पर्यावरण संरक्षण सर्वोत्तम मानवीय संवेदना

सुशील कुमार शर्मा
मनुष्य और पर्यावरण का परस्पर गहरा संबंध है। अग्नि, जल, पृथ्वी, वायु और आकाश यही किसी न किसी रूप में जीवन का निर्माण करते हैं, उसे पोषण देते हैं। इन सभी तत्वों का सम्मिलित स्वरूप ही पर्यावरण है।


 
पर्यावरण संरक्षण 5 स्तरों पर संभव होगा- 1. मानव-प्रकृति एवं परमेश्वर के संबंध, 2. मानव और अन्य जीव-जंतुओं का संबंध, 3. मानव और प्रकृति के विविध रूपों का संबंध, 4. मनुष्यों के आपसी संबंध, 5. वर्तमान पीढ़ी का भविष्य की पीढ़ी के संबंध।
 
जैसे-जैसे मनुष्य प्रकृति के अनुदानों से लाभान्वित होता गया, उसके लोभ में भी बढ़ोतरी होती गई। लोभ की वृत्ति ने श्रद्धा के भाव को कम कर दिया। इसके साथ ही प्रकृति पर आधिपत्य जमाने की सोच बढ़ती गई। प्रकृति पर आधिपत्य जमाने का मतलब यह है कि हम प्रकृति को कितना भी नुकसान पहुंचाएं, इसकी तनिक भी चिंता नहीं। 
इस क्रम में यूरोपीय आधुनिक विधा के महत्वपूर्ण विचारक फ्रांसीसी बेकन ने तो यहां तक कह डाला कि मनुष्य का प्रमुख कार्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करना है और उसे अपना गुलाम बनाना है।
 
पर्यावरण प्रदूषण का स्वरूप कोई भी हो, परंतु उससे होने वाली हानि में सर्वप्रथम मानवीय स्वास्थ्य-संकट है। समाज का हित पर्यावरण की रक्षा में है एवं पर्यावरण स्वस्थ है तो व्यक्ति भी स्वस्थ रहेगा। मानव जाति को भटकने से महाविनाश से बचाना है तो यही एकमात्र उपचार अब बचा है।
 
विशेषज्ञों का इस बारे में यही सुझाव है कि मनुष्य को पर्यावरण के संतुलन को किसी भी कीमत पर बिगाड़ना नहीं चाहिए। जंगल, वृक्ष, वन-संपदा, प्राकृतिक वैभव समूची मनुष्यता की सुरक्षा कवच हैं। इसे सुरक्षित रखकर ही हम भूकंप जैसी आपदाओं से स्वयं को धूलिसात होने से बचा सकते हैं। पर्यावरण का प्राकृतिक वैभव ही हमारे उज्ज्वल भविष्य की सुनिश्चित संभावना को साकार करने में समर्थ है।
 
इन दिनों संपूर्ण विश्व में समग्र स्वस्थता के प्रति चेतना तो जगी है और उसकी प्राप्ति के लिए तरह-तरह के उपाय और उपचार भी हो रहे है, पर पर्यावरण को बचाए बिना इस प्रकार के प्रयास आधे, अधूरे और अधकचरे ही कहे जाएंगे।
 
 

प्राचीनकाल में पर्यावरण संरक्षण की महत्ता-
 
प्राचीन भारत के वैदिक वाङ्मय में ऐसे अनेक सूक्त-ऋचाएं, उक्तियां व कथानक मिलते हैं जिनमें प्रकृति के प्रति गहरा श्रद्धाभाव है।
 
यजुर्वेद का अध्ययन इस तथ्य का संकेत करता है कि उसके शांतिपाठ में पर्यावरण के सभी तत्वों को शांत और संतुलित बनाए रखने का उत्कट भाव है, वहीं इसका तात्पर्य है कि समूचे विश्व का पर्यावरण संतुलित और परिष्कृत हो।
 
ऋग्वेद की ऋचा कहती है- हे वायु! अपनी औषधि ले आओ और यहां से सब दोष दूर करो, क्योंकि तुम ही सभी औषधियों से भरपूर हो। 
 
सामवेद कहता है- इन्द्र! सूर्य रश्मियों और वायु से हमारे लिए औषधि की उत्पत्ति करो। हे सोम! आपने ही औषधियों, जलों और पशुओं को उत्पन्न किया है।
 
अथर्ववेद मानता है कि मानव जगत के अधिक सन्निकट है। व्यक्ति स्वस्थ, सुखी दीर्घायु रहे, नीति पर चले और पशु वनस्पति एवं जगत के साथ साहचर्य रखे।
 
वैदिक कर्मकांडों की अनेक विधाओं ने भी पर्यावरण संरक्षण और सुरक्षा का दायित्व निभाया है। रामायणकालीन सभी ग्रंथों में जड़ व चेतन सभी तत्वों को चेतना संपन्न बताया गया है। रामचरित मानस के उत्तरकांड में वर्णन मिलता है कि चरागाह, तालाब, हरित भूमि, वन-उपवन के सभी जीव आनंदपूर्वक रहते थे।
 
