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कही-अनकही 26 : ऑफिस का बिगड़ा हुआ वास्तु

अनन्या मिश्रा
निष्काम कर्म और कर्मभूमि की कूटनीति
संस्थानों के किस्से, कड़वे अनुभव महिलाओं के हिस्से 
गुरुओं से अपेक्षा की जाती है कि वे निष्पक्ष हों। उनके लिए सभी शिष्य समान हों। यदि वे एक की गलती पर क्रोधित हों, तो दूसरे की त्रुटि भी सुधारें। एक की उपलब्धि पर प्रसन्न हों, तो अन्य की उपलब्धि भी उतनी ही मायने रखे। किन्तु द्रोणाचार्य ने ‘अपने उच्च कुल’ के अर्जुन को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की जिद से एकलव्य को न सिर्फ अपना शिष्य बनाने से इंकार किया, अपितु कथित गुरु दक्षिणा के रूप में उससे उसका अंगूठा भी मांग लिया। किसी ‘अपने’ दत्तक पुत्र-पुत्री को अपने अन्य शिष्यों से अधिक महत्त्व, विशेषाधिकार और प्रेम देने की यह त्रुटिपूर्ण भावना आज भी देखने को मिलती है। और जीवन के ये सबक हमें हमारे कार्यस्थल पर मिलते हैं– जो मुझसे कई मित्रों ने अपने-अपने संस्थानों के किस्से हाल ही में साझा किए। 
 
अक्सर कहा जाता है कि कार्यस्थल एक परिवार है,सभी सदस्य एक हैं और सबकी अपनी-अपनी विशेषताएं होने के साथ ही सभी के लिए प्रोत्साहन, उत्साहवर्धन और अवसर समान हैं। किन्तु कई बार गुरु समान वरिष्ठों से भी अपनी मेहनत, कर्मठता, योग्यता और कुशलता के आधार पर तरक्की करने वाले एकलव्यों को हतोत्साहित और ज़लील करने की भूल हो जाती है। कैसे? 
 
-एक विभाग की दशा उस पुराने विचारों वाले परिवार की है जहां महिला कर्मचारी की उपस्थिति ‘लड़की’ का जन्म होने के समान है – जो शायद ‘बेटा’ पैदा होती तो बेहतर होता। वह किसी ज़रूरी कारण से छुट्टी ले तो सवाल उठता है कि नौकरी करने की ही ज़रूरत क्या है – पति जो कमाता है। साथ ही यह भी दोषारोपण होता है कि कहीं गलत तरीके से तो छुट्टियां बटोरी तो नहीं जा रही हैं? वहीं विभाग के पुरुष कर्मचारी चाहे जितनी छुट्टी लें, किसी भी समय कार्यालय आएं, या जाएं, काम करें या न करें, – उन्हें कभी वरिष्ठ द्वारा टोका नहीं जाता। 
 
महिला कर्मचारी ने इसपर प्रश्न उठाया। उसे कहा गया कि विभाग निष्पक्ष है और जिस दिन वह अनुपस्थित थी, उस दिन पुरुष कर्मचारी को टोका भी गया था। सवाल यह है, कि पुरुष कर्मचारी को उसकी गलतियों के लिए टोके जाने के लिए, महिला कर्मचारी की अनुपस्थिति ज़रूरी थी – लेकिन इसका उलट सार्वजनिक रूप से होता आ रहा है – क्या यह कथित संरक्षक, विभागाध्यक्ष की निष्पक्षता है?
 
-एक अन्य कंपनी में कोई भी कार्य हो, एक ही कर्मचारी को दिया जाता है। कहा जाता है कि उसमें इतनी काबिलियत है, इसलिए उसे ही काम सौंप रहे हैं – इससे उसे शिक्षा मिलेगी और सीखने को मिलेगा – और इसलिए वह इसे गुरु का आदेश समझ कर कर भी देता है। गौरतलब है कि जब कोई भी बड़ा आयोजन उसकी नि:स्वार्थ मेहनत से पूर्ण होता है, तो धन्यवाद ज्ञापन में सिर्फ उसी का नाम भुला दिया जाता है। टीम के लिए आयोजित होने वाले भोजन में उसे आमंत्रित ही नहीं किया जाता और न ही ख़ास बैठकों में उसे शामिल किया जाता है। सामान्यतः अन्य आयोजनों के लिए सार्वजनिक रूप से प्रोत्साहन देने के लिए ईमेल के ज़रिए शुभकामना सन्देश भेजा जाता है, लेकिन इसे यह कह दिया जाता है कि यह तो तुम्हारा काम था, शुभकामना कैसी – जबकि स्पष्ट है कि यह काम उसका कतई नहीं था – और शायद इसकी अनुपस्थिति में तो किसी बाहरी व्यक्ति को शुल्क दे कर करवाया जाता! क्या गुरु के समकक्ष वरिष्ठ अधिकारी का निर्णय सही है? 
 
