नरेंद्र मोदी तीस मई को अपने प्रधानमंत्री काल के सात वर्ष पूरे कर लेंगे। कहा यह भी जा सकता है कि देश की जनता प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के साथ अपनी यात्रा के सात साल पूरे कर लेगी। कोरोना महामारी के प्रकोप और लगातार हो रही मौतों के शोक में डूबा हुआ देश निश्चित ही इस सालगिरह का जश्न नहीं मना पाएगा। सरकार और सत्तारूढ़ दल के पास तो ऐसा कुछ कर पाने का वैसे भी कोई नैतिक अधिकार नहीं बचा है।
कहा जा रहा है कि मरने वालों के आंकड़े जैसे-जैसे बढ़ रहे हैं, नदियों के तटों पर बिखरी हुई लाशों के बड़े-बड़े चित्र दुनिया भर में प्रसारित हो रहे हैं, प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का ग्राफ भी उतनी ही तेज़ी से गिर रहा है। इस गिरावट को लेकर आंकड़े अलग-अलग हैं पर इतना तय बताया जाता है कि उनकी लोकप्रियता इस समय सात सालों के अपने न्यूनतम स्तर पर है।
प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का सर्वेक्षण करने वाली एक एजेंसी के अनुसार, सर्वे में शामिल किए गए लोगों में सिर्फ़ 37 प्रतिशत ही इस समय प्रधानमंत्री के कामकाज से संतुष्ट हैं (पिछले साल 65 प्रतिशत लोग संतुष्ट थे)। भाजपा चाहे तो इसे इस तरह भी पेश कर सकती है कि मोदी के ख़िलाफ़ इतने दुष्प्रचार के बावजूद 37 प्रतिशत जनता अभी भी उनके पक्ष में खड़ी हुई है। और यह भी कि इतने विपरीत हालात में भी इतने समर्थन को ख़ारिज नहीं किया जा सकता।
विश्व बैंक के पूर्व आर्थिक सलाहकार और ख्यात अर्थशास्त्री कौशिक बसु के इस कथन से सहमत होने के लिए हो सकता है देश को किसी और भी बड़े पीड़ादायक अनुभव से गुजरना पड़े जिसका कि मोदी मौक़ा नहीं देने वाले हैं: 'लगभग सभी भारतीय, जो अपने देश से प्रेम करते हैं, 2024 की उसी तरह से प्रतीक्षा कर रहे हैं जिस तरह की प्रतीक्षा उन्होंने 1947 में की थी। शक है मोदी उस क्षण को कभी जन्म भी लेने देंगे। हम अपने प्रधानमंत्री की क्षमता को अगर बीते सात वर्षों में भी नहीं परख पाए हैं तो अगले तीन साल उसके लिए बहुत कम पड़ेंगे। हम उस शासन तंत्र की निर्मम ताक़त से अभी भी अपरिचित हैं जो एकाधिकारोन्मुख व्यवस्थाओं के लिए अभेद्य कवच का काम करती है।
अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता को लेकर लगातार किए जाने वाले सर्वेक्षणों में भी तब काफ़ी गिरावट दिखाई गई थी। वहाँ राष्ट्रपति चुनावों (नवम्बर 2020) के पहले तक कोरोना से दुनिया भर में सबसे ज़्यादा (पांच लाख) लोगों की मौतें हो चुकी थीं। अर्थव्यवस्था ठप पड़ गई थी। बेरोज़गारी चरम पर थी। इस सबके बावजूद बाइडन के मुक़ाबले ट्रम्प की हार केवल सत्तर लाख के क़रीब (पॉप्युलर) मतों से ही हुई थी। ट्रम्प आज भी अपनी हार को स्वीकार नहीं करते हैं। उनका आरोप हैं कि उनसे जीत चुरा ली गई। ट्रम्प फिर से 2024 के चुनावों की तैयारी में ताक़त से जुटे हैं। ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी से उन तमाम लोगों को मार्गदर्शक मंडल में पटका जा रहा है जो उनकी हिंसक, नस्लवादी और विभाजनकारी नीतियों का विरोध करने की हिम्मत करते हैं।
