रात में आइसक्रीम ही तो खाई थी बस, कहीं बाहर नहीं गया किसी से नहीं मिला, फिर मुझे कोरोना कैसे हो गया। ऐसे ही कई और सवालों के साथ , सिम्टम आने के दो दिन बाद , टेस्टिंग ने बता दिया था की मेरे शरीर में कोरोना मौजूद है। बचपन से ही खेलने कूदने का शौक रहा है, हाल तक 2 घंटे बैडमिंटन या टेनिस खेलता था, तो पता था अपने लंग्स मजबूत हैं और कोरोना से लड़ सकने के लिए तैयार हैं, शायद यह बात बेहद महत्वपूर्ण रही, मुझे कोरोना से ज्यादा डर नहीं लगा...मुझे यकीन था की मैं इससे जल्द बाहर आ जाऊंगा।
इंदौर से लगभग 150 किलोमीटर दूर, कम्पनी की टाउनशिप है, वहां नियमों के चलते, जब मुझे दो कमरों के एक घर में परिवार से दूर रखा गया था, हर दूसरे दिन एक्सरे हो रहे थे , जिसमें पता चल रहा था की इन्फेक्शन बढ़ रहा
है, मगर फिर भी मेरा यकीन डगमगाया नहीं, चिंता जरूर बढ़ रही थी की परिवार से शायद कुछ और दिन दूर रहना पड़ेगा।
हालत हर दिन थोड़ी बिगड़ रही थी, इसलिए 6 दिन बाद इंदौर के घर शिफ्ट होने का फैसला लिया की यहां
के घर के आसपास जरूरत ज्यादा अच्छे से पूरी हो सकती है। घर पर दो दिन ऑक्सीजन सपोर्ट से गुजारे और डॉक्टर के कहने पर बायपेप पर भी रहा, मगर हालत नहीं सुधर रही थी, इसलिए 16 मई को हॉस्पिटल में भर्ती हो गया।
हॉस्पिटल के उस कमरे में कितने दिन गुजारने हैं, शायद नहीं पता था, मगर वापस घर जरूर जाना है, यह पता था। पहले दिन तो कमरे में अकेला ही था, दूसरे दिन एक और मरीज साथ वाले बेड पर आ गए, उनका आना ऐसा रहा जैसे किसी ने मेरी देखभाल के लिए ही भेजा था, उनको वैक्सीन की दूसरी डोज़ लगने के बाद कोरोना हुआ था, उन्होंने पूरे समय मुझ पर एक परिवार के सदस्य जैसा ध्यान रखा और उनके डिस्चार्ज होने तक मेरी तबीयत काफी सुधर गई थी....
ऑक्सीजन सपोर्ट 14 लीटर से 6 लीटर तक आ चुका था। उनके खाली किये बेड पर एक नया मरीज आया जिसका इन्फेक्शन ज्यादा नहीं था मगर उसमें कोरोना को लेकर डर ज्यादा था मुझे और मेरे इन्फेक्शन को देखकर उनमें हिम्मत आयी, उनके साथ गप्पें लड़ाने का मौका भी मिला और इसके फायदे भी हुए, पहला तो यह इससे हम दोनों ही कुछ देर अपनी हालत और बीमारी को भूल पाए और शायद ठीक भी थोड़ा जल्दी ही हो गए...पहले मैं और कुछ दिनों के बाद वे भी हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हो गए।
दस दिनों तक मैं हॉस्पिटल में रहा था और यहां के सभी सपोर्ट स्टॉफ़ ने मेरी भरपूर सेवा की...वे बिना थके बिना परेशान हुए , लगातार बुलाने पर तुरंत हाजिर हो जाते थे....हर काम के लिए मैं उन पर ही निर्भर था...उन्होंने कभी भी किसी काम में मुझे यह महसूस नहीं करवाया की इस काम के लिए क्यों बुलाया... उनका हर काम की गरिमा बनाये रखना भी मुझे काफी सहज कर गया और मेरा संकोच जाते ही उन सभी से काफी बढ़िया कनेक्शन भी हो गया था। इन सभी लोगों को मैं जितना धन्यवाद कहूं कम है।
बात अगर डॉक्टरों की करें तो ऐसा लग रहा था जैसे उनको मेरी नब्ज पहली बार में ही पकड़ आ गयी हो...वहां जाकर ऐसा महसूस हुआ की उनको मुझे क्या दवाई देना है,कब देनी है या फिर मुझे बायपेप लगाना रहा हो, यह सब उनको कोई दूर बैठा बता रहा है... क्योंकि इसका असर मुझे पता चल रहा था, मुझे कितनी और कैसी कसरत करनी है... यह भी वो दूर बैठा कोई उनको बता रहा था...इन सबके चलते मैं तेजी से ठीक होते चले गया...
और जिस ख़राब हालत में भर्ती हुआ था, 10 दिनों में डिस्चार्ज होना चमत्कार मान सकते हैं ,अभी तक भगवान को मानने या नहीं मानने में असमंजस था...मगर अब लगता है जैसे उसने ही दूर बैठे बैठे सभी को बताया की अब किसको क्या करना है , जिसके चलते सभी बातें ऐसी हुईं जिससे मुझे रिकवर होने में ज्यादा वक़्त नहीं लगा।
घर पहुंचने के बाद अब जिंदगी बदल सी गई है... परिवार के साथ होने का सुख क्या होता है... शायद पहली ही बार समझ में आया है और अब जब यह सुख महसूस कर पा रहा हूँ बाकी सारी चीजें भी मुझे बेहद ख़ुशी दे रहीं हैं और खुद को मजबूत बनाये रखने का यह सुखद पुरस्कार है और ऐसे पुरस्कार को पाने के लिए कोरोना जैसी बीमारी को हराना बेहद आसान काम लगने लगा है।
इसलिए मुश्किलों में अपने आपको बनाए रखिए , यकीन मानिए आपका भगवान भी आपके लिए लगा हुआ है की आप अपनों के बीच हों और अगर आप भी ऐसा ही चाहेंगे तो इसे होने से कोई वायरस नहीं रोक सकता है। इच्छाशक्ति से बढ़कर कुछ नहीं, कोरोना भी नहीं.....