धर्मरक्षक बिरसा मुंडा के जीवन के विविध पहलुओं को समझने की जरूरत

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
भारतीय इतिहास में विभिन्न कालक्रम में ऐसे-ऐसे महापुरुष, प्रवर्तक, समाज सुधारक, दैवीय अवतार हुए हैं, जिन्होंने सुप्त पड़ी भारतीय चेतना को जागृत कर धर्म की स्थापना और विकृतियों के उन्मूलन के लिए समाज को प्रेरित बस ही नहीं किया, बल्कि ऐसे श्रेष्ठतम मानक स्थापित किए हैं, जो इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों एवं लोक के अन्दर रच- बसकर सम्पूर्ण भारतीय समाज को आन्दोलित एवं पथप्रदर्शित करते रहेंगे।

राष्ट्र की सभ्यता, संस्कृति, धर्म पर जब-जब कोई संकट आया या कि कुठाराघात किया गया तब-तब समूचा भारतीय समाज भारतीय संस्कृति के मूल्यों को संरक्षित करने के लिए विभिन्न प्रकार की विविधताओं के बावजूद अपनी उस भारतीय ‘स्वत्व की आत्मा’ के केन्द्रीय तत्व को अपना मूल मानकर उठ खड़ा हुआ, जिससे भारतवर्ष के अजेय विराट स्वरूप का निर्माण हुआ।

भारतवर्ष की श्रेष्ठ परंपराओं एवं संस्कृति की जड़ों को सिंचित करने के लिए हमारे धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक अतीत को विश्वविजयी बनाने वाले ऋषि मुनियों ने अपनी मेधा के माध्यम से सर्वोत्कृष्टता के शिल्प में ढालकर सम्पूर्ण जगत के लिए ज्ञान के चक्षुओं को खोलने का महानतम कार्य किया था। बिरसा मुंडा भी अपने समय के उन्हीं अग्रदूतों में से एक थे, जिन्होंने भारतीय सनातन परंपरा को पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए छोटा नागपुर पठार के क्षेत्र में निवास करने वाले मुंडा समाज को संगठित कर उनकी अन्तरात्मा की ज्वाला की चिंगारी से स्वातंत्र्य, धर्मरक्षा की मशाल को प्रज्वलित करने का कार्य करते हुए अनेकानेक मुंडाओं के साथ अपनी आहुति दे दी थी।
प्रायः यह देखा गया है कि बिरसा मुंडा का जीवन चरित्र जितना ज्यादा व्यापक एवं समाज के साथ अन्तरंगता वाला है, उस अनुरूप उनके बहुआयामी जीवन के विभिन्न पक्ष मुख्य धारा के दृष्टिकोण में नहीं आ पाए।

उनके संघर्षों, कार्यों के विविध पक्षों के पूर्ण स्वरूप से ज्यादातर समाज अनभिज्ञ है। उनके जीवन के कई पहलुओं को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि एवं पाठ्यक्रमों से विलोपित कर दिया गया। इस प्रकार उनके संघर्ष एवं क्रांति के सम्पूर्ण वांङ्गमय से भारतीय समाज को परिचित न कराकर उन्हें एक पंक्ति में- आदिवासी नेता एवं ‘उलगुलान’ के दायरे में समेटने का कार्य किया गया है जो कि उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व एवं कृतित्व के साथ अन्याय तो है ही साथ ही यह भारतीय समाज को उनके महानायकों के गौरवपूर्ण ऐतिहासिक पृष्ठों से परिचित न कराने का योजनाबद्ध तरीके से किया गया षड्यंत्र हैं। क्योंकि जब बिरसा मुंडा के समूचे कृतित्व एवं जीवन संघर्ष को उध्दाटित किया जाता, तब यह भी दर्शाना पड़ जाता कि किसके विरुद्ध और किन परिस्थितियों में बिरसा मुंडा ने कौन-कौन से कदम उठाए थे।