-एक संस्थान में एक कर्मचारी ने छोटे से पद से शुरुआत की और कई समर्पित वर्षों में अपने कठिन परिश्रम से, एक-एक कदम आगे बढ़ा कर आज थोड़ा ऊंचा पद प्राप्त किया। वहीं एक अन्य नए कर्मचारी ने किसी और के संपर्कों और जुगाड़ के बलबूते पर वही मुकाम झपटा – बगैर योग्यता के। एक सामान्य से संवाद के दौरान ही वरिष्ठ ने पहले कर्मचारी की खिल्ली उड़ाते हुए ‘अपनेपन के मज़ाक’ में कह डाला, ‘तुमने आज तक हासिल ही क्या किया है? इस नए कर्मचारी को देखो... तुमसे आज तक कुछ न हो सका’। अचानक इतने वर्षों में उसने जितना भी समर्पण, त्याग, कौशल से अपना काम किया था, जो कुछ भी हासिल किया था, और जो कुछ भी संस्थान में योगदान दिया था, वह किसी कारणवश इस गुरु की नज़रों में तुच्छ हो चला। क्या यह विचारधारा पक्षपाती, निराशावादी और जानबूझकर हतोत्साहित करने वाली नहीं है?
 
-कोई भी नई योजना तय होने के दौरान टीम के दो सदस्यों को वरिष्ठ का आदेश होता है कि दोनों साथ कार्य करें। पहला व्यक्ति पूर्ण समर्पण और पारदर्शिता से काम करता है, किन्तु दूसरा छुपा कर – और फिर पहले वाले कर्मचारी द्वारा किया गया कार्य भी खुद के नाम से पेश करता है। अतः योजना को आकार देने और निष्पादित करने के समय एक को ही पूरा श्रेय सार्वजनिक रूप से दिया जाता है – और एक बार नहीं, हर बार। सब जानते हुए भी वरिष्ठों का कहना है जिसका काम दिखेगा, वही ऊंचा जाएगा – फिर उसका किसी अन्य के कार्य पर कोई भी प्रभाव पड़े – फर्क नहीं पड़ता – क्योंकि काम तो हो ही रहा है! भावनात्मक चाशनी में लपेटकर, पक्षपात का कम्बल ओढ़े हुए लिए गए निर्णय समग्र प्रगति करेंगे या पतन यह तो वक़्त तय करेगा... 
 
ये तो मात्र चार उदाहरण हैं। सत्य तो यह है कि ऐसी अनंत सत्य घटनाएं हैं जो ऑफिसों में नियमित रूप से हो रही हैं – बस शायद ‘न्यू नॉर्मल’ के चलते इन्हें भी अब सामान्य मान लिया गया है। शायद मानव संसाधन विभाग इस बारे में कभ-कभार चाय पर चर्चा कर लेता है कि हम कुशल, कर्मठ और बौद्धिक कर्मचारी खो रहे हैं। यह भी कि पिछले कुछ वर्षों में सिर्फ महिला कर्मचारी ही क्यों त्यागपत्र दे रही हैं। लेकिन कोई इसपर गहनता से विचार नहीं करना चाहता। टुच्ची और खरीदी गयी उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ा कर बताने वाले आडम्बरियों की चपेट में आए लोग मजबूरन वाहवाही में व्यस्त हैं – और वास्तव में काम करने वाले इतने व्यस्त हैं कि उन्हें चापलूसी करने का या अपनी मेहनत से प्राप्त की गयी सफलताओं का शोर मचाने का समय नहीं – और उन्हें पसंद भी नहीं – और ऐसे में वरिष्ठों का पक्षपाती, तुलनात्मक और बिना तथ्यों को जाने आंकलन करने का व्यवहार किसी भी प्रकार से ‘पारिवारिक’ तो महसूस नहीं होता। शायद, परिवार ही परिवार होता है – शेष भाषणबाज़ी और किताब के पन्ने भरने के लिए बढ़िया है। 

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