Dharma Sangrah

विसर्जन मांगलिक हो...

गरिमा संजय दुबे
अद्भुत है भारतीय दर्शन भी और परंपराएं भी। जब-जब ढूंढने बैठती हूं, एक नए वातायन से नई सुगंध और नए प्रकाश के साथ कोई नई परिभाषा, कोई नया अर्थ उजागर हो जाता है। हर अर्थ हर परिभाषा नए जीवन मूल्य और आदर्श के साथ विश्राम लेती है अगली बार कुछ नए अर्थों के साथ लौट आने के लिए। गणेश प्रतिमा के स्थापन, उनके दस दिन के सानिध्य और फिर प्रतिमा विसर्जन में कितने गहरे जीवन मूल्य छुपे हैं।

यूं तो हर उत्सव जीवन की आपाधापी में से अपने लिए कुछ पल चुरा लेने का ही नाम है, किंतु हम भारतीय विशुद्ध मनोरंजन में कभी उत्सव का भाव नहीं पा सकते । इसलिए हमारे हर उत्सव में हमारे इष्ट, ईश्वर, हमारी संचालक शक्ति हमारे साथ होती है तभी हम सहज होते हैं। गणेश उत्सव अपने चरम पर है, हर घर लड्डू और मोदक की सुगंध से महक रहा है, सांस्कृतिक कार्यक्रमों की श्रृंखला जारी है। 
 
गणेश तो हैं ही कला, संस्कृति के वाहक। हर कहीं विभिन्न रूपों में गणेश प्रतिमाएं विराजित हैं। कभी-कभी विरोध के स्वर भी उभरते हैं कि गणेश जी की प्रतिमा के ऐसे रूप नहीं होने चाहिए, उन्हें उनके आदर्श रूप में ही पूजा जाना चाहिए। किंतुु मेरा मानना है कि हमारा धर्म इतना सहज और सरल है कि उसने अपने-अपने तरीके से ईश्वर को पूजने की स्वतंत्रता दे रखी है। हमारा ईश्वर कोई बहुत दूर की अलभ्य सत्ता या शासक नहीं है, वह तो हमारा अपना है, हमारे जैसा है। और हम उसे विविध रूपों में सजा कर आनंदित होते हैं और फिर आनंद का दूसरा नाम ही तो ब्रह्म है "आनंदो वै ब्रह्म"। हमारा ईश्वर कठिन नियमों में बंधा नहीं है, इसलिए पूजा हमें आंनद देती है तनाव नहीं। यही सहजता, यही स्वतंत्रता किसी भी धर्म को अधिक ग्राह्य बनाती है। हां, विकृत भी करती है, किंतू यह तो हमारे विवेक पर निर्भर करता है ना, कि हम उसे विकृत न होने दे।
 
गणेश प्रतिमा विसर्जन आसन्न है, भारतीय धर्म में समापन की जगह विसर्जन शब्द का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि शाश्वत सत्ता में समापन जैसा कुछ है ही नहीं । कुछ भी समाप्त नहीं होता, सब कुछ एक निर्धारित वर्तुल मार्ग में गतिमान है। जीवन एक चक्र है और क्रियाकलाप भी। निश्चित समय और काल के पश्चात उसकी पुनरावृत्ति निर्धारित है। ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी, असीम प्रतिभाशाली श्री गणेश अपने हर अंग-प्रत्यंग से, अपने हर क्रियाकलाप से विभिन्न जीवन मूल्य सिखाने वाले एकदंत, प्रथम पूज्य गणेश हमें विसर्जन का विज्ञान भी सिखाते हैं।
 
विसर्जन प्रतीक है, उत्सव के बाद कर्म क्षेत्र में पूरी ऊर्जा से उतरने का। विसर्जन प्रतीक है अपने विकारों के ईश्वर में विलय का, त्रिविध तापों शीतलीकरण का। विसर्जन प्रतीक है, एक चक्र पूर्ण होने पर नवीन चक्र के प्रारंभ का। विसर्जन समाप्ति नहीं, विसर्जन आरंभ है नवीन ऊर्जा का, नवीन सृजन का और नवीन उत्सवों का। विसर्जन सदैव मंगलकारी है, इसमें समाप्ति की उदासी नहीं है। इसमें विदाई का दुःख नहीं है, इसमें घर खाली होने का भाव नहीं है। विसर्जन में मांगल्य है, विसर्जन में उत्सव है। दस दिनों के बाद वर्षभर घर में रह जाने वाली फूलों की, कपूर की महक है। विसर्जन मोदक लड्डू का मीठापन है। विसर्जन दूर्वा की नमी है ,जो वर्ष भर हमें सींचती रहती है। विसर्जन श्री गणेश का अभय वरदान है, विसर्जन मांगल्य है।
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