जब इन पृष्ठों को पलटा जाता तब सहज ही उनकी धर्मनिष्ठा का संकल्प एवं अंग्रेजी मिशनरियों के कुत्सित कृत्यों का चिठ्ठा खोलना पड़ता। बस यही वह वजह रही कि इतिहासकारों (गल्पकारों) ने भारतीय इतिहास के महानायकों के जीवन संघर्ष को याकि एक पंक्ति में लिखा याकि उनके एक पक्ष को फौरी तौर पर दर्ज कर अपने एजेंडें को लेकर आगे चलते बने। किन्तु जो इतिहास लोक में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आता रहा उसे कैसे हटा पाते?  यही कारण है कि बिरसा मुंडा का सम्पूर्ण जीवन चरित्र भारतीय आदर्श के रुप में किताबों में न सही किन्तु लोक के ह्रदय में तो विद्यमान ही है।

क्या बिरसा मुंडा को किसी सीमित दायरे में समेट कर उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का मूल्यांकन करना चाहिए? बिरसा मुंडा को क्या हम जमींदारों एवं अंग्रेजों के विरुद्ध केवल जंगल-जमीन एवं वहां के संसाधनों के लिए संघर्ष करने वाले नायक के तौर पर ही देखना चाहते हैं? क्या बिरसा मुंडा का मात्र आदिवासी नेता के तौर पर ही स्मरण किया जाना चाहिए?

जब इन प्रश्नों की पड़ताल करते हैं तो हमें उनके अतीत के सारे पक्षों की ओर लौटना पड़ जाता है। जब सूक्ष्म दृष्टि से उनके जीवन के विभिन्न पक्षों का अध्ययन करते हैं और लोकश्रुति के माध्यम से बिखरे हुए तारों को एक-एक कर जुटाने लगते हैं, तब जो हम पाते हैं, उससे हम गर्व के साथ भर तो उठते ही हैं। साथ ही उनके जीवन के संघर्षों को हम भारतीय अतीत के महानायकों यथा- छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, वीरांगना लक्ष्मीबाई, सिक्ख गुरुओं की पंक्ति में खड़ा हुआ पाते हैं। जिस प्रकार इन महानायकों ने धर्मरक्षा के संकल्प एवं क्रांति का सूत्रपात किया था, उसी प्रकार बिरसा मुंडा का जीवनचरित है, इसलिए उन्हें किसी निश्चित परिधि में समेटकर नहीं बल्कि समेकित तौर पर विस्तृत तरीके से उनके कार्यों को देखना-समझना और जानना पड़ेगा।

बिरसा मुंडा को हमें धर्मरक्षक, क्रांतिवीर, आदिवासी नेता, भगवान, समाजसुधारक जैसे कई आयामों के अन्तर्गत देखना पड़ेगा। उनकी लड़ाई महज जंगल के संसाधनों पर मुंडाओं, वनवासी समाज के अधिकार के लिए जमींदारों एवं अंग्रेजी व्यवस्था के विरुद्ध ही नहीं थी बल्कि उनका संघर्ष धर्मान्तरण, धार्मिक एवं सांस्कृतिक अस्मिता, धर्मरक्षा व स्वायत्तता के लिए था। उन्होंने समूचे मुंडा समाज को संगठित कर योजनाबद्ध तरीके जमींदारों, अंग्रेजी शासन एवं ईसाई मिशनरियों से लड़ाई लड़ी। हमें इस बात पर गंभीरता के साथ चिन्तन-मनन करना पड़ेगा कि आखिर एक चौदह वर्षीय बालक जिसके पूरे परिवार का ईसाइयत में धर्मान्तरण हो चुका था। जब उसके स्कूल में उसके धर्म एवं समाज को अपमानित किया जा रहा था, तब उसके अन्दर प्रतिशोध की आग कैसे जली? वह आखिर क्या था जिसके चलते धर्मान्तरित होने के बावजूद उसके द्वारा अपने धर्म एवं समाज को अपमानित होते हुए नहीं देखा जा रहा था?

