प्यारा बचपन,निराले खेल [अंतिम भाग] : पुराने खेल-खिलौने, प्यार और दुलार भरे

डॉ. छाया मंगल मिश्र
वैश्विक महामारी को कई तरीकों से परास्त करने की सभी की अपनी अपनी कोशिशें जारी हैं। कोई भी कर्म जब अनिवार्य कर दिया जाए तो पालन थोड़ा कठिन होता है। यही मनुष्य स्वभाव है। उसे प्रकृति ने ही ऐसा चंचलमना बनाया है।

और फिर नन्हें-मुन्नों को ऐसे वातावरण में सम्हालना, व्यस्त रखना ताकि उनके विकास मार्ग में इन सभी दुविधा युक्त विषयों का कोई असर न हो- बड़ा ही कठिन है। फिर भी हम कोशिश करते हैं कि हम अपने बच्चों को कह सकें ‘आ चल के तुझे मैं ले के चलूं एक ऐसे गगन के तले, जहां गम भी न हो, आंसू भी न हो बस प्यार ही प्यार पले...’
 
हालांकि हमें अफसोस भी है, उनके लिए जिनके लिए हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। अपनी मजबूरियों के चलते। सबके अपने अलग-अलग संघर्ष हैं। अलग-अलग समस्याएं। अलग-अलग समाधान। अलग-अलग निराकरण। इनमें से हमने खेलों को चुना। इस बहाने विरासत में मिले ये खेल अपने बच्चों को प्रयोग करके सीखने की कला के साथ साथ रचनात्मकता का गुण भी विकसित करते हैं। चूंकि खिलौने उनके द्वारा निर्मित किए गए हैं तो उनकी कमियों को सुधारने के लिए जिज्ञासु होते हैं जो उन्हें नए अविष्कार की ओर प्रेरित करते हैं। 
 
कौन सा तरीका ज्यादा सही है इससे निर्णय क्षमता का विकास भी होता है। एक दूसरे से सीखने व सामंजस्य बैठाने की कला में माहिर होते हैं। बड़ों के मार्गदर्शन में खिलौने बनाने व खेलने से उनमें आज्ञाकारी होना वा बड़ों से सीखने का आदर्श भाव उत्पन्न होता है। इसी बहाने बच्चे विज्ञान व तकनीकी से अवगत होते हैं। वैसे तो ये कई तरीकों से भी सीखे जा सकते हैं पर “आओ कर के देखें” वाले सिद्धांत से वो प्रत्यक्ष अनुभवों से सीखते हैं। सीखना-सिखाना बच्चों पर बोझ नहीं बनता। खेल की मस्ती व आनंद में ही वह बहुत कुछ सीख जाते हैं..
 
ऐसा नहीं है कि केवल यही खेल होते हैं। बैठ कर भी कई खेल खेले जाते हैं। सदा बहार खेल तोता उड़, मैना उड़ किसे याद नहीं? इसमें तो बच्चे और बड़े सभी शामिल हो जाते हैं। घोडा बादाम छाई ,पीछे देखे मार खाई में कौन ऐसा होगा जिसने गोले के आस-पास दौड़ न लगाई हो। एक से दस तक की गिनती बोल कर छुपने का संकेत और फिर वो एक्सप्रेस व धप्पा-भूल थोड़े ही सकते हैं।

छुक-छुक छावनी, बड़े घर जावनी के वो चार कोनों में खड़े हो कर अन्नी-चन्नी दो बोल कर नजर बचा कर कोने बदल लेना कितना मजा देता था।नमस्ते की मुद्रा पर ‘चमाट’ मारने का खेल हाथों पर पड़ने वाली लपाड़ से उपजी जलन को महसूस ही नहीं होने देता था। साथी संगियों के साथ गोला बना कर बीच में कोई एक बैठ कर रोने का अभिनय करता और बाकी के बच्चे एक गीत गा कर उसके आस-पास घूमते-‘एक सहेली रो रही उसका साथी कोई नहीं.....गीत पूरा होने पर वो साथी चुनती। 
 
फिर सारे साथी मजबूती से आपस में हाथों को पकड़ कर घेरा बनाते जिसको सांकल कहते। उन्हें मिल कर उस सांकल को तोड़ कर निकलना होता था।ऐसे घेरे में गोल गोल धानी, इतना-इतना पानी... का गीत भी गोल घूम घूम कर गया जाता था। ऐसे ही गोले में बैठ कर जिस तरह गरबे की तालियां खेली जातीं है उसी तरह तालियां व चुटकी के साथ एक खेल ‘पिक-पिक’भी खेलते। इसमें नामों को या वस्तुओं के नामों को इसी ताल-रिदम में बोलने के पहले व बाद में ‘पिक-पिक’ शब्द जोड़ना होता था। नाम रिपीट नहीं होना चाहिए। 
 
