विश्व की राजनीति में ट्रंपीय मोड़

शरद सिंगी
विगत कुछ समय में विश्व का घटनाक्रम एक महत्वपूर्ण परिवर्तन के दौर से गुजरा जिसके हम सब साक्षी बने, जब डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने। यदि विगत कुछ वर्षों के इतिहास की बात करें तो इस घटना से पहले दुनिया में तब एक बदलाव आया था, जब 25 वर्ष पूर्व 26 दिसंबर 1991 को सोवियत संघ अपना संघीय स्वरूप खोकर विघटित हुआ था तब रातोरात रूस अपनी महाशक्ति की मान्यता खो बैठा था। इस विघटन में शीघ्रता लाने के लिए अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन की भूमिका भी महत्वपूर्ण मानी जाती रही है। 
सोवियत संघ के पतन के साथ ही शीतयुद्धकाल समाप्त हुआ। इस घटना से पूर्व दो महाशक्तियों के बीच में विभाजित विश्व यकायक अपना शक्ति संतुलन खो बैठा। शक्ति के केंद्र के रूप में एकमात्र अमेरिका के बच जाने से दुनिया एकध्रुवीय हो गई थी। फलत: अमेरिका, विश्व का सर्वशक्तिमान राष्ट्र बन गया और उसके इशारे पर दुनिया नाचने लगी। दुनिया का समकालीन राजनीतिक इतिहास शीतयुद्धकाल की दुनिया और शीतयुद्ध के बाद की दुनिया में विभाजित हो गया। 
 
इस घटना के 25 वर्ष पूरे हुए और दुनिया ने फिर अपना चेहरा बदला। इस बार परिवर्तन की बारी अमेरिका की थी और उसका सेहरा रूस के राष्ट्रपति पुतिन के सिर बंधा। विश्व के राजनीतिक विशेषज्ञ मान चुके हैं कि विश्व के मंच पर पुन: एक ऐसी घटना हुई है जिससे अब दुनिया ट्रंप के पहले की दुनिया और ट्रंप के बाद की दुनिया के नाम से जानी जाएगी। ऐसा इसलिए, क्योंकि अमेरिका की राजनीति में एक अजीबोगरीब परिवर्तन आया है। एक गैर राजनीतिक व्यक्तित्व, प्रजातंत्र की स्थापित मान्यताओं एवं परंपराओं को चुनौती देते हुए, हर अवरोध को पार करते हुए, एक के बाद एक राजनीतिक धुरंधरों को परास्त करते हुए देखते ही देखते अमेरिका की राजनीति के शिखर पर पहुंच गया। 
 
जब इस तरह की युग बदलने वाली घटनाएं होती हैं तो ये स्वत:स्फूर्त (तात्क्षणिक) नहीं होतीं और न ही संयोग से जन्म लेती हैं। ये परिस्थितिजन्य होती हैं और इनके पीछे घटनाओं का एक दीर्घ सिलसिला होता है। न तो सोवियत संघ का टूटना रातोरात हुआ और न ही ट्रंप का राष्ट्रपति बनना। 
 
ट्रंप सन् 2000 में भी राष्ट्रपति पद के लिए खड़े हुए थे किंतु दलों के प्रारंभिक दौर में ही बाहर हो गए थे। तब परिस्थितियां ट्रंप जैसे व्यक्तित्व के अनुकूल नहीं थी, किंतु परिस्थितियों का निर्माण होता गया और कई वर्षों की प्रसव वेदना के बाद इतिहास के गर्भ से ट्रंप का प्रादुर्भाव हुआ। एक के बाद एक ऐसी घटनाएं होती गईं, जो संकेत देती गईं कि कुछ अनोखा होने वाला है किंतु विश्व के विशेषज्ञ न तो इसको आता देख सके और न ही विरोधी एवं मीडिया अपनी पूरी शक्ति लगाने के बाद भी इस होनी को रोक सके। 
 
अपने प्रथम भाषण में ट्रंप ने राजनीतिज्ञों को ही आड़े हाथों लिया। अपने साथ मंच पर बैठे पूर्व राष्ट्रपतियों और बड़े संवैधानिक पदों पर बैठे राजनीतिज्ञों की परवाह किए बगैर उनके कार्यों की बेबाक आलोचना की। राजनीतिज्ञों पर काम कम, कोरी बातें करने एवं आम जनता की अनदेखी का आरोप लगाया। 
 
अपने चुनावी प्रचार में ट्रंप शक्तिशाली मीडिया से भी बिना झिझक पंगा मोल लेते रहे। मीडिया भी कोई मौका चूक नहीं रहा ट्रंप की आलोचना करने में। अब मीडिया ने ट्रंप के प्रथम भाषण की आलोचना करते हुए कहा कि ये तो चुनावी भाषण है। ऐसे मौके पर तो ट्रंप को राष्ट्र के सभी वर्गों को साथ रखने वाला भाषण देना चाहिए था। सच तो यह है कि मीडिया को ऐसे भाषण सुनाने की आदत नहीं है। लेकिन मीडिया यह समझ नहीं पा रहा है कि ट्रंप कोई परंपरागत राजनीतिज्ञ नहीं हैं और उनसे लीक पर चलने की उम्मीद रखना बेकार है। 
 
राजनेता प्रजातंत्र की दुहाई देकर जनता से हर आम चुनावों में वोट मांगते हैं और जनता एक के बाद एक सरकारें चुनती जाती हैं, हर बार कुछ बेहतर हो जाने की उम्मीद के साथ। लेकिन कभी ही कोई सरकार जनता की उम्मीदों पर खरी उतरती दिखाई देती है, क्योंकि प्रजातंत्र की भी अपनी मजबूरियां हैं। उसमें भी कुछ ऐसी दरारें हैं जिनके माध्यम से अयोग्य लोग प्रवेश कर जाते हैं। या यों कहें कि नाकाबिलों की लंबी फौज इकट्ठी हो जाती है। यही कारण है कि राजनीति शनै:- शनै: अपनी पवित्रता खोती जा रही है। इस अकर्मण्य राजनीतिक फौज से यदि छुटकारा चाहिए तो सचमुच ट्रंप जैसे गैर-राजनीतिज्ञों की आवश्यकता है।
 
केवल देखना अब ये है कि क्या गैर-राजनीतिज्ञ ट्रंप अपनी ट्रंप चालें खेलकर राजनीति को स्वच्छ और जनता के हित में कदम उठा पाएंगे या फिर केवल ट्रंपेट ही बजाते रहेंगे?
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