वह कौन सा हेतु या तत्व था? जिसके कारण उसने अपने स्कूल के ईसाई शिक्षकों के विरुद्ध प्रतिकार का रास्ता अपनाया। वह उसके अन्दर का वह तत्व था जिसे उसके पुरखों ने उसके संस्कारों के माध्यम से संचारित किया था, और जब उसके उस स्वाभिमान एवं धर्मतत्व पर ईसाइयों ने घात किया तब उसकी अन्तरात्मा की आवाज ने उसे उसके मूल का स्मरण करवाया और फिर बिरसा मुंडा षड्यंत्रों के व्यूह को भेदने के लिए उठ खड़े हुए तो आजीवन धर्मरक्षा के पथ से नहीं डिगे।

चौदह वर्षीय बिरसा मुंडा ने अंग्रेजी शासन एवं ईसाई मिशनरियों की कुटिलता के लिए कहा था, ‘साहेब-साहेब एक टोपी है’ अर्थात् ईसाई मिशनरी जो धर्मान्तरण में लगी है और अंग्रेजी शासन जो जमींदारों के साथ मिलकर वनसंसाधनों को छीनकर उनका जीवन जीना मुश्किल कर रहे हैं, वे दोनों एक ही हैं। दोनों का उद्देश्य वही है दमन और उनकी धार्मिक पहचान छीनना।

बिरसा मुंडा जिन्होंने धर्मान्तरित मुंडा समाज की व्यापक स्तर पर पुनः सनातन हिन्दू धर्म की शाखा-वैष्णव धर्म में वापसी करवाई और धर्मान्तरण के विरुद्ध जनजागरण चलाते हुए अपने धार्मिक आचरणों एवं उपासना पध्दति के प्रति निष्ठावान एवं पालनकर्ता होने का कार्य कराया। बिरसा मुंडा ने समूचे मुंडा समाज को तुलसी पूजा, गौ-रक्षा, गौहत्या पर रोक, मांसाहार त्याग, स्वच्छता, शुध्दता, सात्विकता, धार्मिक एवं पौराणिक ग्रंथों के अध्ययन, कथाओं के श्रवण, गीता पाठ एवं देवी-देवताओं की उपासना करने की जीवनशैली को अपनाने पर जोर देते हुए धार्मिक एवं सामाजिक गौरव को प्रतिष्ठित करने का आह्वान किया।

उनका एक दैवीय एवं चमत्कारिक अवतार के तौर पर स्थापित होना कोई साधारण बात नहीं थी, बल्कि इसके पीछे उनके असाधारण कार्य थे जिसके चलते समूचे मुंडा समाज में जागृति, धार्मिक सुव्यवस्थित जीवनशैली का सूत्रपात तो हुआ ही साथ ही विभिन्न बीमारियों से रक्षा के लिए बिरसा मुंडा ने जो उपाय बतलाए उससे मुंडा समाज सशक्त हुआ।

उन्हें उनके संसाधनों के अधिकार दिलवाए व उनके मूलस्वरूप को पुनर्जीवित-पुनर्प्रतिष्ठित करने का अतुलनीय साहसिक कार्य किया। अब ऐसे में उन्हें भगवान का दर्जा देना कोई बड़ी बात नहीं है, क्योंकि जो जीवन का उत्थानकर्ता होता है वही हमारा ईश्वर होता है तथा उसमें ईश्वरीय अंश ही होता है जो जीवन को अनगढ़ से सुडौल स्वरूप में गढ़ता है। बिरसा मुंडा के अनुयायी ‘बिरसाइत’ कहलाए जो हिन्दू जीवनादर्शों के प्रचारक के साथ-साथ ‘शस्त्र-शास्त्र’ शिक्षण की भारतीय सनातनी परंपरा को प्रसारित किया। बिरसा मुंडा ने बिरसाइतों के ‘पुराणक’ (गृहस्थ एवं शस्त्रात संग्रह करने वाले), ‘नानक’ (प्रेरक,प्रशिक्षक) का गठन किया।

बिरसा मुंडा ने अपने पूर्वजों की राजधानी नवरतनगढ़ से मिट्टी, पानी लाए, तो चुटिया के मन्दिर से तुलसी के पौधे, जगन्नाथपुर के मन्दिर से चन्दन लाए और समूचे मुंडा समाज को अपने प्रतीकों, मूल्यों, आदर्शों को संजोने का संकल्प लेकर अंग्रेजों, ईसाई मिशनरियों, जमींदारों के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा खोलकर उनका संहार किया। 24 दिसंबर 1899 को उलगुलान! क्रांति का उनका यह नारा-

हेन्दे राम्बडा रे केच्चे केच्चे-पुण्ड्रा राम्बडा रे केच्चे-केच्चे अर्थात्- काले ईसाइयों को काट दो- गोरे ईसाइयों को काट दो।

