मन की अभिव्यक्ति से मिलती है खुशी

प्रज्ञा पाठक
वर्षों बाद वो दोनों सखियां मिलीं। मन में भावनाओं का ज्वार। आंखें ख़ुशी के आंसुओं से सिक्त। जब परस्पर स्नेहालिंगन किया,तो दोनों को ऐसा लगा मानो समूची कायनात झूम उठी हो।
 
कुछ देर बाद जब वाणी मुखर हुई,तो इतने सालों का रुका भावावेग उमड़ पड़ा। पूरा दिन पंख लगाकर उड़ गया। लेकिन जब विदा की बेला आई,तो दोनों के मन हल्के थे क्योंकि भीतर संतोष का सुकून फैला हुआ था।
 
इस प्रसंग में जो बात रेखांकित करने लायक है, वो यह कि भावनाएं सदा अभिव्यक्ति चाहती हैं। जो अनभिव्यक्त रह जाये,वह घुटन बन जाता है और यही घुटन जीवन को एक त्रासदी बना देती है।
 
यदि समझाकर कहूँ,तो यह कि अपने परिजन,मित्र,पड़ोसी आदि जितने भी लोग आपके संपर्क-क्षेत्र में हैं, उनके मन को समय-समय पर अपनी भावना का स्पर्श देते रहिये। उनसे उनके स्वयं के विषय में पूछिए। उनकी इच्छाएं,सपने,सोच आदि सब चीजों में रुचि लीजिए। अपने बारे में भी उन्हें बताइए  ताकि उनका विश्वास आपमें विकसित हो और आपका मन भी अभिव्यक्ति पा सके।
 
कुल मिलाकर यह कि उनका मन आप पढ़ें और आपका मन वो जानें। इस परस्पर भावगत आदान-प्रदान के दो लाभ होते हैं-
 
1.भावनाओं की अभिव्यक्ति से मानसिक विरेचन हो जाता है,जिससे मन को शांति मिलती है।
2.इससे एक दूसरे को नैतिक सम्बल मिलता है।
 
भारतीय सन्दर्भों में यदि देखें,तो अनेक परिवारों में बेटियों को बोलने से रोका जाता है। उन्हें पतिगृह का भय दिखाकर समझाया जाता है कि वहां अधिक बोलने से तुम 'अमर्यादित बहू' कहलाओगी और कम बोलने से 'संस्कारशील।' नतीजा,विवाहोपरांत वे या तो मन में घुटती रहती हैं या फिर घर से बाहर अपनी भावाभिव्यक्ति के मार्ग खोजती हैं।
 
दोनों ही स्थितियां योग्य नहीं हैं। एक में जीवन बोझ बन जाता है तो दूसरे में सही अर्थों में 'परायों' द्वारा अनुचित लाभ उठा लिए जाने की सम्भावना बनी रहती है।
 
इसी प्रकार की समस्या बुज़ुर्गों के विषय में भी आती है। वे अपने जीवन भर की आपाधापी में अपने परिजनों के समक्ष जिन भावनाओं का यथोचित प्रकटीकरण नहीं कर पाते उन्हें अब व्यक्त करना चाहते हैं। साथ ही वृद्धावस्था की समस्याएं भी बताना चाहते हैं।
 
लेकिन बुज़ुर्गों को सुनना प्रायः कम पसंद किया जाता है क्योंकि उनके पास पर्याप्त समय होता है और संतानें काम से लदी-फदी। वे निरीह-से संतानों की बाट जोहते रहते हैं और संतानों को उनके पास बैठना समय का अपव्यय लगता है।
 
ऐसी दशा में जब 'घर' बुज़ुर्गों के लिए बेगाना हो जाये,तो वे या तो इस दुःख में और अस्वस्थ हो जाते हैं अथवा बाहर सुख की तलाश करते हैं।
 
बात का सार यह कि भावनाओं की अभिव्यक्ति सहज मानवसुलभ वृत्ति है। हम सूक्ष्मता से गौर करें तो पाएंगे कि जब भी हम अपना मन किसी 'अपने' के सामने खोलते हैं, तो एक अत्यंत सुखप्रदायक अनुभूति को जीते हैं। इसके विपरीत जब हमें अपने भावों को व्यक्त करने से रोका जाता है अथवा उनका उपहास किया जाता है,तो हम मन पर बोझ महसूस करते हैं।
 
अनभिव्यक्त भाव रह-रहकर मन में घुमड़ते रहते हैं... कंठ तक आते भी हैं, लेकिन भयवश वाणी उन्हें प्रतिबंधित कर देती है।फलतः जीवन कष्टमय बन जाता है।
 
वर्तमान युग वैसे ही भौतिक प्रगति की विवेकहीन दौड़ में सबसे आगे निकल जाने के तनाव से ग्रस्त है। जीवन को सुविधायुक्त सभी बनाना चाहते हैं, मन की शांति पर किसी का ध्यान नहीं है। ऐसे कठिन दौर में यदि दो घड़ी के लिए ही सही,हम अपने 'अपनों' का अन्तर्मन सुनें,समझें और अपनी हार्दिकता का समावेश उसमें कर दें,तो इस तनाव के बीच भी असली सुख और शांति को उपलब्ध किया जा सकता है।
 
दुनिया में जितने ग्रन्थ अब तक रचे गए,जितने व्याख्यान दिए गए,जितनी कलाकृतियां सृजित की गईं ,जितने स्मारक बनाये गए,वे सभी सम्बन्धित रचयिता की भावनाओं का ही तो प्रकटीकरण है। यदि ये समग्र रचना-संसार हमें आनंदित करता है, तो अवश्य ही भावाभिव्यक्ति का परस्पर आदान-प्रदान भी हमें आत्मिक तृप्ति की उस शीतल भूमि पर ले जायेगा जहाँ खड़े होकर हम अपने मानव होने को सार्थक भी करेंगे और निश्चित तौर पर गर्व भी महसूस करेंगे।

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