राघव की भक्ति, राघव के भजन और राघवमय जीवन का साक्षात उदाहरण, निर्विवाद रूप से राम की आराधना में सतत् रत, रघुपति राघव राजा राम से आरंभ हुई यात्रा, हे राम! पर स्थगित होती है, ऐसे कर्मयोगी ने जीवन पर्यंत राम का ही भजन किया और राम भजन ने ही जीवन को साक्षी भाव में रखा, बीसवीं सदी के सबसे बड़े व्यक्तित्व महात्मा गांधी की अमोघ शक्ति का नाम 'राम' है।
महात्मा गांधी निर्विवाद रूप से 20वीं सदी के सबसे बड़े व्यक्तित्व हैं, दुनियाभर के तमाम विद्वानों ने इस बात को माना है। उनकी तुलना बुद्ध, ईसा, सुकरात जैसे सर्वकालिक महान लोगों से की जाती है। महात्मा गांधी के समकालीन श्रेष्ठ लेखकों में शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसने उन पर अपनी कलम न चलाई हो। प्रख्यात भारतीय चिंतक कुबेरनाथ राय ने तो उन्हें रामत्व के सगुण रूप में देखा है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि महात्मा गांधी संपूर्ण मानव इतिहास के सर्वश्रेष्ठ लोगों में से एक हैं।
सवाल उठता है कि विश्व के समक्ष स्वीकृत इस छवि/तथ्य के पीछे का रहस्य क्या था? वह कौन–सी प्रेरणा शक्ति थी जिसके कारण वे महज़ सत्य और अहिंसा के सहारे इतने बड़े देश को न केवल स्वतंत्र कराने में सफल रहे अपितु 20वीं सदी के सबसे महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन को भी कहना पड़ा कि आने वाली पीढ़ियों को यह यकीन ही नहीं होगा कि हाड़-मांस का ऐसा आदमी कभी धरती पर चला था।
जब हम महात्मा गांधी की जीवनचर्या की पड़ताल करते हैं तो पता चलता है कि उस अमोघ शक्ति का नाम राम है। बचपन से लेकर आखिरी समय तक उनके मुंह पर राम नाम ही रहा। उन्होंने उस नाम को कभी भुलाया नहीं। वर्ष 1947 में जब उनकी हत्या की आशंका प्रबल हो गई तो उन्होंने कहा कि हो सकता है कि मैं मार दिया जाऊंगा, लेकिन मैं अपनी अच्छी मौत उसे ही मानूंगा, जब मेरे मन में हत्यारे के लिए घृणा का भाव न हो और मेरे मुंह से अंतिम समय भी राम नाम निकले।
यह उस अपार श्रद्धा और विश्वास का ही प्रभाव था कि 30 जनवरी, 1947 को 20वीं सदी के सर्वोत्तम ऋषि-मुख से श्राप नहीं अपितु अंदर गहरे पैठा मंत्र ही निकला- राम, राम, राम। इसका तात्पर्य था मैं तुम्हें प्यार करता हूं, आशीर्वाद देता हूं, और क्षमा करता हूं,। दरअसल गांधी राम से ऐसे जुड़े थे, जैसे गाय से बछड़ा।
बालक मोहनदास करमचंद गांधी का राम से जुड़ाव बचपन से रहा, सबसे पहले तो खानदानी आया रंभा ने गांधी को राम से जोड़ा। बाल्यकाल में गांधी डरपोक थे, उन्हें बहुत डर लगता था, उस समस्या से मुक्ति के लिए खानदानी आया रंभा ने गांधी को राम नाम सुमिरन की सलाह दी, उन्होंने मोहनदास को सलाह दी कि यह स्वीकार करने में कि तुम डरपोक हो, कोई हानि नहीं है। जब भी भय का कोई कारण उपस्थित हो तो तुम डरकर भागो नहीं, बल्कि विश्वास के साथ राम नाम का जप करो। इससे तुम्हारा भय साहस में बदल जाएगा। चूंकि गांधी के मन में रंभा के प्रति बहुत आदर भाव था, अत: उन्होंने इस बात पर चलना स्वीकार किया और भय से मुक्ति भी पाई।
इसी के साथ गांधी की राम भक्ति की यात्रा आरंभ हो गई। गांधी ख़ुद के लिए राम को अमोघ शक्ति का स्रोत मानते थे, जिसका ज़िक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी किया है। गांधी ख़ुद को सनातनी हिंदू तो कहते थे लेकिन उनका हिंदुत्व वर्ण व्यवस्था और धार्मिक अनुष्ठानों की क़ैद से आज़ाद था। फिर से हिंद स्वराज नामक किताब में कनक तिवारी लिखते हैं कि गांधी ने अपने मन, वचन, कर्म सहित लेखन में जितनी बार राम और हिंदू शब्द का इस्तेमाल किया उतनी बार तो किसी ने भी नहीं किया होगा।
गांधी जी के दिन की शुरुआत राम से होती थी। भोपाल की एक जनसभा में गांधी जी ने रामराज्य की पूरी व्याख्या करते हुए कहा था कि मुसलमान भाई इसे अन्यथा न लें, रामराज्य का मतलब है- ईश्वर का राज्य। मेरे लिए राम और रहीम में कोई अंतर नहीं है। उन्होंने समझाया था कि रामराज्य वास्तव में आदर्श प्रजातंत्र का सर्वोत्तम उदाहरण है।
