'धार्मिकता' के सार्थक मायने गढ़ें

प्रज्ञा पाठक
आम तौर पर धार्मिक रीति-रिवाजों का यथाविधि पालन सच्ची धार्मिकता माना जाता है। विभिन्न पर्व-उत्सव,व्रत-उपवास,तिथियां आदि को विधानपूर्वक मनाना और मानना धार्मिकता की उचित परिभाषा समझी जाती है।
 
परम्परावादी दृष्टि से देखें,तो यह सही भी है, लेकिन यदि हम इसमें कुछ व्यापकता का समावेश करें,तो इस विषय में एक अपेक्षाकृत रूप से अधिक मानवहितकारी दर्शन का विकास हो सकता है।
 
बात को समझाने के लिए स्वयं का ही उदाहरण दूं।
 
बाल्यावस्था में प्रातःकालीन पूजा में भगवान को पुष्प और चन्दन अर्पित करने का दायित्व मेरा हुआ करता था,जो बहुत प्रसन्न भाव से मैं पूर्ण करती थी। सांध्यकालीन आरती में सोत्साह भागीदारी करती थी। समय के साथ साथ अध्ययन के विस्तृत होते दायरों ने इस धार्मिकता को सीमित कर दिया और बाद में युवावस्था के युगीन जोश ने एक दौर में नास्तिक भी बना दिया था।
 
बहरहाल,अब कुछ निजी अनुभवों और कुछ दोनों परिवारों के संस्कारवश आस्तिक हूं,लेकिन नित्य का पूजा-पाठ,धूप-दीप,आरती-कीर्तन ,मंदिर-दर्शन और व्रत-उपवास से आज भी दूर हूं। ये सब निर्धारित अवसरों पर ही होता है और मन में इन्हें करने की इच्छा भी तभी जाग्रत होती है।
 
सच कहूं तो पिछले कुछ वर्षों से मेरी दृष्टि धार्मिकता को लेकर आम राय से सर्वथा भिन्न हो चली है।
 
मुझे महसूस होता है कि सच्ची धार्मिकता माता-पिता की सेवा करने में है, पतिगृह की समुचित देखभाल में है, यथाशक्ति मानवता के कल्याण हेतु कर्म करने में है।
 
भगवान की मूर्तियों के स्नान व श्रृंगार में वो संतोष कहां,जो बीमार या अशक्त माता-पिता की सांगोपांग सेवा में है? आरती या कीर्तन में वो आनंद कहां,जो अपने बच्चे को लोरी गाकर या कहानी सुनाकर सुलाने में है? व्रत-उपवास कर स्वयं को दिन भर भूखा मारने और आने वाले दो दिनों तक कमज़ोरी महसूस करने की थोथी धार्मिकता(मेरी दृष्टि में) पर स्वयं स्वस्थ रहकर वृद्ध सास-ससुर की सेवा करने का पुण्य भारी होता है। मंदिर जाकर भगवान की मूर्ति के समक्ष माथा टेकने से अधिक फलदायी जीवित माता-पिता का ख्याल रख उनकी आत्मा से निकले आशीष अपनी झोली में समेट लेना होता है।
 
नित्य एक या दो घंटे के पूजा-पाठ से बेहतर पीड़ित मानवता के लिए काम करना होता है।यदि हम प्रतिदिन कुछ समय कमज़ोर व बेसहारों के कल्याण पर व्यय करें,तो समाज का उत्थान ही होगा।
 
नियमपूर्वक दीया या अगरबत्ती लगाने में चूक भी जाएँ,तो कोई बात नहीं।लेकिन जीवन-सहचर के समक्ष नित्य अपने ह्रदय का स्नेह रुपी दीपक अवश्य प्रज्ज्वलित करें ताकि जीवन के संग्राम में उसका मन मजबूत और उत्साह से भरा रहे तथा उसका उन्नति-पथ सुगम हो जाये।
 
मेरे विचार से अपने परिवार,समाज और राष्ट्र के लिए कर्म और समर्पण ही सच्ची धार्मिकता है। जिस धार्मिकता का बहुसंख्य समाज पालन करता है, मैं ना तो उसका विरोध कर रही हूँ और ना ही उसे गलत ठहरा रही हूँ। ये आस्था से जुड़ा प्रश्न है और आस्था प्रत्येक व्यक्ति का निजी विषय होती है।
 
बेशक आप अपनी आस्था के साथ रहिये,लेकिन यदि उसे थोड़ा उदार,तनिक व्यापक,किंचित सार्वभौमिक बना लें,तो आपके साथ-साथ अनेक लोग सुखी होंगे।
 
ऐसा करना अंततोगत्वा इस विश्व के फलक पर भारतवर्ष की छवि को और उज्ज्वल करेगा क्योंकि किसी भी राष्ट्र की पहचान के घटकों में सर्वप्रथम वहां के नागरिकों का वैचारिक स्तर और आचरण ही होता है।
 
सच जानिए,अपनी धार्मिकता में कुछ बूंद ही सही,मेरी धार्मिकता को भी यदि आप मिला लेंगे,तो आत्मिक सुख की दिव्यता आजीवन अनुभूत करेंगे,जो तमाम दुनियावी सुखों से ऊपर है।
 

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