अटकन-बटकन दही चटोकन तो अमर खेल है। इसी के साथ कनथ कत्तैय्यां कोड़ी पहिया जिसे हम अपने पैरों पर पीठ के बल लेट कर बच्चों को खिलाया करते।इसमें बच्चा हमारे पैरों पर ही झूले का आनंद लेता था। इसे कुर्सी पर, पलंग पर बैठ कर पंजों पर भी बच्चों को उठा कर झुलाया जा सकता है। स्टेच्यू का खेल तो बड़े ही मजे का होता था। इसको खेलने के लिए जिसके साथ भी आप समझौता/अनुबंध करते उस समझौते को ‘अड़ी रखाना’ कहते। 
 
जब भी जहां भी जो पहले बोल देगा ‘स्टेच्यू’ आप को मूर्तिवत खड़े रहना है जब तक की सामने वाला आपको ‘ओवर’ न बोल दे। ओवर बोलने के साथ ही पार्टनर अपनी सुविधानुसार इसमें छूट दे दिया करता था। उस समय के बाद ही अगला स्टेच्यू बोला जा सकता था। यदि इसके पहले हिल-डुल जाते हैं तो जो जुर्माना तय किया हो उसकी भरपाई करना होती।इसी प्रकार ‘जोली’, जिसे हाथ की हथेली में सबसे छोटी उंगली की तरफ कलाई के पास वाले कोने में एक पेन/लीड की स्याही से छोटा गोल निशान बना कर हमेशा रखना होता, जिसे दिखाने के लिए कभी भी आपका खेल पार्टनर (जिनकी कितनी भी संख्या हो सकती है-दोनों खेलों में.) कह सकता है।
 
 नहीं होने पर भी जो शर्तें तय की गईं हैं उन्हें मानना होता था। और हां याद तो होगा ही आप सभी को ‘हाथी घोड़ा पालकी जय कन्हैय्या लाल की’ का वो हाथों का बना हुआ बादशाही सिंहासन जो विक्रमादित्य के सिंहासन सा मजा देता था। पूरे घर महल्ले में जुलूस निकाल दिया करते थे सारे हुडदंगी बच्चे। जन्माष्टमी के आसपास इसका रंग और गहरा हो जाता।
 
कैरम बोर्ड, शतरंज वगैरह भी अपने किस्म के ही खेल रहे हैं। पर इन देशी खेल-खिलौनों के आनंद सा रस किसी और खेलों में कभी नहीं आया। अपनी-अपनी पसंद और शौक की भी बात है। हम तो नारियल के खोल की बीन व रस्सी के सांप बना उन्हें टोकरी में रख कर संपेरा-संपेरा खेल लेते। नारियल खोल में भोंगली फिट कर लेते व मोतियों, रंगों से सजावट करते। टोकरी भी खुद ही पिटारेनुमा बना लिया करते। इन्ही नारियल के खोलों से नगाड़े बना लिया करते और तबले-डग्गे भी।
 
संतरे व मोसंबी के छिलकों की खुशबूदार रंगीन तराजू बड़ा मजा देती थी।ऐसे ही कई फलों से भी खिलौने बन जाया करते थे। आइने के तीन एक सामान नाप की पत्तियों को जोड़ कर किसी गत्ते के पाईप में सेट कर के उनमें कांच की टूटी रंगीन चूड़ियों के टुकड़े डाल कर केलिडोस्कोप बनाना कितना भाता था। रंगबिरंगी डिजाइनों की अनंत खूबसूरत दुनिया को घंटों एक आंख बंद कर के एक आंख से देखना व उस दुनिया में गुम हो जाना।
 
इन खिलौनों को बनने में बच्चे प्लानिंग सीखते हैं। साधारण औजारों का इस्तेमाल सीखते हैं। जो रोजमर्रा की बुनियादी आवश्यकता का ही एक भाग है। चीजों के अलग-अलग उपयोग व जानकारी से ज्ञान में बढ़ोत्तरी होती है।माप-तोल की अवधारणा से परिचित होते हैं। खिलौनों की जांच पड़ताल, खामियां-खूबियां व सुधारना आसानी से समझ जाते हैं। प्रत्येक चीज उपयोगी हो सकती है ऐसा सकारात्मक रवैय्या उनके व्यवहार में आता है। प्रकृति के करीब होने से अपना रिश्ता प्रकृति से जोड़ते हैं। 
 
वैज्ञानिक सिद्धांतों को आसानी से सरल तरीकों से जान जाते हैं। डिजाइनों का गति पर पड़ने वाला प्रभाव भी समझने की कोशिश करते हैं। नवाचार की क्षमता व तकनीकी कुशलता का पाठ भी बालक इन्ही के प्रयोग के दौरान पढ़ते हैं।सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि खिलौने बना कर बच्चे ख़ुशी के साथ साथ अपनी योग्यता की एक नई खोज का अनुभव करते हैं। यह भी तो हो सकता है कि यही खिलौने और इनके निर्माणक भविष्य के प्रतिभावान इंजीनियर, वैज्ञानिक, डिजाईनरों के प्रथम मॉडल हों।
 