क्या यह नारा धर्मांतरण की क्रूरतम त्रासदी के विरुद्ध प्रतिशोध एवं प्रतिकार की हुंकार नहीं थी? उनका यह नारा, नारा ही नहीं बल्कि उनके ह्रदय का वह ज्वार था जो अंग्रेजों,  ईसाई मिशनरियों, जमींदारों के दमन एवं धर्मान्तरण के षड्यंत्र के कारण उत्पन्न हुआ।

अंग्रेजी सरकार ने बिरसा मुंडा के प्रति दमन, बर्बरता सहित छल की नीतियां अपनाई। 19 नवम्बर 1895 को उन्हें हजारीबाग कारावास में बन्द कर पागल घोषित करवाया तथा भीषण यातना देते हुए मुंडा समाज के सामने उनकी प्रदर्शनी लगाकर शेष मुंडा समाज का उनके प्रति विश्वास खत्म करने और अपना भय स्थापित करने के लिए उन पर अत्याचार किए गए। किन्तु अंग्रेजो की भीषण यातनाएं भी बिरसा मुंडा को न तोड़ सकी और न ही उनके अन्दर के स्वाभिमान, धर्मरक्षा के अखंड संकल्प को दबा पाए।

बिरसा मुंडा जब 30 नवम्बर 1897 को जेल से छूटे तो उन्होंने मुंडाओं के अन्दर उस बीज को रोपने का कार्य किया जिसमें प्रत्येक मुंडा-एक बिरसा मुंडा ही बने तथा अपने दृढ़ निश्चय, क्रांति, धर्मरक्षा के पथ से कभी न हटे जिसका मुंडाओं ने पालन भी किया। बिरसा मुंडा ने 8 जनवरी 1899 को डोम्बारी पहाड़ में हजारों मुंडाओं को संगठित कर ‘बीरदाह’ (पवित्र जल) से दीक्षित कर अपनी क्रांति का बिगुल फिर फूंका और क्रमशः करके अंग्रेजी थानों और शासन को वीर मुंडाओं ने नष्ट कर दिया। किन्तु अंग्रेजों की ओर से तोप, बन्दूकों, बारूदी गोलों का सामना भाला, तीर-कमान ज्यादा समय तक नहीं कर पाए।

हजारों मुंडाओं को अंग्रेजों ने मौत की नींद सुला दी जिसमें बच्चे, बूढ़े, नौजवान, महिलाएं सभी शामिल थे। षड्यंत्रपूर्वक बिरसा मुंडा को अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर जेल में उन्हें मर्मान्तक यातनाएं दी और अन्त में ‘एशियाटिक हैजा’ का प्रपंच रचते हुए 9 जून 1900 को उनकी  कारावास में जहर देकर हत्या कर दी गई।
अंग्रेजों ने भौतिक तौर पर बिरसा मुंडा की हत्या भले कर दी रही हो लेकिन वे उस बिरसा मुंडा को नहीं मार पाए जिसने अपनी धार्मिक- सामाजिक, सांस्कृतिक एवं वन संसाधनों की स्वायत्तता की लड़ाई का बिगुल फूंका और मुंडा समाज सहित समूचे भारतवर्ष में क्रांति और धर्मरक्षा के लिए अडिग रहा।

बिरसा मुंडा वनांचलों में निवास करने वालों के साथ-साथ समूचे भारतवर्ष के लिए एक आदर्श जननायक के तौर पर स्थापित हुए तथा वे सभी को धर्मान्तरण के विरुद्ध संघर्ष और धर्मरक्षा का पथ प्रशस्त कर गए। बिरसा मुंडा का जीवन संघर्ष, वन संसाधनों की स्वायत्तता, धर्मरक्षा का व्रत, धर्मान्तरण के विरुद्ध की क्रांति जन-जन में सदा जागृत रहेगी। वे समूचे भारतवर्ष के लिए एक ऐसे महानायक के तौर पर जाने जाते रहेंगे जिन्होंने- राष्ट्र रक्षा समं पुण्यं,राष्ट्र रक्षा समं व्रतम्। राष्ट्र रक्षा समं यज्ञो,दृष्टो नैव च नैव च।। मंत्र को चरितार्थ करते हुए अपने जीवन की आहुति से राष्ट्र का पथप्रदर्शित एवं आलोकित किया है।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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