसके फल यहां आयात करने से हमारा सिर्फ कुछ ही नुकसान होगा लेकिन याद रखो कि तुम्हारी सारी जमीन जहरीली होकर तुम्हारे हाथ से निकल जाएगी...कुछ नहीं बचेगा फिर तुम्हारे पास ना संस्कृति ना विरासत. .. क्योंकि जिन हाथों में इन्हें सुरक्षित रहना है उन्हीं हाथों के नाखून तीखे करने में तुम मशगूल हो... तुम जानते हो, बहुत अच्छे से जानते हो कि किसी भी देश के युवा उसकी पहचान होते हैं। उसकी ताकत और सहारा होते हैं क्योंकि वही आगे चलकर उस देश की बागडोर थामता है.. 

किसी ने कहा है ना कि अगर किसी देश पर तुम्हें राज करना है तो उस देश का युवा तबाह कर दो.. उस देश की संस्कृति नहीं बचेगी और फिर उस पर आसानी से राज किया जा सकता है लेकिन तुम तो खुद अपने युवाओं को बर्बाद कर अपनी ही जड़ों में छाछ डाल रहे हो...हम तुम्हें आतंकवादी देश नहीं कहते पर तुम्हारी जमीं पर आंतकवादी हैं यह तुम भी अच्छी तरह से जानते हो, मानोगे नहीं यह हम जानते हैं... 
 
20 साल की उम्र भी कोई उम्र होती है.. इतने खतरनाक हथियार, इतने जहरीले विचार. ..काश कि इस युवा शक्ति का इस्तेमाल तुमने किसी रचनात्मक कार्य में किया होता। काश कि इस मिट्टी के मन पर कोई सुंदर सी छवि गढ़ी होती। आज तुम्हारी पहचान ही कुछ और होती... तुम्हारी समस्याएं भी वह नहीं होती जो आज हैं। ना वह पेशावर का कांड होता ना आए दिन की हिंसक झड़पें तुम्हारी सुर्खियां बनती...  
 
दूसरे मुल्क के अपराधियों की पनाहगार बनाते-बनाते तुमने अपनी जमीन को ही अपराधों की जन्मस्थली बना लिया...कब समझोगे तुम, कि हमारी साझी विरासत है, हमारा साझा इतिहास है, हम एक सी बोली और एक सी तहज़ीब के साथ, एक साथ अलग हुए हैं। कुछ तुम्हारे पास रह गया है, कुछ हमारे पास...नानक साहिब और लव-कुश का बसाया लाहौर तुम्हारे हिस्से आया... अजमेर शरीफ और ताजमहल यहां रह गए... हमने कभी नुसरत को अपने से अलग नहीं माना तुम कभी रफी को पराया नहीं मान सकते...हमारे लिए नूरजहां का शहद कीमती है और लता की मिठास के तुम भी कायल हो... यह सूची अंतहीन है इसलिए... यह भावुकता फिर कभी... 
 
फिलहाल तो इतना समझ लो कि जो पकड़ा गया है उस पर फांसी के वक्त दया मत करना, दया ही करना हो तो इतनी दया करना कि किसी बच्चे के हाथों में हथियार मत देना...चाहे वह किसी भी जमीन पर पैदा हुआ हो ...किसने हक दिया है तुमको उसका बचपन बर्बाद करने का, उसकी ऊर्जा को विंध्वंसकारी बनाने का? जब वह फांसी तक पहुंचेगा तब खूब दर्द उमड़ेगा लेकिन तब क्यों नहीं जब उसकी सोच, उसकी जिंदगी में खतरनाक इरादे बोए जा रहे होंगे... और वे लोग जो किसी फांसी पर अपने गुस्से को काबू में नहीं रख पाते उनसे कहना है कि गुस्सा करना है तो उन खौफनाक दिमागों पर करों जो मासूम और कच्ची उम्र के मस्तिष्क में जहर घोल रहे हैं। एक अच्छी खासी जिंदगी जीने का हक छीन रहे हैं... फांसी देने से कहीं ज्यादा अमानवीय है एक भोले बच्चे को आतंकवादी बना देना.....
 
जिस उम्र में उसे शिक्षा, ज्ञान और संस्कार के मोती सहेजने हैं उस उम्र में तुम उसे वह पकड़ा रहे हो जिसका परिणाम सिर्फ और सिर्फ मौत है...
 
जिसे इंसानों को मारने में 'मजा' आए उसे 'इंसान' कैसे माना जाए....यह इंसानियत नहीं हैवानियत है और बर्बरता का यह सबक तुम्हें ले डूबेगा...
 
मुझे तो अपने देश के उन तथाकथित बुद्धिजीवियों,फांसी देते समय मानवाधिकार का बिगूल बजाने वालों से भी पूछना है कि तब क्यों खामोश हो जाते हैं जब किसी देश में बचपन और जवानी को आंतकी गतिविधियों में झोंक कर तबाह कर दिया जाता है.... एक बार की फांसी से कहीं अधिक घातक और मर्मांतक है किसी सोच का विकृत कर देना...  

आतंकवाद के आकाओ... कसाब, नावेद, कासिम, उस्मान.. इन नामों के अर्थ ही जान लो तो शायद इन्हें आतंकवादी बनाने की तुम्हारी  हिम्मत ना हो.... 
 
समझ जाओ, बदल जाओ, हमारे अशांत और अशांति फैलाने वाले पड़ोसी... कहते हैं ना कि मित्र बदला जा सकता है पड़ोसी नहीं...इसलिए तुमको अपने कर्मों को बदलना होगा... सोच और समझदारी में बदलना होगा...मत खुद को तबाह करों खुद के ही बच्चों को छलकर....प्रिय पड़ोसी...अपने बच्चों को इतना बर्बर मत बनाओ कि....एक दिन वह तुम्हारे समूचे मुल्क के खून का प्यासा हो जाए....

तुम्हारा .... क्या कहूं... 

पड़ोसी होने की गरिमा तुम जानते नही, बड़ा भाई तुम मानोगे नहीं, मित्र कहते हुए जबान लड़खड़ाती है.... 

भारत... 
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