महात्मा गांधी की तुलसीदास कृत राम चरित्र मानस में अगाध श्रद्धा रही। गांधी के राम 'रघुपति राघव राजा राम' हैं, जो रामराज्य की अवधारणा को मज़बूत करते हैं, उस अवधारणा के मुताबिक रामराज्य का आशय केवल हिंदुओं के राज्य से नहीं था। भजन में आगे की पंक्तियां हैं, 'ईश्वर अल्लाह तेरो नाम'। गांधी के राम सौम्य हैं, उदार हैं, करुणानिधान हैं, नैतिक बल के स्रोत हैं, अभय की अमोघ शक्ति हैं और राजतंत्र में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित करने वाले हैं।
युवा मोहनदास गांधी का अबोध मन, जो आधुनिक सभ्यता के गढ़ लंदन के माहौल में पल-बढ़ रहा था, उसके लिए राम नाम यंत्रवत और अंधविश्वास पूर्ण लगने लगा, इसके बावजूद भी उन्होंने अपने आराध्य को सदैव अपने निकट पाया। वे ऐसे विज्ञानी थे, जिन्होंने अपने शरीर को ही प्रयोगशाला में परिवर्तित कर दिया था। तथ्यों के विश्वास या अविश्वास का स्वरूप उनके मन में लंबे समय तक निरंतर उमड़ता-घुमड़ता रहता था।
रंभा की राय से पड़ा हुआ बीज बचपन से उनके मानस में उपस्थित था। जब दक्षिण अफ़्रीका में उथल-पुथल का समय आया तो वह मंत्र अंदर से उभरकर उनके समक्ष आ गया। उन्होंने अपने प्रयोग से जीवन में उसकी सार्थकता की परीक्षा की। वही मंत्र उनका प्रमुख आश्रय और शक्ति का अमोघ मंत्र बन गया।
उन्होंने लिखा, मंत्र व्यक्ति के जीवन का सहारा बन जाता है और व्यक्ति को हर परीक्षा में सहज रूप से सहायता करता है। वे मानते थे, मंत्र की हर पुनरावृत्ति नए अर्थ का वाहक बनकर सामने आती है। उसका हर जप हमें भगवान के निकट ले जाता है। दरअसल मंत्र वह आध्यात्मिक सूत्र है जो व्यक्तित्व के नकारात्मक पक्ष को सकारात्मक पक्ष में बदल देता है। वह क्रोध को करुणा, बुरे भाव को सद्भाव और घृणा को प्रेम में परिवर्तित कर देता है। यह मस्तिष्क को शांत बना देता है और विभक्त और परस्पर विचारों को शांत करके चेतना के गहन स्तरों तक ले जाता है।
महात्मा गांधी के लिए राम नाम का मंत्र अक्षय आनंद का स्रोत बन गया था। वे प्रतिदिन मीलों टहलते समय भी इसका जप करते थे। जप की यह क्रिया तब तक निरंतर चलती थी जब तक मंत्र का अंत: संगीत और उनके कदमताल श्वास की गति को स्थायित्व नहीं प्रदान कर देते थे। मंत्र साधना ने उन्हें भय और क्रोध पर नियंत्रण करना सिखाया। परिणाम यह हुआ कि उनकी आंतरिक शांति को मन की सतह पर चलने वाली अशांति या किसी अन्य तरह का हिंसक व्यवधान न तो हिला सकता था न उसका नाश कर सकता था। वे अब पूर्णत: राम पर आश्रित हो गए थे।
गांधी का जीवन राममय है, जीवन के आरंभ से लेकर अंत में हे राम! तक की यात्रा में राम ही राम रहें। इसीलिए गांधी के राघवमय देश की अवधारणा का विन्यास आज प्रासंगिक भी है और कारगर भी। इसलिए गांधी ने अपनी आराधना के अक्षत के समर्पण से इस भारत भूमि के लोकतंत्र को रामराज्य की संज्ञा भी दी है।
वैसे तो राघव जगत् के आराध्य है किन्तु गांधी की आराधना ने जिस रामराज्य की संकल्पना करते हुए भारत के विकास और विस्तार की प्रस्तावना रखी, उसके अनुसार गांधी के संकल्प की शक्ति के रूप में 'राम' महनीय हैं। हाल ही में अयोध्या में जन्मभूमि पर राघव के मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हुई और गांधी ने भी राम को राष्ट्रदेव के रूप में स्वीकार किया है। इसीलिए गांधी के राघवमय देश में राम के आदर्शों की स्थापना का सूर्योदय अब आ चुका है। गांधी की आराधना के राघव अब राष्ट्र आराधना के प्राण तत्व हैं।
[लेखक डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं तथा देश में हिन्दी भाषा के प्रचार हेतु हस्ताक्षर बदलो अभियान, भाषा समन्वय आदि का संचालन कर रहे हैं]
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)