भव्य समारोह से भाजपा ने कई लक्ष्य साधे

अवधेश कुमार
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में योगी आदित्यनाथ और उनके मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण समारोह को जैसी असाधारण भव्यता प्रदान की गई वह यूं ही नहीं थी। पिछले कुछ वर्षों में अलग-अलग पार्टियां शपथ ग्रहण समारोह को भव्य स्वरूप प्रदान करने की कोशिश करती हैं।

प्रभावी संख्या में जनता की उपस्थिति भी हम लोग देखते रहे हैं। उत्तर प्रदेश के पूर्व पंजाब में भगवंत मान के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी सरकार का शपथ ग्रहण समारोह इसका प्रमाण है। अरविंद केजरीवाल स्वयं कार्यक्रम और मंच प्रबंधन के माहिर नेता हैं।

भगत सिंह के पैतृक गांव में आयोजित समारोह को उत्सव का रूप दिया गया और दिल्ली का पूरा मंत्रिमंडल, सारे विधायकों एवं अन्य नेताओं के साथ प्रदेश भर के कार्यकर्ता समर्थक भारी संख्या में उपस्थित रहे।

लेकिन योगी आदित्यनाथ के शपथ ग्रहण समारोह की व्यापकता, भव्यता और प्रभाविता के समक्ष यह कहीं नहीं ठहरता। वास्तव में अभी तक हुए मुख्यमंत्रियों के सारे शपथ ग्रहण समारोहों को याद करें तो लखनऊ के अटल बिहारी वाजपेई स्टेडियम का कार्यक्रम सबको काफी पीछे छोड़ गया।

यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि आखिर किसी मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह को इतना बड़ा स्वरूप प्रदान करने की आवश्यकता क्यों हुई? इसे फिजूलखर्ची मानने वालों की भी संख्या होगी। लेकिन भाजपा नेतृत्व ने ऐसा किया तो इसके इसके पीछे निश्चित कारण होंगे। तो क्या हो सकते हैं वे कारण?

ध्यान रखिए, विभिन्न क्षेत्रों के वे लोग, जिनके चेहरे जाने पहचाने हैं या जो जनता को किसी न किसी रूप में प्रभावित करते या कर सकते हैं, जिनके नाम, समुदाय या वर्ग से कुछ निश्चित संदेश निकलते हों उनमें से काफी लोग वहां उपस्थित थे।

अभिनेता, गायक, संगीतकार, खिलाड़ी, एक्टिविस्ट, संस्कृतिकर्मी आदि तो थे ही, पहली बार इतनी संख्या में उद्योगपति कारोबारी तथा साधु-संत उपस्थित थे। कह सकते हैं कि साधु-संत भाजपा की पहचान रहे हैं लेकिन इतने ज्यादा लोगों को इसके पहले किसी शपथ ग्रहण समारोह में नहीं बुलाया गया था।

उद्योगपतियों एवं कारोबारियों में तो वे ही शपथ ग्रहण में बुलाए जाते रहे जिनके व्यक्तिगत संबंध हो। इस मायने में योगी आदित्यनाथ का शपथ ग्रहण समारोह बिल्कुल अलग माना जाएगा। जाहिर है, संख्या के साथ व्यक्तित्व एवं उनके कार्यों, पेशे और विधाओं से भी स्पष्ट संदेश देने की रणनीति अपनाई गई।

वास्तव में पिछले वर्ष पश्चिम बंगाल में अपेक्षित सफलता न मिलने के बाद से विरोधियों ने ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की मानो अब भाजपा के सत्ता में रहने के दिन पूरे हो गए। ममता बनर्जी की तरह दूसरी पार्टियों ने भी अगर ठीक रणनीति बनाकर आप पर आक्रामक तरीके से चुनाव लड़ा तो भाजपा को पराजित किया जा सकता है। बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता एवं प्रशासन द्वारा संघ भाजपा कार्यकर्ताओं  और समर्थकों के विरुद्ध हिंसा से पार्टी के मनोविज्ञान पर नकारात्मक असर हुआ। साफ दिख रहा था कि भाजपा आक्रामक तरीके से उसका जवाब देने में सक्षम नहीं हो रही है। दूसरी ओर विरोधियों ने अगला लक्ष्य उत्तर प्रदेश को बनाया था।