इन खेल-खिलौनों में कागज से बनने वाले खेलों को “ऑरेगमी” के नाम से आप खोज सकते हैं। आज भी इन्हें स्कूल में क्राफ्ट विषय में पढाया जाता है।परन्तु कुछ जादू के खेलों का मजा भी था। रामपुरी चाकू बनाना आइसक्रीम की डंडियों/चम्मचों से, दो पेंसिल के टुकड़ों को रबर बेंड में कस कर बल देते जाना फिर टेबल पर छोड़ देना। ऐसा लगता कि दोनों में कुश्ती हो रही है। बांस के टुकड़े से पिचकारी बना लेते। पानी गुब्बारे को या मिटटी के गोले को सुखा कर इलास्टिक में बांध कर “यो-यो” बनाना, डिब्बे के पेंदे में चलनी की तरह छेद कर के पानी भर कर ऊपर के छेद को जब उंगली से बंद करेंगे तब झरना बंद, हटाएंगे तब झरना चालू। है ना मजेदार जादू। यही नहीं किसी भी ड्राइंग/पेंटिंग में चलती फिरती आंखें, पिंजरे के अंदर पक्षी का फोटो लगा कर जोर से घूमाने पर इल्यूजन का खेल भी तकनीकी के सिद्धांतों पर आधारित है।
 
सबसे जरुरी और मजेदार बात जो आज के ज़माने में शायद ही कहीं देखने में आती हो, वो है दाम देने के लिए और दो टीम के बंटवारे के लिए “ताली छंटाना”. इसमें सभी लोग अपने सीधे हाथ की हथेलियों को एक के ऊपर एक रखते और एक...दो...तीन बोल कर उलटी/सीधी हथेली वालों को अलग अलग करते। ऐसा टीम की बराबरी के बंटवारे तक होता। सीधी हथेली वाले एक ओर /उलटी हथेली वाले एक ओर। इसको “भिडु” छांटना भी कहते। उस समय टॉस करने के लिए पैसे/सिक्के की जरुरत नहीं पड़ती थी। 
 
मनपसंद भिडू के लिए बेईमानी जिसे खेल की भाषा में ‘बेईमांटी’ कहा जाता है वो भी करने से बाज नहीं आते थे। ऐसे लोगों से नाराजी में “अंटाबेली” मतलब अंगूठे के बाद की दोनों उंगलियों को एक पर एक आंटी चढ़ाना। ऐसा मानते कि इस ‘बेईमांटी’का असर हम पर न हो। ये बाल मन अंटाबेली को बलाओं, छूत, अपवित्रता, बुरी नजर से बचने का अचूक अस्त्र मानता था। काश के ये सच होता। हम इससे ही अपनी सारी जिंदगी को पावन तरीकों से जी पाते। 
 
फैलती महामारी, साम्प्रदायिकता के जहर, दम तोड़ती मानवीयता, सिसकती इंसानियत, सद्भावना-सौहार्द्र का घुटता गला इस अंटाबेली से गायब कर देते।
 
समय तेजी से बदल रहा है। नए सामाजिक संदर्भ और तकनीकें उभरीं हैं। मशीनी खिलौनों का बाजारों पर कब्ज़ा हो चला है। सब कुछ मशीनी, अत्याधुनिक, परन्तु फिर भी हमारे ये देसी खेल खिलौने अपने महत्व को बनाये रखेंगे। हमें लौट कर इन्ही की ओर आना ही होगा। यदि हम चाहते हैं कि हमारी पीढ़ी रोबोट न बने, मनुष्यता के भाव को जिए, संवेदना और शिक्षा से परिपूर्ण हो, खेल-खिलौनों में भरे प्यार दुलार को महसूस करे, प्रकृति और देश-धर्म से जुड़ाव व निष्ठा का भाव जागृत हो तो हमें उनको समय देना होगा, साथ बैठ कर खेलना होगा क्योंकि यही हमें आस्था से जीना सिखाते हैं,भय मुक्त जीवन की आस जागते हैं, अन्याय व पाप से लड़ने की नींव बनाते हैं, धर्म अधर्म का अंतर सिखाते हैं। खेल ही हैं जो आपको जीना सिखाते है...मान से... सम्मान से...ईमान से...स्वाभिमान से. हिम्मत रखिए, राष्ट्र हित को सर्वोपरि रखिए, वंचितों से प्यार कीजिए, धैर्य रखिए...
 
भयभीत को भयमुक्त करना धर्म है।रेत में इक बीज धरना धर्म है।
पाप पर तनकर अकड़ना धर्म है।समय पर उंगली पकड़ना धर्म है।
धमनियों में धैर्य धरना धर्म है।वंचितों से प्रीत करना धर्म है।
दुर्दिनों में याद करना धर्म है।राष्ट्र पर शत बार मरना धर्म है।
युद्ध में संहार करना धर्म है, अधर्मी के प्राण हरना धर्म है।
 
- कवि नरेंद्र तिवारी 

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