पर्यावरण मित्र फैसलों का स्वागत

Webdunia
-कुलभूषण उपमन्यु
 
हिमाचल सरकार के थर्मोकोल की पत्तलों-प्यालियों पर पाबंदी और चीड़ के वनों से चीड़ की पत्तियां कुछ उत्पाद बनाने के लिए उठाने की इजाजत देने के फैसलों का स्वागत किया जाना चाहिए। ये फैसले काफी पहले हो जाने चाहिए थे लेकिन इस सरकार ने इस दिशा में अब पहल की है। थर्मोकोल की पत्तलों पर पाबंदी से टौर के पतों से बनने वाली पर्यावरण मित्र पत्तलों को प्रोत्साहन मिलेगा और समाज के सबसे गरीब वर्ग को रोजगार मिलेगा। थोड़ा आंखें खोलकर देखें तो पता चल जाएगा कि सबसे गरीब परिवारों को इससे कितना आर्थिक सहारा मिलता है।
 
अंग्रेजों के शासनकाल में वन प्रबंध का जो व्यापारीकरण हुआ, उसके अंतर्गत स्थानीय समुदायों के लिए लाभदायक वनस्पति प्रजातियों को सुधार वानिकी के नाम पर योजनाबद्ध तरीके से नष्ट करके उनके स्थान पर व्यापारिक प्रजातियों को फैलाया गया। टौर, जो एक बहुउद्देशीय बेल (क्रीपर) प्रजाति है, इसी सुधार वानिकी का शिकार हो गई जिसे परजीवी बेकार बेल घोषित करके नष्ट किया गया और इसके स्थान पर चीड़ के वन लगाए गए। यह क्रम 1980 के दशक तक चलता रहा, जब हिमाचल प्रदेश में 'चिपको आंदोलन' की मांग पर मार्च 1984 में सुधार वानिकी की इस प्रक्रिया को रोकने के आदेश जारी हुए और बान एवं बुरांस को संरक्षित प्रजाति घोषित करने के साथ चीड़ और सफेदा जैसे पर्यावरण के लिए हानिकारक वृक्षों के रोपण पर प्रतिबंध लगाने के आदेश जारी हुए।

 
अब इस धारणा को जनसमर्थन मिल चुका है और वन विभाग भी इस बदली हुई सोच को आत्मसात कर चुका है। अत: अब पिछली गलती की भरपाई करने के लिए टौर रोपण को प्रोत्साहित करना चाहिए। एकल प्रजाति की व्यापारिक प्रजातियों के वनरोपण के स्थान पर अब मिश्रित प्रजातियों के बहुउद्देशीय वन पैदा करने की समझ विकसित हो रही है। फल, चारा, ईंधन, खाद, रेशा और दवाई देने वाली वृक्ष प्रजातियों के रोपण से ही पर्यावरण संतुलन बना रह सकता है। ऐसे वन पशु-पक्षियों को भोजन, कृषि के लिए खाद, जल एवं मिट्टी संरक्षण और घातक गैसों के प्रदूषण का कार्य बेहतर तरीके से कर सकते हैं। ऐसे वनों से वृक्ष काटे बिना ही कुछ आय भी समुदायों को मिलती रहती है।

 
चीड़ की पत्तियां वनों से उठाकर कुछ उत्पाद बनाने की इजाजत देना भी एक बड़ी गलती में सुधार साबित होगा। अत्यधिक चीड़रोपण से वनस्पति की विविधता और जैवविविधता का ह्रास हुआ है। पशुचारे का अकाल बढ़ा है जिससे पर्वतीय क्षेत्रों की पूरी कृषि व्यवस्था गडबड़ा गई है। चीड़ के वनों में आग बहुत लगती है जिससे अन्य प्रजाति के वृक्ष जल जाते हैं किंतु चीड़ की छाल खास तरह की दोहरी परत लिए होती है जिससे इसकी बाहरी छाल ही जलती है, अंदर की रसवाहिनी छाल सुरक्षित रहती है। इसी कारण चीड़ का जंगल आग लगने के बाद भी पनपता रहता है। वन विज्ञान के पुरोधा चौंपियन महोदय ने ठीक ही लिखा है कि चीड़ के स्वस्थ वन पनपाने की आप उनमें लगातार नियंत्रित तरीके से आग लगाते रहने के बिना कल्पना भी नहीं कर सकते, इसलिए चीड़ के वनों में नियंत्रित आग लगाने का कार्य स्वयं वन विभाग भी करता रहा है।