संपूर्ण भाजपा विरोधी मतों का समाजवादी पार्टी के पक्ष में ध्रुवीकरण की रणनीति अपनाई गई। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को प्रमुख चुनौती देने का दावा करने वाली ममता बनर्जी तक भी 2 दिनोंके लिए वहां पहुंच गई। ऐसी कोई विर नहीं जिन्होंने उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा के पराजय की भविष्यवाणी न की। आरंभ में चुनाव में आगे दिख रही पार्टी के बारे में मीडिया से आ रही खबरें बता रही थी कि धीरे-धीरे चुनाव कठिन संघर्ष में परिणत होता जा रहा था।

पूरे देश के विरोधी किसी न किसी तरह भाजपा के पराजित होने की भविष्यवाणी करते रहे। इसी दौरान विपक्षी एकता की भी कवायदें हुईं। चुनाव अभियान के बीच ही तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव विपक्षी एकता की धुरी बनने के लिए अलग-अलग जगह जाने लगे।

सबकी नजर उत्तर प्रदेश पर थी। भाजपा को इसी वर्ष गुजरात जैसे महत्वपूर्ण राज्य के चुनाव का सामना करना है तथा अगले वर्ष मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे प्रदेशों के चुनाव है। कोरोना के प्रभाव ने भाजपा को कोई बड़ा आयोजन लंबे समय से करने नहीं दिया। कृषि कानून विरोधी आंदोलन को आधार बनाकर बनाए गए माहौल का भी भाजपा करारा प्रति उत्तर नहीं दे सकी थी। कोरोना काल के टूल किट को भी मिला दें तो कहना होगा कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व वाली भाजपा के अंदर अपने चरित्र के अनुरूप इन सबके सम्मिलित प्रत्युत्तर न देने की कथा लंबे समय से कायम थी। पूरे माहौल में ऐसा कुछ नहीं था जिससे भाजपा के समर्थक और कार्यकर्ताओं के अंदर उत्साह का संवेग पैदा हो सके।

उत्तर प्रदेश चुनाव परिणाम ने यह अवसर प्रदान किया जिससे वह एकबारगी शक्तिशाली तरीके से प्रतियोगिता दे सके तथा कार्यकर्ताओं और समर्थकों के अंदर उत्साह का संचार करने के साथ आम जनता की नजर में विरोधियों को कमजोर दिखा सके।

कहने की आवश्यकता नहीं कि इसमें भाजपा को व्यापक सफलता मिली है। महा विजय जैसे उत्सव के स्वरूप, भाजपा एवं सहयोगियों द्वारा शासित सभी प्रदेश के मुख्यमंत्रियों, हर वर्ग, पेशे, समुदाय के लोगों की भारी संख्या में उपस्थिति के माध्यम से उसने संदेश दिया है कि इस समय भारत में भाजपा ही एकमात्र दल है जो सर्वाधिक शक्तिशाली होने के साथ देश के सबसे ज्यादा क्षेत्रों तक विस्तारित है तथा सभी क्षेत्र के लोगों का इसके साथ जुड़ाव है।

दूसरे शब्दों में दूर-दूर तक आमने सामने कोई ऐसा दल है ही नहीं जो भारत के जनसांख्यिकीय, भौगोलिक, पेशावर, सांस्कृतिक सभी प्रकार की विविधताओं का प्रतिनिधित्व कर सकें। उद्योगपतियों एवं कारोबारियों के अंदर भी है भाव गहरा हुआ होगा कि उन्हें कोई पार्टी अगर खुलकर अपने बीच बुलाती है और महत्व देती है तो भाजपा ही है। यह सब किसी पार्टी को कितना सहयोग दे सकते हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं।

इनके अलावा योगी आदित्यनाथ संदर्भ में भी इसके मायने महत्वपूर्ण है। भाजपा और संघ उन्हें एक बड़े राष्ट्रीय व्यक्तित्व के रूप में उभारने के कोशिश करती रही है। भगवाधारी होने के साथ उनकी प्रशासनिक क्षमता तथा कानून और व्यवस्था को लेकर दृढ़ संकल्पित चरित्र को लगातार प्रचारित किया गया है।

