बसंत पंचमी: बलिदान, भक्ति, शक्ति का स्मरण दिवस

डॉ. छाया मंगल मिश्र
वसंत पंचमी का पर्व भारतीय जनजीवन को अनेक तरह से प्रमाणित करता है। प्राचीनकाल से इसे जान और कला की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस माना जाता है।

जो जन भारत और भारतीयता से प्रेम करते हैं। वे इस दिन मां शारदे की पूजा कर उनसे और अधिक ज्ञानवान होने की प्रार्थना करते हैं। कलाकारों का तो कहना ही क्या? चाहे वे कवि हो या लेखक, गायक हो या वादक, नाटककार हो या नृत्यकार सब दिन का प्रारम्भ अपने उपकरणों की पूजा और विद्या-बुद्धि की अधिष्ठात्री मां सरस्वती की वंदना से करते हैं।

यह पर्व हमें अतीत की अनेक प्रेरक घटनाओं की भी याद दिलाता है। सर्वप्रथम यह हमें त्रेता युग से जोड़ता है। रावण द्वारा सीता के हरण के बाद श्रीराम उसकी खोज में दक्षिण की ओर बढ़े।

इसमें जिन स्थानों पर वे गये, उनमें दंडकारण्य भी था। दंडकारण्य का वह क्षेत्र इन दिनों गुजरात और मध्यप्रदेश में फैला है। गुजरात के डांग जिले में वह स्थान है, जहां शबरी मां का आश्रम था।

वसंत पंचमी के दिन ही रामचंद्र जी वहां आये थे। यहीं शबरी नामक भीलनी रहती थी। जब राम उसकी कुटिया में पधारे, तो वह सुध-बुध खो बैठी और चख-चखकर मीठे बेर राम जी को खिलाने लगी। प्रेम में पगे झूठे बेरी वाली इस घटना को रामकथा के सभी गायकों ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया।

उस क्षेत्र के वनवासी आज भी एक शिला को पूजते हैं जिसके बारे में उनकी श्रद्धा है कि भगवन श्री राम यहीं बैठे थे। मां शबरी का मन्दिर भी यहां है।

वसंत पंचमी हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत जी त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस (28.02.1899) भी रहा है। निराला जी के मन में निर्धनों के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा थी। वे अपने पैसे और वस्त्र खुले मन से निर्धनों को दे डालते थे। इस कारण लोग उन्हें 'महाप्राण' कहते थे।

एक बार नेहरूजी ने शासन की ओर से कुछ सहयोग का प्रबंध किया वह राशि उन्होंने महादेवी वर्मा को भिजवाई उन्हें डर था कि निराला जी उस राशि को भी निर्धनों में बांट देंगे।

वसंत पंचमी का लाहौर निवासी वीर हकीकत से भी गहरा संबंध है। एक दिन जब मुल्ला जी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर वह पढ़ता रहा। जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो दुर्गा मां की सौगंध दी। मुस्लिम बालकों ने दुर्गा मां की हंसी उड़ाई। हकीकत ने कहा कि यदि मैं तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूं, तो तुम्हें कैसा लगेगा? बस फिर क्या था, मुल्ला जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है।

फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची। मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी। आदेश हो गया कि या तो हकीकत मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा। हकीकत ने यह स्वीकार नहीं किया।

परिणामतः उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया। कहते हैं उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गई। हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं तो तुम अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी। कहते हैं कि शीश धरती पर नहीं गिरा वह आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया।

यह घटना बसंत पंचमी (23.2.1734) को ही हुई थी। पाकिस्तान मुस्लिम राष्ट्र है, पर हकीकत के आकाशगामी शीश की स्मृति में बसंत पंचमी पर आज भी पतंगें उड़ाई जातीं हैं। पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में होता है, क्योंकि हकीकत लाहौर निवासी था।

बसंत पंचमी हमें गुरु रामसिंह कूका की भी याद दिलाती है। उनका जन्म 1816 ई. में वसंत पंचनी पर लुधियाना के भैणी ग्राम से हुआ था। कुछ समय व रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गए। पर आध्यात्मिक प्रवृत्ति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे। धीरे-धीरे इनके शिष्यों का एक अलग पंथ  ही बन गया, जो कूका पंथ कहलाया।

गुरु रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उदार, अंतरजातीय विवाह सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे। उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्‍यवस्था चलाई थी। प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था।

1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया। उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूंस दिया। यह सुनकर गुरु रामसिंह के शिष्य भड़क गये। उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गई। अतः युद्ध का पासा पलट गया।

इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गए। इनमें से 50 को 17 जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के सामने खड़ाकर उड़ा दिया गया। शेष 18 को अगले दिन फांसी दी गई। दो दिन बाद गुरु रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया। 14 साल तक वहां कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया।

हम इन सभी की स्मृति को नमन करते हुए जिन्होंने बड़ी वीरता से अपने धर्म के लिए और निर्धनों, पीड़ितों के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी का स्मरण दोहराते हुए उत्साह से बसंतोत्सव मनाएं जो हमारे मन में उल्लास का संचार करता है।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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