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प्राणरत्न : बक्सवाहा को स्वाहा करने की तैयारी

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
मनुष्य कितना कृतघ्न और निर्मम है,यह देखना हो तो कटे हुए वृक्षों और वीरान प्रकृति को देखकर सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है। विकास की अन्धाधुन्ध दौड़ में प्रकृति के साथ अप्रत्याशित और अवांछनीय छेड़छाड़ कर उसके स्वरूप को विनष्ट कर रहा है।

पर्यावरण संरक्षण के लिए गठित मन्त्रालयों, संगठनों और संस्थानों ने जिस प्रकार से कागजी फाईलों में पर्यावरण संरक्षण किया है, उसे देखकर कोई भी आश्चर्यचकित हो जाता है। हम सनातनी भारतीय जो प्रकृति पूजक के रुप में सदा से जाने जाते रहे हैं। उसे हमने अन्धानुकरण और सरकारी तन्त्र के व्यूह में खत्म कर दिया। इस समय देश में चर्चा में छतरपुर का बक्सवाहा का जंगल है। जहां हीरों के उत्खनन के लिए लगभग 382.131 हेक्टेयर क्षेत्र के जंगलों को नष्ट कर लाखों प्राणदायक वृक्षों को मौत की नींद सुला दिया जाएगा।

कमलनाथ सरकार ने दो वर्ष पहले आदित्य बिड़ला ग्रुप के एस्सेल माइनिंग एण्ड इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड को हीरा भंडार वाली 62.64 हेक्टेयर ज़मीन को 50 साल के लिए लीज पर दे दिया था, जिसको वर्तमान शिवराज सरकार मूर्तरूप देने जा रही है। वहीं कम्पनी के द्वारा मुंह मांगे वनक्षेत्र को राज्य सरकार राजस्व प्राप्ति के लिए देने का मन बना चुकी है। इसी बीच बड़ामलहरा विधायक प्रद्युम्न सिंह लोधी का अजीबोगरीब बयान भी आ गया है और वे यह कह रहे हैं कि यह विकास के लिए किया जा रहा तथा सरकार को पन्द्रह करोड़ रुपये की राशि कम्पनी ने पूर्व में पौधरोपण के लिए दे दी है। सरकार और उसके प्रतिनिधियों की ओर से आ रहे ऐसे बयानों और सत्ता के मुखियाओं की चुप्पी को देखकर ऐसा लगता है जैसे कि प्रदेश सरकार ने कम्पनी के साथ वनक्षेत्र का सफाया करने की पूरी योजना बना ली है। इसके लिए सरकार ने मध्यप्रदेश शासन के राजस्व क्षेत्र की बक्सवाहा में इतनी ही जमीन पर प्रति हेक्टेयर की दर से एक हजार पौधे रोपने की बात कही जा रही है।

वनविभाग के आंकलन के अनुसार अनुमानतः दो से ढाई लाख वृक्षों को काटना पड़ेगा,जबकि वहां वृक्षों की वास्तविक गणना हुई ही नहीं है। सम्भव है कि आंकड़ा कहीं और अधिक हो, साथ ही वनविभाग के अधिकारियों का एक अन्य दावा यह भी आ रहा है कि वहां निवासरत जानवरों के बारे में कोई जानकारी नहीं है। जबकि स्थानीय निवासियों के अनुसार वनक्षेत्र में भालू, तेन्दुआ, हिरण और नीलगाय, बाज, मोर के स्थायी आवास हैं। सरकार और अधिकारियों की गोलमोल बातों और दावों को सुनकर लगता है, जैसे ये वाकई इतने अनभिज्ञ हैं कि इन्हें वनक्षेत्र की सामान्य समझ नहीं है। जबकि एक चरवाहा भी वनक्षेत्र के बारे में इतनी सटीक जानकारी तो रखता ही है कि जंगल वन्य प्राणियों के प्राकृतिक आवास होते हैं,जहां कुछ वन्य प्राणी सहज ही दृष्टिगत होते हैं तो कुछ नहीं दिख पाते।

