महाराष्ट्र में अब विधवा नहीं पोंछेगी सिंदूर, नहीं फूटेंगी चूड़ियां, टूटेंगी सिर्फ सदियों की बेड़ियां

डॉ. छाया मंगल मिश्र
महाराष्ट्र में कोल्हापुर जिले के हेरवाड़ जिले की पंचायत ने पति के बाद अपनाई जाने वाली (कु)प्रथाओं पर प्रतिबंध लगा दिया है। यह ग्राम विकास अधिकारी ‘पल्लवी कोलेकर’ और सरपंच ‘सुरगोंडा पाटिल’ की सराहनीय पहल रही। जिसको आदर्श मान कर महाराष्ट्र सरकार ने भी सभी पंचायतों को लागु करने का आदेश दिया।
 
वैसे औरतें कितनी ही पढ़-लिख जाएं, समझदार हो जाएं, मुख्तार बन जाएं, आत्मनिर्भर हो जाएं, बड़े-बड़े पदों पर आसीन हो जाएं वो क्या करेंगी/ क्यों करेंगी/ कैसे करेंगी/कितना करेंगी/कब करेंगी के सारे निर्णय हमेशा पुरुषों ने ही किए हैं। उनकी पैदाईशी तय करने से ले कर मौत तक। शादी करने की उम्र का निर्णय कानून बना कर करने वाले भी ये ही। महिलाओं की न्यून या गौण भागीदारी। पुरुष ही हमारे भाग्य विधाता। 
 
और हों भी क्यों न? हमें तो घुट्टी में ही इनकी मानसिक, शारीरिक, बौद्धिक गुलामी दे दी जाती है। ‘तुम्हीं से शुरु तुम्हीं पे कहानी ख़तम करें’ का पाठ रटवा दिया जाता है। सारे रंग, खुशियां, शुभ इनके होने से ही है। वरना मथुरा, काशी और कई सेवा स्थलों के साथ मंदिरों के द्वार पर पड़ीं ये औरतों की भीड़ कहां जाती? हमारे साहित्य में भी तो इनकी दशा यही मानी जाती है-
 
मानव बिना विषण्ण मानवी, प्रिय बिन आज प्रेयसी चूर्ण ।
 पति के बिना बिलखती पत्नी, नर बिन नारी हुई अपूर्ण ॥
 दीर्घ तृषा सी, दुर्बलता सी अगम उपेक्षा सी निरुपाय |
 एक विवशता सी विधवा है युवती, जीवित भी मृतप्राय ॥ 
-अतुलकृष्ण गोस्वामी (नारी, पृष्ठ 204)
 
मैंने खुद परिवार समाज में महिलाओं को वैधव्य को अभिशाप समझ स्वेच्छा से खुशियों से वंचित होते देखा है। उन्हें लगता है वे “अपशकुन” हैं। “अशुभ” हैं। ऐसा नहीं है कि अनपढ़ हैं।पढ़ी-लिखी, नौकरीपेशा, प्रतिष्ठित, घर की बड़ी हैं। पर बस “लोग क्या कहेंगे” का खौफ उन्हें जीने नहीं देता। क्या वे अपनी पति की मौत की जिम्मेदार हैं? यदि पत्नी मर जाए तो क्या पति के साथ ऐसा व्यवहार, कुप्रथाएं, कहीं देखीं है? बल्कि मौत के साथ ही दूसरी शादी की तैय्यारी के साथ चिता ठंडी न हो उसके पहले ही फेरे भी हो जाएं तो आश्चर्य नहीं।  पर औरतों को शुद्ध रूप से कुलक्षणी,कलंकिनी, डायन जैसे अलंकारों से सजा दिया जाता है। 
 
उत्सृष्टमामिषं भूमौ प्रार्थयन्ति यथा खगाः । प्रार्थयन्ति जनाः सर्वे पतिहीनां तथा स्त्रियम् ॥
 
जैसे पक्षी पृथ्वी पर डाले हुए मांस के टुकड़े को लेने के लिए झपटते हैं, उसी प्रकार सब लोग विधवा स्त्री को वश में करना चाहते हैं।
-वेदव्यास (महाभारत, आदिपर्व, १५७।१२)
विधवा की संपत्ति, रूप और यौवन उसके शत्रु होते हैं। शास्त्रों से लेकर वर्तमान तक अनगिनत उदाहरणों से भरे पड़े हैं। उन्हें दुष्टों की गिद्ध दृष्टि से बचना बड़ा कष्टकारी कार्य है। उनकी खुशियां किसी को रास नहीं आतीं। अभिनेत्री नीतू सिंह ने भी अपने अनुभवों से कहा – ‘ लोग विधवा स्त्री को हमेशा रोते हुए देखना चाहते हैं’। उनके जैसी सक्षम स्त्री भी इस त्रास से न बच सकी। मंदिरा बेदी पर भी दुनिया की नजरें गड़ी रहती हैं। पति मर गया अब ये अपने बॉय फ्रेंड के साथ मजे कर रही। तो क्या वो भी मर जाए? कुछ लोग समाज का कोढ़ होते हैं, उनके आने से ही हवा में नकारात्मकता की बदबूदार सड़ांध फैल जाती है...इनसे बचने के लिए कोई मास्क भी काम नहीं आता, पेस्ट कंट्रोल ज़रूरी है...
 
‘जो भी विधवाओं और अनाथों के जीवन निर्वाह का प्रबन्ध करता है उसकी योग्यता परमेश्वर की सेवा में लगे रहने वाले, रात भर प्रार्थना करने वाले और अखण्ड उपवास रखने वाले मनुष्य के बराबर मानी जाती है’.
-हजरत मोहम्मद (इस्लाम और नीतिशास्त्र, पृष्ठ 95)
 
पर इस पुण्य की आवश्यकता है क्यों? असल में औरतें ही इन सभी अमानवीय कृत्यों, प्रथाओं, परम्पराओं की वाहक रहीं हैं. इनकी मौन सहमति इनकी दुर्दशा की जिम्मेदार है। इनकी लाचारी इनके दुखों के द्वार खोलती है। इनके पूर्वाग्रह इन्हें दोषी ठहराते हैं। खुद को कुलटा मान लेना, अपशगुन समझना, पति की मौत का कलंक माथे लेना, कमतरी महसूस करना, वैधव्य को श्राप समझना इनको विरासत में थोपा जाता है। मुक्ति मुश्किल है। यदि ऐसा वो करना भी चाहे तो “जो अपने पति की नहीं हुई वो किसी की क्या होगी?” का ताना सुनती है। जैसे उसकी जिंदगी पति के गिरवे थी। 
 
जरुरत है औरतों के विचारों को बदलने की, सोच को और जिन्दगी जीने की उमंग को मजबूती देने की, बेमतलब बातें, परम्पराएं, कुप्रथाओं, जलील और दुश्वार करती जिंदगी के जंजालों से मुक्ति की. जो सिर्फ और सिर्फ औरत खुद अपने हौंसलों, हिम्मत, समझदारी, ज्ञान और ताकत से ही कर सकती है। उसे जीने का हक है। कोई ये हक़ नहीं छीन सकता। 
 
वैध व्यानल जरहि जहं, प्रतिसत सोलह बाल। उद्धारे तेहि जाति कहं, को माई को लाल ?
- रामेश्वर 'करुण' (करुण सतसई, पृष्ठ 50)

 

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