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सुनहरी यादों के साथ (4) : बचपन के बादलों पर सवार

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डॉ. छाया मंगल मिश्र

school memories
 
वो जाफरियों वाले बरामदे और कवेलू की छतों वाले हरे-भरे, बड़े-बड़े खुले मैदानों वाले हमारे स्कूल। बचपन के दिन भी क्या दिन थे उड़ते-फिरते तितली बन।
 
तमाम सारी प्रतियोगिताएं और छात्रसंघ चुनाव जीतते-हारते, खेलते-गिरते, सच-झूठ करते, लड़ते-झगड़ते, कॉपी-किताबों का आदान-प्रदान करते, उनमें मोर पंख, विद्या की पत्ती, रंग-बिरंगी फुद्दियां संभालते-छुपाते, एनसीसी-एनएसएस के कैम्प में दिन-रात बिताते कप, ट्रॉफी, मेडल, शील्ड, प्रमाण पत्रों की बढ़ती संख्या से खुद ही को शाबाशी देते, बड़ों से आशीर्वाद लेते, बराबरी वालों व छोटों को प्यार करते, लड़ते-झगड़ते हमारी जिंदगी 'कभी नीम, नीम कभी शहद शहद' हो चली। अपनी ही छोटी-छोटी खुशियों और गमों की जिंदगी। 
 
परीक्षाएं देते अपने 'लकी' पेन, पेंसिल, रबर के साथ 'लकी कम्पास बॉक्स' के साथ। सुंदर से स्टिकर्स से सजे उस कम्पास बॉक्स में भगवान की फोटोज़, तुलसी माता की पत्तियां, मंदिर का कुमकुम-चरण फूल, सौंफ, लौंग, इलायची, छोटी रसीली गोलियां खाने की और खास भस्मी या भभूति।
 
यानी कि हमारा कम्पास बॉक्स भी हमारे बस्ते की तरह ही भानुमती के पिटारे-सा होता। अपने फेवरेट लकड़ी के पटिये के साथ जिसमें ऊपर की ओर एक बड़ा क्लिप लगा होता। उसमें अपना कम्पास बॉक्स खोंसकर चल देते परीक्षा देने। लड़कियां तो और भी न जाने क्या-क्या प्रयोग करतीं। आईएमपी प्रश्नों का खूब हल्ला रहता। जब सामने पर्चा आता, तब दोनों हाथ जोड़कर धड़कते दिल से उसको हल करते।
 
गणपति बप्पा भगवान भी उन दिनों हैरान होते होंगे। सब लोग उनकी शरण में! यूं भले ही रोज उनको याद न करे। सबकी बिगड़ी बनाने की फरियाद का ठौर बस वही मंदिर था। वहीँ एक गन्ने के रस की चरखी हुआ करती। परीक्षाएं चूंकि गर्मियों में होतीं, तो परीक्षा के बाद गन्ने का रस पीने जाना एक शगल हुआ करता।

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समय निकलता रहा। उम्र बढ़ने लगी। जिंदगी बदलने लगी। प्राथमिक स्कूल की नीले रंग की स्कर्ट या ट्यूनिक माध्यमिक में गुलाबी और उच्चतर में कत्थई रंग में बदल गई। हां, यदि सफेद शर्ट में कोई खराबी न हो तो वो नए नहीं आते। कई बार तो बड़े भाई-बहनों की यूनिफॉर्म भी काम में ली जाती थी। अलग-अलग दिनों की अलग-अलग यूनिफॉर्म के कोई चोंचले नहीं पाले हुए थे उस समय। बैग-बस्ते और सामान कॉपी-किताबों सहित सब पुराने इस्तेमाल हो जाते थे, वो भी पूरे उमंग और खुशी के साथ।
 
यहां से बदलती है जिंदगी। तौर-तरीके, रहन-सहन, कहना-सुनना, आचार-विचार, चिंतन सब कुछ। 'बड़ी हो गई हो, अब बच्ची नी रहीं' जुड़ जाता था। घरवाले तो ठीक, पर दूसरों को आपकी ज्यादा चिंता सताती। आपको लगातार नसीहत मिलते रहने के दौर शुरू हो जाते। कइयों की तो अचानक से यूनिफॉर्म सलवार-कमीज दुपट्टा हो जाया करती।
 
9वीं कक्षा से विषय बदलना होता था। साइंस, होम साइंस, आर्ट, फाइन आर्ट विषय होते। सभी अपनी रुचि या घरवालों के निर्णय से विषय तय कर लेते। 'करियर' नाम के राक्षस ने तब ऐसा जानलेवा आतंक नहीं मचाया हुआ था। साथ ही शुरू होती थी अनुशासित जिंदगी का पाठ पढ़ाती एनसीसी, सेवा भावना प्रबल करती एनएसएस की यूनिट्स।
 
