दल जीते पर देश कोरोना के दलदल में जा फंसा

ऋतुपर्ण दवे
बंगाल में चुनाव हो गए। चार अन्य राज्यों में भी हुए। उप्र सहित कुछ अन्य राज्यों में पंचायती चुनाव भी साल के शुरू से अब तक होते रहे। यह कहना गलत होगा कि महामारी से जूझ रहे देश को 5 राज्यों के नतीजों का बेमन से इंतजार था। हां, लड़ने वाले दलों व लड़ाका उम्मीदवारों को जरूर था होना भी चाहिए।

इस बार देश में कोरोना को फैलने का यही मौका था। यह बहुतेरों की धारणा है। कुछ भी हो देश भर में हर कहीं धधकती चिताओं के धुंए और कब्रिस्तान में रात-दिन खुद रहे गढ़्ढ़ों, कुत्तों के शमसान में इंसानों के अंतिम संस्कार की तैयारी के बीच स्वतंत्र भारत के इतिहास में शायद पहला मौका होगा जब चुनाव जीतने या हारने के जश्न की असल खुशी कहीं दिखती नहीं है। खुश होने वाला आम हिन्दुस्तानी बेचारा या तो खुद या फिर किसी अपने के लिए फिक्रमन्द है या फिर एक-एक सांस के लिए अस्पताल के दरवाजे पर या ऑक्सीजन के इंतजाम के लिए दर-दर की ठोकर खा रहा है।

इससे भी आगे कई तो अपनों को खोने के गम के आगे नतीजे आना है ये भी भूल चुके हैं। जीतने वालों के मन में लड्डू जरूर फूट रहे होंगे, लेकिन अब वो भी शर्मिन्दा हैं कि मिठास बांटे तो किसे?

थोड़ा पीछे चलते हैं। 27 फरवरी को 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों व अन्य कुछ उपचुनावों के ऐलान वाले दिन ही देश में केवल 16 हजार 805 कोरोना संक्रमितों के नए मामले आए थे। उसी दिन भारत में 111 लोगों ने कोरोना से जान गंवाई। लेकिन यह तो सबको लगता था कि कोरोना जल्द खत्म होने वाला नहीं। डर वाजिब था। लेकिन चुनाव आयोग एक स्वायत्त तथा अर्ध-न्यायिक संस्था होने के नाते किताबों में लिखे कानूनों से बंधा और मजबूर था! दुनिया जानती थी कि भारत कोरोना से उबरा नहीं है, दूसरी लहर सुनामी बनने वाली है। बेबस कहें या मजबूर इन चुनावों को लेकर आयोग पर भी सवालों की बौछार कम नहीं थी।

आखिर में तो अदालतों ने भी हत्या के मुकदमें तक की चेतावनी दे दी। लेकिन देश चरणबध्द तरीके से हो रहे चुनावों खासकर बंगाल को लेकर अजीब सी रस्साकशी और शब्द बाणों की बौछार देखता रहा। बारी-बारी से चुनाव होते रहे। कोरोना पसरता रहा दिग्गज चुनावी सभाओं में एक-दूसरे को पछाड़ते रहे और बेखोफ कोरोना देश को।

चुनाव लड़ने की रहनुमाओं ने पूरी तैयारी की थी। बस तैयारी नहीं थी तो कोरोना से लड़ने की। मंत्रालय से लेकर तमाम आयोग, नीति निर्माताओं से लेकर पालन कराने वाले इतने मासूम, अनजान और बेखबर कैसे थे? अमेरिका, ब्राजील सहित तमाम भुक्तभोगियों की हकीकत और नए वैरिएंट, नए म्यूटेशन के बारे में सब कुछ जानते हुए भी जैसे कुछ पता ही नहीं हो? तमाम चेतावनियों और कुछ बड़ी बैठकों में ऑक्सीजन की महत्ता और कमीं को लेकर गंभीर चर्चाओं के बावजूद क्या तैयारी थी सामने है। चुनाव चलते रहे, कोरोना फैलता रहा। ऑक्सीजन के लिए पूरे देश में हा हाकार मचा। विडंबना देखिए बन्द कमरों में मास्क पहने और जन सभाओं में खुले मुंह नेताओं के भाषणों को देश देखता रहा।