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गाई गई गीता में प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण बताया गया है। प्रकृति के कण-कण में सृष्टि का रचयिता समाया हुआ है।
 
पर्यावरण संरक्षण की इस सुदीर्घ एवं अतिप्राचीन परंपरा को आधुनिकता की आग ने भारी नुकसान पहुंचाया है। दोहन और शोषण, वैभव एवं विलास की रीति-नीति से पर्यावरण को संकट में डाल दिया है, फलत: जीवन भी संकटग्रस्त है तथा सब ओर विपन्नता है। 
 
वर्तमान स्थिति भयावह है 
 
पृथ्वी का अपनी धुरी पर गति का क्रम व उसकी ग्रहों से तथा अंतरिक्षीय किरणों से प्रभावित होने की स्थिति अब बदलती जा रही है। वातावरण में संव्याप्त धूलि कणों की मात्रा, कार्बन डाई ऑक्साइड, ओजोन की परतों पर जमाव तथा ज्वालामुखी विस्फोटों की श्रृंखला से पर्यावरण संतुलन बहुत बुरी तरह प्रभावित हुआ है। 
 
पृथ्वी का विकिरण संतुलन इससे अव्यवस्थित हुआ है तथा ओजोनोस्फीयर-आयनोस्फीयर की परतों में 'गैप्स' आ जाने से अंतरिक्षीय किरणों-घातक विकिरणों के पृथ्वी पर आने की आशंकाएं बढ़ गई हैं।
 
इन दिनों विनाश और सृजन के मध्य भयावह संघर्ष है। ध्वंस ने तो यह नीति अपनाई है कि मानवीय दुर्बुद्धि से लेकर पर्यावरण असंतुलन तक जितना संभव हो सके, अपनी मनमर्जी की जाए। रात जब आती है तो अंधकार घना हो जाता है। न तो सांस लेने के लिए शुद्ध हवा है, न पीने को स्वच्छ जल, यहां तक कि मिट्टी भी विषैले रसायनों के कारण निरापद नहीं रही। ऐसी स्थिति में ध्यान अनायास प्राकृतिक वातावरण की ओर खिंच जाता है।
 
अब तक वन्य प्रांतर ही ऐसे क्षेत्र थे जिन्हें इन सबसे अछूता कहा जा सकता था, पर पर्यटकों की बढ़ती भीड़ ने इन्हें कहीं का न रखा। वन-पर्वत सभी धीरे-धीरे इसकी चपेट में आ रहे हैं। अन्यों की स्थिति तो फिर भी ठीक कही जा सकती है, पर जिस दिव्यता के लिए हिमालय को पहचाना और बखाना जाता था, वह भी अब दयनीयता की कहानी कहने लगा है।
 
ऐसा अनुमान है कि एवरेस्ट मार्ग पर शिखर से ठीक पूर्व वाले शिविर-क्षेत्र में लगभग 80-85 हजार किलोग्राम कबाड़ पड़ा है। इनमें कनस्तर, डिब्बे, तम्बुओं के बारदाने, खाली ऑक्सीजन सिलेंडर, पॉलिथीन बैग, कार्टून, पुलोवर, जैकेट, स्लीपिंग बैग, बर्फ हटाने वाले फावड़े, बर्फ काटने वाली कुल्हाड़ियां, रस्से, जीवनरक्षक और दर्द-निवारक दवाइयों के पैकेट इत्यादि प्रमुख हैं।
 
पर्यावरण का विनाश स्वयं के अंत:करण का विनाश है- पर्यावरण में विघटन का तात्पर्य है अंत:करण में विघटन।
 
मनोवैज्ञानिक इस तथ्य पर अपने मंतव्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि पर्यावरण के विघटन के कारण हुआ अंत:करण का विघटन अपनी अभिव्यक्ति द्विविध रूपों में कर सकता है। प्रथम तो यह कि अंत:करण के विघटन का ज्वालामुखी व्यक्ति के अंत:करण को नष्ट करने के साथ बाहर उभरकर दूसरों को चपेट में ले लेगा। हिंसा आदि की अधिकांश घटनाएं प्रायः उपरोक्त कारण की उपज होती हैं। द्वितीय यह कि इस विघटन में व्यक्ति अंदर ही अंदर घुटता गया, अपने को नष्ट करता रहा। 
 
व्यवहार विज्ञानियों का मानना है कि ऐसा व्यक्ति हिंसा भले न करे किंतु वह पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर टूटने के साथ स्वयं अपने से भी टूट जाता है। मानसिक स्तर पर बढ़ता बिखराव मनोचिकित्सकों ही नहीं, विश्व-मनीषा के लिए चिंता का विषय है। रोगियों की बढ़ती जा रही दर का कारण परिवेश व पर्यावरण में उत्पन्न की गई विकृतियां हैं। परिवेश की इस परिधि में समाज एवं वातावरण दोनों ही समाहित हैं।
 