पता नहीं बक्सवाहा में बड़े जानवरों के अलावा अन्य कितने छोटे जानवरों का निवास है? इतना ही नहीं जलचर, थलचर और नभचर पशु-पक्षियों की कोई विशेष जानकारी नहीं है। बक्सवाहा के जंगल को नष्ट करने से पता नहीं वन्य प्राणियों की कितनी ही प्रजातियां आवास न होने की स्थिति में मौत की नींद सो जाएंगी। सरकार कुछ जानवरों के विस्थापन की बात करती है, लेकिन क्या यह सम्भव है कि वनक्षेत्र में निवासरत जलचर-थलचर और नभचर सभी पशु-पक्षियों का शत-प्रतिशत विस्थापन संभव हो पाए। सम्भवतः सरकार और प्रशासन तन्त्र यह भूल जाता है कि जंगलों के नष्ट होने से केवल वृक्षों को ही नष्ट नहीं किया जाता,बल्कि पूरे वनक्षेत्र के जीवन को मौत के घाट उतार दिया जाता है। जंगल की भी अपनी एक अलग दुनिया है,वहां उनका जीवन है।

सरकार को यह अधिकार किसने दे दिया कि- जब चाहें तब अपनी ताकत का प्रदर्शन करने और आर्थिक संसाधन जुटाने के नाम पर जंगल के जीवन को नष्ट कर देंगे? क्या प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने की कीमत मनुष्य ने नहीं चुकाई है, तब बार- बार इस प्रकार के अपराध क्यों किए जाते हैं? क्या हम आर्थिक स्वार्थपरता में इतने मदान्ध हो चुके हैं कि इतने व्यापक स्तर पर प्रकृति के साथ खिलवाड़ कर असंख्य निरपराध पशु-पक्षियों,वृक्षों के जीवन को नष्ट करने में एक बार भी नहीं सोचते हैं?

वृक्षों को काटने के लिए अन्य जगह कई गुना पौधे रोपित करने के नाम पर केवल कागजी पौधरोपण होता है जिसे राजनेताओं से लेकर अधिकारियों तक नोटों के बण्डलों पर उपहारस्वरूप परोस दिया जाता है। वर्षों से विकास कार्य के नाम पर वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई की जाती रही है चाहे व मार्ग चौड़ीकरण के नाम पर हो या खनिज खनन के नाम पर हो। फाइलों में लाखों पौधे लगवाए जा चुके होते हैं,लेकिन धरातलीय यथार्थ पर पौधों का नामोनिशान नहीं मिलता है। बहुत ज्यादा हुआ तो औपचारिकता पूरी करने के लिए न्यून मात्रा में पौधरोपण दर्शा दिया गया।

बाकी पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर बनी सरकारी संस्थाओं से लेकर गाहेबगाहे पर्यावरण की चिन्ता करने वाले तथाकथित समाजसेवीगण अपना-अपना हित साधकर अपनी निज तपस्या में लग जाते हैं। समाज के नाम पर तो हमने अपनी चेतना ही खो! दी है, हमें कभी यह महसूस ही नहीं होता है कि वन विनाश के कितने घातक परिणाम हमें भुगतने पड़ते हैं। इन हस्ताक्षेपों पर समाज की निष्क्रियता निश्चय ही प्रकृति के अपराधियों के हौसले बुलन्द करती है। वहीं जब समाज ने जागृति दिखाई है तो चिपको आन्दोलन ने सुन्दरलाल बहुगुणा जैसा योध्दा दिया है।  राजेन्द्र सिंह, अनुपम मिश्र, अनिल माधव दवे जैसे मनीषियों ने प्रकृति संरक्षण में अपना जीवन खपा दिया। विश्नोई समाज तो पौधों की जीवन रक्षा के लिए जाना ही जाता है। अमृता देवी विश्नोई का त्याग और बलिदान हर व्यक्ति के ह्रदय पर अमिट स्थान रखता है। उसी भाव-प्रण की आवश्यकता पुनः हमारे समक्ष आ चुकी है,क्योंकि अब लड़ाई प्रकृति पूजकों और प्रकृति भक्षकों के बीच की है।