कहीं विधायिका, कार्यपालिका के बीच तो कहीं केन्द्र और राज्यों के बीच आरोप-प्रत्यारोपों की जूतमपैजार पर कोरोना भारी पड़ने लगा। चुनावों का उफान तो कोरोना का तूफान जैसे एक दूसरे को पटखनी देने की कसम खा चुके हों। अप्रेल का दूसरा पखवाड़ा भारत पर बहुत भारी पड़ा। देखते ही देखते बड़े से बड़े और छोटे से छोटे हर आम और खास अस्पताल भर गए। एक-एक सांस के लिए शुरू में सिफारिशों का दौर चला। जल्द वह वक्त भी आया जब सिफारिश करने वाले अपने लिए ही सिफारिश की जुगाड़ करते और गिड़गिड़ाते दिखे। कुछ तो खास तवज्जों के बाद भी चले गए और कइयों ने बिना इलाज अपनों की आंखों के सामने दम तोड़ दिया। ऐसा मंजर मौजूदा देशवासियों ने कभी नहीं देखा था।

21 वीं सदी के कम्प्यूटर और सुपरसोनिक युग में व्यवस्थित, सुसज्जित, तकनीकपूर्ण, सेन्सर और लेजर सुविधाओं से लैस स्वास्थ्य सुविधाएं भी हांफने लगीं। आम तो छोड़िए खास की भी गलतफहमियां एक-एक झटके में टूटती चली गईं। सरकारी तो सरकारी निजी अस्पतालों के बाहर, खुले आसमान के नीचे, बड़ी-बड़ी एयूवी गाड़ियों में नोटों से भरे बटुए वाले एक-एक सांस के लिए अपनी आंखों के सामने अपनों को दम तोड़ते देखने को मजबूर हो गए। हो सकता है सुविधाओं या संपन्नता की गलतफहमीं का खामियाजो ही भुगत रहे हों। लेकिन देश कराह उठा।

देश की कई अदालतों को स्वतः संज्ञान लेकर आगे आना पड़ा। सांस के सौदागरों को फांसी पर लटकाने जैसी चेतावनी तक देनी पड़ी। आनन-फानन में रोड, रेल और हवाई जहाजों से इंसानों की सांस के टैंकर ढ़ुलने लगे। लेकिन यमराज के कोरोना दूतों के आगे सब फीके पड़ गए। व्यवस्थाओं के बढ़ाने के ढ़िंढ़ोरे और उछल कूद के बावजूद न कोरोना का कहर कमा न बढ़ती मौतों का सिलसिला थमा। चुनावों के बीच कोरोना का खूब खेला चला। क्या आम क्या खास, क्या मुवक्किल, क्या पैरोकार, क्या पुलिस, क्या पत्रकार, क्या जज, क्या कलाकार, क्या जेलर, क्या कैदी, क्या डॉक्टर, क्या मास्टर, क्या मेडिकल स्टाफ, क्या आम कर्मचारी, क्या कलेक्टर क्या कमिश्नर, क्या मुख्यमंत्री, क्या मंत्री और क्या संतरी यहां तक कि चुनाव में ताल ठोकता प्रत्याशी किसी को भी कोरोना ने नहीं बख्शा।

30 अप्रेल को देश ने एक दिन में विश्व में सर्वाधिक संक्रमितों का लगातार अपना ही रिकॉर्ड तोड़ा जो 4 लाख 1 हजार 993 रहा. जबकि एक दिन में मृत्यु का भी आंकड़ा भी 1 मई को 3 हजार 689 हो गया।

कोरोना के आंकड़ों और चुनावी नतीजों से इतर भी कई सवाल हैं। कोरोना की लहर के बीच क्या चुनाव टाले नहीं जा सकते थे? यही वह सवाल है जिसका जवाब जोखिम के बावजूद वहां के मतदाताओं ने दे ही दिया। चुनावी राज्य केरल, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, बंगाल, असम, पुड्डूचेरी से चुनाव के दौरान कोरोना के बड़े आंकड़ों और हो रही मौतों से अदालतें तक चिन्तित हुईं। लेकिन न आयोग चेता न सरकारों ने ही पहल की। अब जीतने वाले जीते, हारने वाले हार गए। कई धारणाएं टूटी, कई आशंकाएं सही हुई। हर ओर पॉलीथिन में पैक चिताओं और जनाजे सम्मान के साथ अंतिम संस्कार के लिए लाइन में लग गए और नतीजों के आंकड़ों ने देश की राजनीति में नया तूफान ला खड़ा किया।

चुनाव जरूरी या महामारी से लड़ना? अब राजनीतिक गलियारों में यह तूफान उठेगा जो भारतीय राजनीति में बड़ी उथल-पुथल का कारण बन सकता है। फिलाहाल दल तो जीत गए लेकिन देश कोरोना से हारता, हांफता जरूर दिख रहा है। काश अब भी कोरोना पर वन नेशन वन डायरेक्शन होता ताकि पिछले बार की तरह कोरोना की चैन को तोड़ा जा सकता।

इस आलेख में व्‍यक्‍‍त विचार लेखक के निजी अनुभव और निजी अभिव्‍यक्‍ति है। वेबदुनि‍या का इससे कोई संबंध नहीं है। 

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