कुछ हलकों से यह प्रचारित किया जा रहा था कि योगी को भाजपा चाहे जितना बड़ा बना दे, हिंदुत्व पर उनकी आक्रामकता के कारण उद्योग, व्यापार, अभिनय, संस्कृति, शिक्षा, साहित्य, विज्ञान, खेल आदि क्षेत्रों का बड़ा समूह उन्हें पसंद नहीं करता।

शपथ ग्रहण से बड़ा अवसर इसे गलत साबित करने का नहीं हो सकता। इन सभी क्षेत्रों से ऐसे लोगों की उपस्थिति से भाजपा ने संदेश दे दिया है कि योगी सर्व स्वीकृत नेता बन चुके हैं। अगर संत महात्माओं का उन्हें समर्थन है तो उद्योगपतियों, कारोबारियों, फिल्मी कलाकारों और खिलाड़ियों का भी। पार्टी एवं संघ परिवार के अंदर तो उन्हें व्यापक समर्थन है ही।

भाजपा के संदर्भ में इसके मायने कहीं ज्यादा गहरे हैं। वास्तव में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा तथा मोहन भागवत के नेतृत्व में संघ किस दिशा में आगे बढ़ रहा है योगी आदित्यनाथ को उसका समुच्चय प्रतीक के रूप में खड़ा किया गया है। देश में हिंदुत्व एवं राष्ट्रवाद को लेकर इस समय जैसा मुखर माहौल है वैसा लंबे समय से नहीं देखा गया। भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को इतना महत्व देकर इस व्यापक समूह को बताया है कि वह उनकी सोच के अनुसार ही आगे बढ़ रही है।

उस तरह के रंग-बिरंगे कार्यक्रम और भव्य तस्वीरों से जनता रोमांचित होती है। यह सच भी है कि आज भाजपा के अलावा किसी दल में ऐसे आयोजन की क्षमता नहीं बची है। ज्यादातर दलों की हैसियत नहीं कि इस तरह अनेक क्षेत्रों के प्रमुख लोगों को वे इतने कम समय में अपने समारोह में बुला सकें तथा इतना इतनी भारी संख्या के बावजूद वैसा व्यवस्थित और प्रभावी आयोजन कर सकें। ऐसे माहौल का चुनाव पर निश्चित रूप से असर होता है।
हां, राजनीति के दूसरे दलों के प्रमुख चेहरों की उपस्थिति नगण्य अवश्य थी।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का भाग होने के कारण वहां पहुंचे थे। राजनेताओं के बड़े चेहरों की अनुपस्थिति के भी अपने मायने हैं। भाजपा ने ही मीडिया को खबर दी कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने स्वयं अखिलेश यादव, मायावती, मुलायम सिंह आदि विपक्षी नेताओं को आने का निमंत्रण दिया था। वे नहीं आए। भाजपा की ओर से राज्य के बाहर के भी अलग-अलग दलों के कुछ नेताओं को निमंत्रण भेजा गया था। उन सबकी अनुपस्थिति से भाजपा को अपने अनुकूल यह संदेश देने में सफलता मिली कि उसके विरुद्ध सारे एकजुट हैं और उनकी विजय को पचा नहीं पा रहे। चूंकी उनकी क्षमता चुनाव में मुकाबला कर विजय पाने की है नहीं तो उन्होंने अघोषित रूप से कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया। हो सकता है भाजपा गाहे-बगाहे इसकी चर्चा करे। हम जानते हैं कि इस तरह की रणनीति भी बेअसर नहीं रह सकती।

इस तरह एक कार्यक्रम से भाजपा ने हमें लक्ष्य प्राप्त करने की कहानी कोशिश की। अपनी चुनावी संभावनाओं को सशक्त किया तो विचारधारा के पायदान पर भी उठाए जाने वाली आशंकाओं को ध्वस्त करने में काफी हद तक सफलता प्राप्त की है। योगी को सर्वाधिक महत्व मिलना अपने आप में इन दोनों लक्ष्यों पर स्पष्ट संदेश देना ही है।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया से इसका कोई संबंध नहीं है।)

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