खेल तो सदाबहार थे ही। कई डॉक्टर, कलाकार, प्रोफेसर, ऑफिसर, राजनेत्री और उनसे भी बढ़कर कई संस्कारित सुशील गृहिणियां इन विद्यालयों से निकली हैं जिन्होंने अपने दारोमदार से समाज की अच्छाइयों, संस्कारों, धर्म-संस्कृति जैसी गुणवान ज्योति को जगमग बनाए रखने में अपना जीवन लगा दिया। जिन्होंने देश-विदेश में अपने नाम का परचम लहराकर इस स्कूल का नाम रोशन कर किया।

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बड़ी क्लास की 'दीदियां' छोटी क्लास की लड़कियों की मार्गदर्शक और आदर्श होतीं। ज्यादातर से पुरानी जान-पहचान भी रहती। उसी गली-मोहल्ले या आसपास के मोहल्ले के जो होते थे सब। आपके बड़े भाई-बहनों के भी दोस्त-सहेली और खुद बड़ी बहनें भी जो वहां होतीं। इससे एक दिक्कत यह होती कि स्कूल जाते ही आपकी तुलना बड़े भाई-बहनों से बिना कारण ही शुरू हो जाती और यदि आपकी मां या कोई रिश्तेदार उस स्कूल में है तो आदर्श विद्यार्थी का नाटक माथे पड़ जाता।
 
पर वाकई मजा तो बहुत आता था, क्योंकि आडंबर बिलकुल नहीं था जिंदगी में। खालिस असल। अच्छी-बुरी जैसी भी जिसकी गुजरी, क्योंकि उस समय 'न किसी से ईर्ष्या, न किसी से होड़, सबकी अपनी मंजिल, सबकी अपनी दौड़' हुआ करती। एक-दूसरे की सफलता का जमकर जश्न मनाया जाता। हारने व फेल होने का गम भी बांटकर खत्म कर लिया जाता। इन 3 सालों में जिंदगियां बदल जाया करतीं। फिल्मों का जमकर असर होने लगता। अच्छी-बुरी संगत रंग दिखाने लगतीं।
 
नैन-मटक्का का चाला भी गली-मोहल्ले, चौराहों, पान-चाय की गुमटियों पर खड़े आदमियों व लड़कों से शुरू हो जाता। कुछ तो भाग भी जातीं उनके साथ। उनके कर्मों के फलस्वरूप हम जैसियों पर नजरबंदी बढ़ा दी जाती ताकि हम पर उनकी गतिविधियों का असर न हो जाए। बड़े-छोटे भाई-भतीजे और उनके दोस्त व मोहल्ले की जासूस पंचायती महिलाएं, रिश्तेदार इसमें अहम भूमिका निभाते। हमारी जासूसी बढ़ा दी जाती और हमें मन ही मन उन सब पर खूब गुस्सा आता।
 
गलतियों पर सहेलियों और संगतों को जी भरकर कोसा जाता। बात-बात पर कुटाव सामान्य बात थी। डांट और लताड़-झिड़की प्रसाद तो कभी भी कोई भी बड़ा चलते रस्ते आपको बांट सकता था, पर तब इनके डर से जान नहीं दे दिया करते थे। न ही फांसी लटकते, जहर खाते। रोते-सुबकते वापस 'रात गई बात गई' की तर्ज पर अगले दिन मस्त जीवन जीने को फिर से तैयार!
 
सभी लोग उच्चतर को बड़ा शारदा व माध्यमिक को छोटा शारदा कहा करते थे। बड़े शारदा के बगीचे, प्रैक्टिकल रूम, म्यूजिक क्लास, पेंटिंग बोर्ड हमारे लिए आकर्षण का केंद्र हुआ करते। डांस क्लास की घुंघरुओं की आवाज जादू करती। हम छुप-छुपकर देखने जाते। खिड़कियों से झांकते। आंख लगा-लगाकर देखते। एनसीसी की खाकी वर्दी चुम्बक की तरह हमें खींचती। परेड करते समय एक रौब पैदा होता और गर्व का अहसास। उसमें मिलने वाला नाश्ता लालच जगाता था।
 
26 जनवरी व 15 अगस्त को होने वाले कार्यक्रम और उसमें मिलने वाले लड्डू-पेड़े अमृत से लगते। इनके कार्यक्रम नेहरू स्टेडियम या शहर के किसी बड़े से मैदान में आयोजित किए जाते जिनमें भाग लेना जीवन की अनमोल उपलब्धि रहती। सबसे आगे कमांडर की भूमिका किसी नेतागिरी से कम न थी।
 