 
आज वनों से हमारी मुख्य मांग व्यापार के लिए इमारती लकड़ी नहीं रही है बल्कि पर्यावरण संतुलन और स्थानीय समुदायों की दिनोदिन जरूरतों को पूरा करना हो गई है जिसका स्पष्ट विवरण वर्तमान वन नीति में दिखाई देता है। जैसे-जैसे औद्योगीकरण बढ़ेगा, हमें ज्यादा से ज्यादा वृक्षों की जरूरत अशुद्ध वायु के प्रदूषण निवारण और शुद्ध वायु के निर्माण के लिए होगी इसलिए ऐसे वृक्षों के रोपण को महत्व देना पड़ेगा, जो बिना काटे ही आजीविका में सहयोग कर सकें।

 
जल संरक्षण में लाभकारी बान, बुरांस, सिस्यारू, जंगली गुलाब, अखरैन (रूबस) आदि प्रजातियों को भी विशेष महत्व देना होगा। जल की मांग तो बढ़ने ही वाली है। सन्निकट जल संकट से निपटने की तैयारी का यह एक प्रमुख भाग होना चाहिए। यह बात योजना निर्माताओं को तो समझनी ही होगी बल्कि स्थानीय समुदायों को भी समझनी होगी, क्योंकि इसके बिना उनकी ही सबसे ज्यादा हानि होने वाली है। सफल वृक्षारोपण के लिए उनका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सहयोग बहुत ही जरूरी है।

 
अब तीसरा मसला जिस ओर हिमाचल सरकार को ध्यान देना चाहिए। वह यह कि ठोस प्लास्टिक कचरे से मुक्ति दिलाना है। प्रदेश के बहुत से खड्डे कचरे से लबालब हैं। कुएं, रास्ते, प्लास्टिक कचरे से पटते जा रहे हैं। इस समस्या के समाधान के लिए सड़-गलकर समाप्त हो जाने वाला बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक बनाने की ओर कदम उठाने चाहिए जिससे कि तमाम चीजें, जो आजकल प्लास्टिक पैकिंग में आ रही हैं, उन्हें वैकल्पिक पैकिंग सामग्री उपलब्ध करवाई जा सके। इस तरह के प्लास्टिक का निर्माण करने वाले उद्योगों को सुविधा दी जाए। प्लास्टिक रीसाइकलिंग करने की भी व्यवस्था हो। जो प्लास्टिक बच जाए, उसे सड़क निर्माण और बिजली बनाने की आधुनिक तकनीक से बिजली संयंत्रों में ईंधन के रूप में प्रयोग कर लिया जाए। स्वीडन इस मामले में तकनीक का धनी है। वह तो आधे यूरोप के कचरे को आयात करके उससे बिजली बनाकर बेचता है और अपने देश के पर्यावरण को भी कोई हानि पहुंचने नहीं देता है। ऐसी तकनीक से बिजली बनाकर हम प्लास्टिक कचरे से मुक्ति के साथ-साथ नया रोजगार भी खड़ा कर रहे होंगे।

 
हिमाचल इस दिशा में पहल करके नेतृत्व प्रदान करे तो यह देश के दूसरे हिस्सों के लिए भी एक मार्गदर्शक की भूमिका निभा सकता है। चीड़ की पत्तियों के ब्रिकेट बनाकर वे भी इस कचरे में मिलाकर ईंधन के रूप में प्रयोग किए जा सकते हैं। प्रदेश के सीमेंट प्लांट भी कुछ प्लास्टिक कचरा कोयले में मिलाकर प्रयोग करें तो बिना उत्सर्जन बढ़ाए कचरे की समस्या पर नियंत्रण पाने में मदद मिल सकती है। (सप्रेस)

 
(कुलभूषण उपमन्यु स्वतंत्र लेखक हैं। वे हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं।)

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