राजनैतिक वर्ग और चुने हुए जनप्रतिनिधि तो बस अपनी कमाई का जुगाड़ लगाने पर लगे रहते हैं। उन्हें केवल इस बात से मतलब है कि उनके खाते में राशि की संख्या बढ़ती रही आए। चुनावों में प्रकृति संरक्षण-संवर्द्धन कोई मुद्दा ही नहीं है,सम्भवतः स्वातन्त्र्योत्तर भारत के अब तक के इतिहास में किसी भी राजनैतिक दल के घोषणा पत्र में पर्यावरण संरक्षण का एक भी बिन्दु समाहित ही नहीं हुआ है। सरकार को यह स्पष्ट समझना पड़ेगा कि प्रकृति प्रदत्त प्राणरत्न वृक्षों की कीमत पर हीरा बिल्कुल भी स्वीकार नहीं है। एक ओर सरकारें और पर्यावरण संरक्षण के लिए गठित संस्थाएं वृक्षारोपण, वन्य जीव संरक्षण सहित अनेकानेक प्रकल्पों की बातें करती हैं। पर्यावरण मन्त्रालय और राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण इसी के लिए बनाए गए, किन्तु जब वास्तविकता में प्रकृति को बचाने की बात आती है,तब सभी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। इन सभी के कृत्यों से ऐसा प्रतीत होता है जैसे पिछले दरवाजे से सभी की साझेदारी से वनविनाश की योजना को कार्यान्वित करवाया जा रहा है।

माना कि बक्सवाहा में अन्य घोषित जमीन पर पौधरोपण करवा दिया जाएगा, लेकिन इसकी क्या गारण्टी है शत-प्रतिशत पौधरोपण होगा? क्या वर्षों से खड़े विशालकाय वृक्षों का स्थान नवांकुर पौधे ले पाएंगें? याकि यह भी सम्भव है कि जितने पौधे रोपित किए जाएंगे, उतने पूर्णरूपेण तैयार होंगें? जरुरी यह भी नहीं है कि वह जमीन पौधों के अनुकूल हो। ऊपर से वन्य प्राणियों का क्या होगा?जब उनका शत-प्रतिशत विस्थापन सम्भव नहीं है, तब ऐसी परिस्थिति में व्यापक स्तर पर वन्य प्राणियों के जीवन पर संकट का जिम्मेदार कौन होगा? सरकारें जब विकास की बात करती हैं तब छतरपुर के पड़ोसी जिले पन्ना का हाल भी देखना चाहिए कि हीरा उत्पादन के लिए जहां खदानें हैं, उनका क्या हश्र है? चारो ओर वीरान और धरती माता का पूरा आंचल क्षत-विक्षत विद्रूप सा पड़ा हुआ है। जब कम्पनी वन विनाश करेगी तो क्षेत्र में अप्रत्याशित जलदोहन से लेकर पर्यावरण प्रदूषण का संकट भी उत्पन्न होगा,इस पर किसी की भी नजर नहीं जाती।

प्रदेश के मुखिया शिवराज सिंह चौहान इस समय पौधरोपण का अभियान अपने स्तर पर चला रहे हैं। जनसहयोग से वृहद पौधरोपण के लिए उन्होंने अंकुर कार्यक्रम की शुरुआत की है,जो कि प्रशंसनीय है। किन्तु बक्सवाहा पर उनका मौन समझ से परे है,यदि मुख्यमन्त्री संवेदनशील और पर्यावरण प्रेमी हैं तो उन्हें बिना किसी देरी के बक्सवाहा की लीज को निरस्त कर देना चाहिए। अन्यथा यह तो आईने की तरह स्पष्ट ही है कि वे केवल पर्यावरण प्रेमी होने का ढोंग रच रहे हैं। बाकी उनके पास सत्ता की लगाम है तो जब चाहें -जहां चाहें वहां पौधरोपण कर फोटो सत्र करवाएं। राज्य और केन्द्र सरकार को गहन निद्रा से जागना ही पड़ेगा और बक्सवाहा के जंगल को बचाना होगा।

समाज जाग चुका है और जाग रहा है समूचे देश में युवाओं से लेकर पर्यावरण चिन्तक विचारक,आमजन और विभिन्न प्रतिष्ठित व्यक्ति जंगल और प्रकृति को बचाने के इस अभियान में अपनी आहुतियां समर्पित करें। चाहे इसके लिए किसी भी प्रकार का बलिदान देना पड़ जाए,लेकिन बक्सवाहा को स्वाहा होने से हर हाल में बचाना होगा। राज्य के राजस्व में वृध्दि हो या न हो लेकिन बक्सवाहा के एक भी वृक्ष की हत्या नहीं करने दी जाएगी, सरकार यदि नहीं जागती तो जनता श्रध्देय सुन्दरलाल बहुगुणा को श्रध्दाञ्जलि देते हुए बक्सवाहा में पुनः चिपको आन्दोलन के लिए तैयार मिलेगी।

इस आलेख में व्‍यक्‍‍त विचार लेखक के निजी अनुभव और निजी अभिव्‍यक्‍ति है। वेबदुनि‍या का इससे कोई संबंध नहीं है।

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