ऐसा ही कुछ एहसास क्लास मॉनिटर या स्कूल पोस्ट पर होने से भी होता। बहनजी सबके बीच यदि आपको नाम से बुलाकर कोई काम देतीं तो आय-हाय। सच मानिए कानों में शहद पड़ता। पूरा स्कूल हरियाली की गोद में किसी नन्हे बच्चे की तरह लगता।
 
ढेर से घनेरे अशोक, आम, जाम, जामुन, इमली के पेड़, बेलें, बड़े-बड़े झाड़, पौधे, अमलतास और भी बहुत कुछ सब गर्मियों में ठंडक देते। उनकी छाया में बैठते, खाते, सुस्ताते, पढ़ते। लगता मानो मां की गोद और आंचल की छांव तले बैठे हैं। वहां की मिट्टी स्वर्ण सिंहासन से कम नहीं होती।
 
वो प्रार्थना का मंच, तिरंगा फहराने का स्थल सब कुछ रूह में बसा होता। भाषणों, कार्यक्रमों के बाद गूंजती तालियों की गड़गड़ाहट आज भी कानों में गूंजती है। लगभग हर क्लास के साथ लगे वो झाड़-पेड़-बेलें, उन पर चहकते पंछियों की सुरीली आवाजें।
 
सुबह-सुबह मोरों का अपने रंग-बिरंगे पंखों को फैलाकर झूम-झूमकर नृत्य करना, मिट्ठू-कोयल का गाना, उन पेड़-पौधों में से छनकर आती हुई नर्म, मुलायम कोमल पर जिद्दी-सी धूप की किरणें। मानो उन्हें भी स्कूल में आकर हम सभी से मिलने की आदत हो गई।
 
क्लास में हम स्याही छिड़क-छिड़ककर जमीन पर धूप घड़ी बनाने की कोशिश किया करते, क्योंकि उस जमाने में घडी पहनना विलासिता की श्रेणी में जो आता था। छुपकर चलती क्लास में जब बोर होते तो आपस में लिखकर और इशारों से खेलना शुरू हो जाता। अंताक्षरी तक हम लिखकर खेल लिया करते थे जनाब! 
 
फिल्मों के नाम, एकी-बेकी। अरे वही इमली के बीजों से जिन्हें चीयें कहते हैं उनसे। हमारी घड़ी में कितना बजा? 1 -10 तक की गिनती लिखकर बिना पेन-पेंसिल उठाए सभी अंकों को आपस में जोड़ना, हमारा बस्ता किसी जादुई पिटारे से कम न होता था। कूदने वाली रस्सी से लेकर गिल्ली-डंडा, छोटे-छोटे लकड़ी के बैट-गेंद, कनेर-छोटे गोल पत्थर के पांचे, लट्टू-भंवरा और उसको घुमाने की रस्सी जिसे जाल कहते, वो तक और ऐसे ही कई छुटपुट खेलने, खाने-पीने के सामान हमारे बैग बस्ते में छुपाकर ले जाते।
 
हां, यहां छोटे स्कूल की तरह स्कूल लगने पर क्लास में टाटपट्टी बिछाने व घर की छुट्टी होने पर टाटपट्टी की घड़ी करने की जरूरत नहीं होती थी। वहां सभी की बारी बनती थी इस काम के लिए। मिल-जुलकर काम करने की आदत भी बनती थी। और अब यदि करवा लो तो आफत हो जाए। आसमान टूट पड़े। शिकायतें हो जाएं।
 
तब वाकई में शिक्षित-दीक्षित किया जाता था, अब केवल पढ़ाया जाता है। क्लास में मां सरस्वती के फोटो और टाइम टेबल को सलीके से लिखकर टांग दिया जाता था। सप्ताह में किसी खास दिन पर सभी बच्चे पैसे मिलाकर सरस्वती पूजन का कार्यक्रम करते। ऐसा बारी-बारी से लगभग सभी क्लास करती और पूरे स्कूल में चने-‍चिरौंजी व मूंगफली के दानों का प्रसाद वितरण होता। बिना किसी जातिगत भेदभाव के।
 
ट्यूशन-कोचिंग करना या लगवाना पढ़ाई में कमजोर बच्चे की निशानी होती। स्कूल में माता-पिता को मिलने बुलाना किसी गंभीर खतरे का संकेत माना जाता, जो बच्चों को 'बेइज्जती' का एहसास करने के लिए काफी होता। 
 
आज के लिए इतना ही... जीवन के आकाश में यादों के ये जुगनू लगातार झिलमिला रहे हैं... अनगिनत की संख्या में...
 
और मेरी भी यात्रा जारी है... बचपन के बादल पर सवार हो... तितलियों का रथ ले... अतीत के खजाने से अनमोल हीरे-मोती चुनने के लिए...

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