जब ठिठक कर प्रकृति ने रोक लिया हमें : एक खूबसूरत संस्मरण

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शुचि कर्णिक 
 
यात्राएं लुभाती हैं। सफर सिखाता है, और घुमक्कड़ी में है निर्मल आनंद। चाहे बेवजह हो, मंज़िल की चाह भी न हो पर अनुभव का घड़ा तो भर ही जाता है। अक्सर सुखद होती हैं यात्राएं। भीतर की ओर हों तो खुद को खोजने में मदद करती हैं और बाहर की तरफ हों तो दुनिया खंगालती हैं। 
 
गौरतलब यही है कि सफर में जहां-तहां अनमोल ख़जाने बिखरे पड़े हैं। प्रकृति के ख़ूबसूरत नजारों की शक्ल में या दुनियावी रिश्तों की सौगात के रूप में। और जब कभी ऐसी किसी यात्रा से घर लौटते हैं तो अपने साथ ले आते हैं सफर की गर्द, कुछ सुहानी यादें,चंद नायाब नसीहतें,कुछ मज़ेदार किस्से और कई अनमोल दोस्त।
 
ऐसे ही एक रोज़ हम कुछ साथी मंजिल की जुस्तजू  मन में लिए घर से चले, हमारी मंजिल थी मेहंदी कुंड। यह वाकया लगभग दो दशक से कुछ पहले का है जब हमें यूथ हॉस्टल के लोकल ट्रैक के तहत मेहंदी कुंड जाना था। ट्रैक अलसुबह शुरू होना था इसलिए रात से ही  हमने तैयारियां शुरू कर दी थीं। अगले दिन सुबह हम दुपहिया वाहनों पर इंदौर से महू के लिए रवाना हुए। 
 
यहां एक चाय टपरी पर शुरुआती जान पहचान और खूब छक कर नाश्ता करने के बाद हम दो टोलियों  में बंट गए। अपने टीम लीडर निखिल की अगुवाई में हम नखेरी डैम पहुंचे। यहां से शुरू हुआ हमारा चौदह किलोमीटर का पैदल ट्रैक।
 
आइए अब हम आपको कदम दर कदम जंगल की पगडंडियों की सैर करवाते हैं। शहर की भागदौड़ से दूर सुकून और प्रकृति के करीब जाने की ललक के साथ हम आगे बढ़ते चले। हम कुछ ही कदम चले थे कि निखिल ने हमें रास्ते के एक तरफ बुलाया जहां एक बड़ा सा कुआं पेड़ की शाखाओं से आच्छादित था। इन्हीं शाखाओं से बया के कई घोंसले लटक रहे थे।  

 
मानो प्रकृति ने अपने विशाल घर की आंतरिक सज्जा की हो। यूं ही प्रकृति की छटा निहारते कुछ और रास्ता तय किया।  कुछ साथी अचानक रुक गए, जंगली रास्ते में अचानक  कदम थम जाने से मन थोड़ा आशंकित हुआ,पर जल्द ही हम ख़ुशी से चहकने लगे, जब हमने बहुत आकर्षक महलनुमा संरचना देखी जो दरअसल दीमकों का घर था। 
 
उस समय मोबाइल फोन और बहुत अच्छे कैमरा ना होने का अफसोस ज़रूर हुआ, पर हमने जी भर कर इन दृश्यों को अपनी आँखों में कैद कर लिया। अब ये दृश्य हमेशा के लिए हमारे स्मृति पटल पर दर्ज हो गए।
 
गांव की पगडंडियों और जंगल के अनदेखे नजारों का आनंद उठाते हुए जब यह सिलसिला थमा तब हमने देखा दूसरा दल दिखाई नहीं दिया, शायद हम कोई पगडंडी चूक गए थे,खैर कहीं तो पहुंचना ही था। अलबत्ता यह मेहंदी कुंड नहीं था, पर इतना रास्ता तय करने के बाद क्या फर्क पड़ता है कि वो क्या जगह थी। 
 
यूं भी बारिश के बाद इस क्षेत्र में कई मनमोहक झरने फूट पड़ते हैं और मनोरम दृश्यावली रचते हैं। 
बातों और किस्सों का सिलसिला जब थमा तो मंज़िल पर न पहुंच पाने का मलाल किसी को भी न था।
यात्रा जीवन की किताब का सबसे खास पन्ना है। 
 
सफर कितना ही सुहाना हो और मंजिल कितनी ही हसीन घर तो लौटना ही होता है। इस पूरे ट्रैक के आख़री छोर को छूने के बाद यही कहा जा सकता था कि इंसान अक्सर मंज़िल पर पहुंचने की जल्दबाज़ी में रास्ते की खूबसूरती को दरकिनार कर देता है। 
 
आज भी ज़ेहन में ताज़ा है वो ट्रैक,कुछ अनजाने रास्ते और चंद साथी जिनसे अब गहरा जुड़ाव हो गया है। यही है सफ़र की सौग़ात और शायद ज़िन्दगी का मज़ा भी। देखिए किसी शायर ने यही कहा है-
 
अंदाज़ कुछ अलग ही है मेरे सोचने का, 
सब को मंज़िल का शौक़ है, मुझे रास्ते का।
 
चित्र सौजन्य : निखिल

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