Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

वेंटीलेटर पर स्कूल: सरकारी तंत्र ने शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने में कोई कमी नहीं छोड़ी

हमें फॉलो करें वेंटीलेटर पर स्कूल: सरकारी तंत्र ने शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने में कोई कमी नहीं छोड़ी
webdunia

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

केन्द्र एवं राज्यों की सरकारें नागरिकों के नौनिहालों के भविष्य को संवारने के लिए शासकीय विद्यालयों के माध्यम से शिक्षित करने के लिए भले ही प्रयत्नशील है, किन्तु वहीं दूसरी ओर शासकीय विद्यालयों के साथ छलावा कर देश की पूरी पीढ़ी को अंधकार में डालने का कार्य कर रही हैं।

वर्तमान समय में देश-प्रदेश के समस्त शासकीय विद्यालयों- प्राथमिक/माध्यमिक/हाईस्कूल/उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों का दम घुट रहा है।

प्रदेश के किसी भी शासकीय विद्यालय की ओर यदि नजर दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि विषयवार शिक्षकों की भारी कमी एवं मूलभूत शैक्षणिक सुविधाओं के अभाव के दौर से समस्त विद्यालय गुजर रहे हैं।

इन विद्यालयों में सुविधाओं की बानगी देखिए कि- इतने विस्तृत प्रशासनिक एवं अकादमिक ढांचे के होते हुए भी शिक्षक, भवन, खेल मैदान, पेयजल व्यवस्था, फर्नीचर जैसी मूलभूत अनिवार्य आवश्यकताओं की कमी एवं निरंकता से जूझना पड़ रहा है।

सरकारों में बैठे हुए महाबलियों ने सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था का कुछ इस तरीके से दमन किया है कि कराह की विभीषिका में वर्षों से शासकीय विद्यालय तड़प रहे हैं। हालातों को नियंत्रित करने की बजाय इन विद्यालयों को न तो मौत का फरमान ही सुना रहे और न ही व्यवस्थाओं की समुचित उपलब्धता के माध्यम से शैक्षणिक जीवन के अभयदान का वरदान दे रहे।

राजनैतिक दलों की सरकारों के बदलने के साथ ही नीतियों में व्यापक पैमाने पर हेरफेर किया जाता है, जिसकी जैसी मंशा आई वैसे नियम-कानूनों की औपचारिकताओं को स्कूलों के ऊपर थोप दिया जाता है। "शिक्षक" शब्द की महत्ता को राजनैतिक कुटिलता ने धूलधूसरित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

कभी शिक्षाकर्मी तो कभी संविदा तो कभी अध्यापक संवर्ग के नाम पर शिक्षकों को आर्थिक एवं मानसिक यंत्रणा देने के लिए बड़ी लगन के साथ जिम्मेदारियों का निर्वहन किया गया है। अतिथि शिक्षकों की भर्ती कर कालखंड के अनुसार शैक्षणिक मजदूरी की प्रक्रिया की शुरुआत कर शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने के लिए विभिन्न नवाचार किए जाते रहते हैं।

और तो और अतिथि शिक्षकों के बलबूते ज्यादातर शासकीय विद्यालयों को संचालित किया जा रहा है क्योंकि शासकीय विद्यालयों में स्थायी शिक्षक नाममात्र के लिए हैं।

शासकीय विद्यालयों में शिक्षकों की अप्रत्याशित रिक्तियों के बावजूद भी वर्षों से भर्ती नहीं की जा रही है क्योंकि इसके पीछे भी उनका अघोषित लक्ष्य तो सरकारी स्कूलों की कमर तोड़ने का ही दिख रहा है। इससे इस प्रश्न की आशंका तीव्र हो जाती है कि क्या यह सब केन्द्र एवं राज्य सरकारों के द्वारा शासकीय स्कूलों की व्यवस्था को तोड़ने के लिए ही किया जा रहा है?

सोचिए! शिक्षा की रसधार से विद्यार्थियों को पोषित करने वाला शिक्षक ही जब राजनैतिक प्रपंचों की चक्कियों में पिसता रहेगा तो उस नींव की क्या मजबूती होगी जो आगे चलकर देश का भविष्य तय करने में अपना योगदान देगी? सरकारी तंत्र ने शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने के लिए कोई कमी नहीं छोड़ी है।

शिक्षकों को गैर शिक्षकीय कार्यों में संलग्न कर उन्हें अध्यापन कार्य से पृथक कर दिया इसके बाद शत-प्रतिशत परिणाम लाने की विवशता भी उनके कंधों में लाद दी गई। सांसद, विधायक से लेकर जिला पंचायत ,जनपद पंचायत सहित विभिन्न शासकीय कार्यालयों में शासन की योजनाओं के क्रियान्वयन, सूचना देने सहित तमाम कार्यों के लिए विद्यालयीन कार्य से मुक्त कर दिया जाता है।

चाहे जनगणना का कार्य हो या निर्वाचन सम्बंधित सभी कार्यक्रमों यथा- चुनाव, मतगणना, मतदाता सूची तैयार करना और सभी सर्वेक्षण कार्य करना इसके साथ ही विभागीय कार्यालयों में बाबूगीरी के लिए शिक्षक बड़ा आसान सा टारगेट मिल जाता है।

प्रथमतया विद्यालयों के लिए पर्याप्त शिक्षक नहीं है इसके बावजूद भी जो शिक्षक बचे उन्हें जब चाहा तब हुक्मरानों और प्रशासकीय अधिकारियों ने अपनी इच्छानुसार इधर से उधर जिम्मेदारियों का बोरिया-बिस्तर बांधते रहे आए।

शिक्षक विद्यालयों का मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम और उससे सम्बंधित सारे उत्तरदायित्वों का निर्वहन करे अन्यथा उसकी सेवा पर दो-धारी तलवार लटकती ही रहती है। अब ऐसी स्थितियों में शिक्षक करे तो करे क्या?