एंड्रयू एडोनिस एक ब्रिटिश राजनीतिक पत्रकार हैं। उन्हें पत्रकार राजनेता भी कह सकते हैं। वे ब्रिटेन की लेबर पार्टी से जुड़े हैं और प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर की सरकार में पांच वर्ष मंत्री भी रहे हैं। उनकी कई खूबियों में एक यह भी है कि वह भारत की राजनीति पर लिखते रहते हैं। एडोनिस ने पिछले दिनों अपने एक आलेख में बड़ा ही कठिन सवाल पूछ लिया कि असली मोदी कौन है और क्या है? इसके विस्तार में वे घूम-फिरकर तीन सवालों पर आ जाते हैं : मोदी अपने आपको किस देश का नेतृत्व करते हुए पाते हैं? भारत का या किसी हिंदू भारत का? मोदी भारत में प्रजातंत्र की रक्षा कर रहे हैं या उसका नाश कर रहे हैं? क्या मोदी, जैसा कि वे अपने आपको एक सच्चा आर्थिक नवोन्मेषी बताते हैं, वैसे ही हैं या फिर कट्टरपंथी धार्मिक राष्ट्रवादी, जो आधुनिकीकरण को अपनी सर्वोच्चता स्थापित करने का हथियार बनाकर अपने प्रस्तावित सुधारों का लाभ एक वर्ग विशेष को पहुंचाना चाहता है? एंड्रयू एडोनिस ने मोदी के प्रधानमंत्रित्व को लेकर जो सवाल पूछे हैं उनसे कठिन सवाल उस समय पूछे गए थे जब वे एक दशक से अधिक समय तक गुजरात के मुख्यमंत्री रहे थे। उन सवालों के जवाब कभी नहीं मिले।
मोदी ने भाजपा को 1975 से 1984 के बीच की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में बदल दिया है जिसमें देवकांत बरुआ जैसे चारणों ने इंडिया को इंदिरा और इंदिरा को इंडिया बना दिया था। पिछले सात सालों में भाजपा में बरुआ के लाखों-करोड़ों क्लोन खड़े कर दिए गए हैं। स्थिति यह है कि समूची व्यवस्था पर कब्जा जमा लेने वाले इन लोगों के जीवन-मरण के लिए मोदी ऑक्सीजन बन गए हैं। इनमें सबसे बड़ी और प्रभावी भागीदारी बड़े औद्योगिक घरानों, मीडिया प्रतिष्ठानों, मंत्रियों और अधिकारियों के अपवित्र गठबंधन की है। इस गठबंधन के लिए ज़रूरी हो गया है कि वर्तमान व्यवस्था को किसी भी कीमत पर सभी तरह और सभी तरफ़ से नाराज़ जनता के कोप से बचाया जाए। लाशों को ढोते-ढोते टूटने के कगार पर पहुंच चुके लोगों से यह गठबंधन अंत में यही एक सवाल करने वाला है कि वे हिंसक अराजकता और रक्तहीन एकदलीय तानाशाही के बीच किसे चुनना पसंद करेंगे?
प्रधानमंत्री अपने सात साल के सफ़र के बाद अगर किसी एक बात को लेकर इस समय चिंतित होंगे तो वह यही हो सकती है कि हरेक नागरिक कोरोना से उपजने वाली प्रत्येक परेशानी और जलाई जाने वाली हरेक लाश के साथ उनके ही बारे में क्यों सोच रहा है? ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ! यह एक ऐसी एंटी-इंकम्बेन्सी है जिसमें इंडिया तो राजनीतिक विपक्ष-मुक्त है पर महामारी ने जनता को ही विपक्ष में बदल दिया है। प्रधानमंत्री जनता का दल-बदल नहीं करवा सकते। महसूस किया जा सकता है कि प्रधानमंत्री इस समय काफ़ी असहज दिखाई पड़ते हैं। वे मौजूदा हालात को लेकर चाहे जितना भी भावुक दिखना चाह रहे हों, उन पर यक़ीन नहीं किया जा रहा है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)