मनुष्य के जैविक आयाम, सामाजिक आयाम के साथ ही एक और इकॉलॉजिकल आयाम भी है। इन तीनों के साथ उसका एक-सा भावनात्मक संबंध है। इनमें से किसी के भी टूटने से गड़बड़ी का होना स्वाभाविक ही बन पड़ता है। स्वस्थ, समुन्नत और सुदृढ़ जीवन का सहज अर्थ है- इसके सभी आयाम सुगठित हों। उन्मादग्रस्त मन:स्थिति की विडंबना से मुक्ति पानी है तो उन मधुर संबंधों को पुनः स्थापित करना होगा, जो मानवीय अंत:करण मानव शरीर को उसके चहुंओर के पर्यावरण से जोड़ते हैं।
 
सामूहिक भागीदारी से ही पर्यावरण संरक्षण संभव-
 
3 जून को नर्मदा के संरक्षण के लिए संत भैयाजी सरकार के आह्वान पर संपूर्ण नरसिंहपुर जिला स्वस्फूर्त बंद हो गया था। किसी ने कोई दबाव नहीं डाला। इस आंदोलन से यह स्पष्ट हो गया कि पर्यावरण के संरक्षण में सामूहिक भागीदारी जरूरी है। 
 
प्रदूषित परिस्थितियों के भयावह घटाटोप में भविष्य का उजाला कहीं से नजर नहीं आ रहा। दुनिया को वर्तमान तबाही से बचाना तभी संभव है, जब प्रदूषण के विरोध में जबरदस्त मुहिम छेड़ी जाए और यह मात्र नारों, स्टीकरों एवं सम्मेलनों तक सीमित न रहे बल्कि यह पुकार हर जन के अंत:करण से निकले और नैष्ठिक कर्मठता बनकर दिखाई पड़े।
 
'विश्व स्वास्थ्य संगठन' के अनुसार वायु प्रदूषण इसी प्रकार जारी रहा तो 21वीं सदी के आने तक विश्व में कम से कम 9,75,000 व्यक्तियों के लिए आपातकालीन कक्ष की जरूरत पड़ सकती है, 8.5 करोड़ लोगों की दैनिक गतिविधियां पूरी तरह ध्वस्त हो जाएंगी, 7.2 करोड़ लोगों में श्वसन संबंधी बीमारियों के लक्षण प्रकट होंगे, लगभग 30 लाख बच्चे श्वसन रोग से पीड़ित नजर आएंगे, 90 लाख लोग अस्वस्थ और 2.4 करोड़ लोग फेफड़े संबंधी रोगों से ग्रस्त हो सकते हैं। 
 
आज के पर्यावरण में प्रदूषण से बचने का उपाय कुछ इसी तरह के प्रावधानों को अपनाने से हो सकता है जिसमें जन-जन की भागीदारी हो। केवल सरकारी प्रयत्नों से यह संभव नहीं है। प्रकृति में हो रही इस अभूतपूर्व उथल-पुथल एवं परिवर्तनों से सारा विश्व चिंतित एवं परेशान है इसलिए विभिन्न पर्यावरण संबंधी अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में धरती को प्रदूषण-मुक्त करने की योजनाएं बनाई जा रही हैं। 
 
सन् 1992 में रियो डि जेनेरियो के 'पृथ्वी सम्मेलन' में अनेक रचनात्मक योजनाओं एवं कार्यक्रमों की घोषणा की गई। इसी के सार्थक प्रयास के कारण आज ओजोन मंडल को बचाने का जबरदस्त अभियान शुरू हो सका है। ओजोन परत की रक्षा के लिए मिथाइल ब्रोमाइड बंद करने हेतु सितंबर, 1997 में मांट्रियल में 100 से अधिक देशों ने समझौता किया है।
 
प्रदूषण की इस विनाशकारी समस्या से जूझने एवं बचने के लिए विश्वभर में पर्यावरण संरक्षण व संवर्द्धन के अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) ने 5 जून 1997 के दिन को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया। इसे 'पृथ्वी सम्मेलन धन 5' के रूप में जाना जाता है।
 
सारे सम्मेलनों, चेतावनियों एवं पर्यावरण सुरक्षा का विशालकाय तंत्र खड़ा करने के बावजूद प्रश्न यथावत है, समस्या की विकरालता घटने के स्थान पर बढ़ी है, क्योंकि जन भावनाएं जाग्रत नहीं की गईं। प्रकृति के साथ मनुष्य के भावभरे संबंधों का मर्म नहीं समझाया गया। इसकी सारगर्भित व्याख्या नहीं की गई। 
 
आज की वर्तमान पीढ़ी इस बात से अनजान है कि प्रकृति से उसके कुछ वैसे ही भावनात्मक रिश्ते हैं, जैसे कि उसके अपने परिजनों एवं सगे-संबंधियों से। इसका सुलझाव और समाधान भी सांस्कृतिक प्रयत्नों से ही संभव है।
 
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