पैने दृष्टिकोण से अगर इन समस्त बातों को जोड़कर देखा जाए तो सरकारों ने शिक्षकों को अध्यापन कार्य से मुक्त करने की अनौपचारिक तौर पर योजना ही बना रखी है क्योंकि जब शिक्षण कार्य के लिए- "शिक्षक" ही नहीं रहेंगे तो शासकीय विद्यालयों में नागरिक अपने बच्चों का प्रवेश ही नहीं कराएंगे, जब छात्र ही नहीं रहेंगे तो काहे का विद्यालय और शिक्षकों की फिर क्या आवश्यकता?

हालांकि हर चीज के दो पहलू होते हैं ऐसा ही शिक्षा विभाग में भी है- कुछ शिक्षकों को तो अध्यापन कार्य के अलावा और सारे कार्य दे दीजिए तो वे उसे अमृततुल्य मानकर निर्वहन करते रहेंगे। क्योंकि उन्हें अन्य कार्यों की आड़ में खुली छूट मिलती है जिससे उन्हें छात्रों के भविष्य अर्थात देश के भविष्य से कोई मतलब ही नहीं है।

उनके लिए- शिक्षण कार्य जाए चूल्हे में, उनकी नौकरी बनती ही है और वेतन बड़े ठसक के साथ प्राप्त होता ही है।
शासकीय विद्यालयों के कुछ शिक्षकों के निजी विद्यालय उनके परिजनों के नाम से संचालित हो रहे हैं जिससे वे अपने शिक्षण कार्य को छोड़कर अपने संस्थान का प्रचार-प्रसार करते हुए मुनाफे के तौर पर मोटी कमाई से बैंक बैलेंस बढ़ा रहे हैं।

इसके पीछे भी सरकारी तंत्र की भर्रेशाही ही है जो बेलगाम शैक्षणिक व्यवसाइयों को "शिक्षक" के नाम पर कलंक लगाने के लिए सुअवसर प्रदान करते हैं। इतना ही नहीं शिक्षा क्षेत्र के सरकारी बजट की ओर जब ध्यान देते हैं तो केन्द्र के द्वारा देश की जीडीपी का 2.7 फीसदी ही शिक्षा क्षेत्र में खर्च किया जाता है, जबकि नीति आयोग ने वर्ष -2022 तक देश की जीडीपी का 6 फीसदी हिस्सा शिक्षा क्षेत्र पर खर्च करने की जरूरत बताई है।

ऐसे में सरकारी इशारे समझिए कि माजरा क्या है? देश के कुछ राज्यों को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो लगभग सभी राज्य अपने वित्तीय बजट में शिक्षा की ओर विशेष ध्यान ही नहीं देते हैं, अब इससे ही स्पष्ट हो जाता है कि शिक्षा के लिए सरकारें कितनी उदासीन हैं। क्योंकि अगर सरकारें सचमुच में नागरिकों के लिए अच्छी शिक्षा की बात करती हैं तो शासकीय विद्यालयों की गुणवत्ता के लिए विषयवार शिक्षकों सहित आधुनिक तकनीकी के समस्त संसाधनों के साथ ही निजी स्कूलों की भांति ही हाईटेक व्यवस्थाएं क्यों नहीं उपलब्ध करवाते?

छुटभैय्यों से लेकर बड़े-बड़े राजनेताओं सहित व्यवसाइयों ने "रूपए के वजन" और अपने रसूख के चलते मानदंडों के प्रतिकूल निजी स्कूलों की मान्यता प्राप्त कर शिक्षा का व्यवसाय जोरों-शोरों से चला रहे हैं, इसके लिए चाहिए छात्र जो उनका ग्राहक है।

अगर शासकीय विद्यालयों में समुचित शिक्षा प्राप्त होने लगेगी तो शिक्षा का व्यवसाय खत्म हो जाएगा ,ऐसे में वे सभी क्यों चाहेंगे कि शासकीय स्कूलों की स्थिति उच्च गुणवत्तापूर्ण हो ? इन सभी से एक ही बात स्पष्ट हो रही है कि यह सब शासकीय विद्यालयों को बन्द करने की ही कवायद लग रही है अन्यथा आज सरकारी स्कूल वेंटीलेटर में न पड़े होते।

जागिए! चेतिए और देश के साथ छल न करते हुए शासकीय स्कूलों का जीर्णोद्धार कीजिए इसके साथ ही समस्त शासकीय कर्मचारियों और जनप्रतिनिधियों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में प्रवेश की अनिवार्य बाध्यता का कानून लागू करिए मुश्किल से एक वर्ष का समय नहीं लगेगा शासकीय विद्यालयों का "स्वर्णकाल" आ जाएगा।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

महाशिवरात्रि 2020 : इस दिन भगवान शिव के साथ भगवान विष्णु भी देते हैं वरदान, पढ़ें विशेष मंत्र