वसंत पंचमी : प्रकृति का इकलौता पर्व वसंत है...

ललित निबंध के अंश

नर्मदाप्रसाद उपाध्याय
यदि ऋतुओं का राजा वसंत है तो वसंत पंचमी ज्ञान की अधिष्ठात्री मां शारदा का अवतरण पर्व,निसर्ग की शोभा का दृश्य प्रवक्ता और निराला जैसे पतझर जीकर वसंत गाने वाले महाप्राण का स्मृति उत्सव है। यों तो वसंत के अगणित संकेत हैं लेकिन सब कुछ भूलकर और भुलाकर कृष्ण के राधा और गोपियों के साथ नर्तन ने मानों शिव के कोप से भस्म अनंग को देह दे दी।हमारे महान कलाकारों ने राजस्थान , पहाड़ और दक्कन से लेकर मालवा तक की तमाम लघुचित्र शैलियों में राग वसंत को रचकर अनंग को आंगिक बना दिया।
 
 वसंत रागिनी के विभिन्न लघुचित्र शैलियों के मनभावन मध्यकालीन अंकन हमारे पास उपलब्ध हैं...

फिलहाल प्रस्तुत है वसंत पर रचे मेरे दो निबंधों के वे अंश जो कभी इसकी मदिर शोभा ने सब कुछ भुलाकर और भूलकर लिखवा लिए थे।
 
बंधन वसंत के 
आम्र कुंजों में मंजरियों का महकना,पलाश का फूलना,चमेली का चमकना,भौंरों की गुंजार का सुनाई देना,कोयल की कूक से भोर की उजास का गूंजना,ये सब वसंत के आगमन की आहटें हैं।इन्हीं आहटों के बीच अपने अधरों पर पराग की लाली लगाए मदमाता वसंत आता है और उल्लास के अथाह मधुसागर में प्रकृति डूब जाती है।
 
मनुष्य के त्यौहार यदि दीपावली,वारावफात और क्रिसमस हैं तो प्रकृति का इकलौता त्यौहार वसंत है।
वसंत मनाते मनाते प्रकृति मद में अपनी सारी शोभा हमारे सामने निरावृत्त कर देती है।पांखुरी पांखुरी और मंजरी मंजरी उसका वसंत बौराया सा डोलता फिरता है।
 
इस वसंत में भी गंध की डोली में सौंदर्य की नववधु केसरिया चूनर ओढ़े बैठी है और हौले हौले डगमगाते कदमों से इस डोली को उठाए दिनों के कहार उसे गांव गांव खेत खेत आंगन आंगन और गली गली ले जा रहे हैं।
 
वसन्त गमन की बात न करना
वास्तव में गति, वसन्त का स्पंदन है और स्थिरता पतझर के प्राण। जीवन तो अपनी अस्मिता में एक सा ही है लेकिन उसे गति मिल जाए तो वह वसन्त है और स्थिरता मिले तो पतझर। जब संकट घेर लें, चारों ओर अंधेरा अनुभव होने लगे, कोई राह न दिखाई दे लेकिन इस संकटमय अंधकार में भी हमारी यात्रा अपने जीवट के कारण अविराम चलती रहे तो यह यात्रा वसन्त है। 
 
 सहेजना और केवल अपने लिए सहेजना पतझर है तथा सहज बने रहना वसन्त। 
 
इस बार फिर वसन्त आ गया है, आम बौराने लगे हैं, पलाश के फूलों ने राधा की प्रतीक्षा करनी शुरु कर दी है जिसे केसरिया रंग घोलकर उससे अपने सांवरे को नहलाना है, उल्लास का उत्सव आरंभ हो गया है जिसमें केवल खिलने की आशा थिरकती है और यह सब स्वर्ग की नहीं उसी धरती की देन है जिसके वसन्त को मनुष्य आत्मसात कर स्वयं वसन्त हो जाता है, नीरज कह रहे हैं,
 यह पीली चूनर, यह चादर
 यह सुन्दर छवि, यह रस गागर
 जनम-मरण की यह रज-कांवर
 सब भू की सौगात
 गगन की बात न करना
 आज वसन्त की रात गमन की बात न करना

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