ऐसे अपनों से बचें राहुल गांधी

Webdunia
फि‍रदौस खान


पिछले के कई बरसों से देश में कोई भी चुनाव हो, राहुल गांधी की जान पर बन आती है। पिछले लोकसभा चुनाव हों, उससे पहले के विधानसभा चुनाव हों या उसके बाद के विधानसभा चुनाव हों, सभी के चुनाव नतीजे राहुल गांधी के सियासी करियर पर गहरा असर डालते हैं। पिछले काफ़ी अरसे से कांग्रेस को लगातार हार का सामना करना पड़ रहा है. और हर हार के साथ राहुल गांधी के हिस्से में एक हार और दर्ज हो जाती है। आखि‍र क्या वजह है कि राहुल गांधी के आसपास शुभचिंतकों की बड़ी फौज होने के बावजूद वह कामयाब नहीं हो पा रहे हैं।

हाल ही में पांच राज्यों में चुनाव के नतीजे आने के बाद राहुल गांधी के नेतृत्व पर सवाल उठने लगे हैं. भले ही पंजाब में कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाब हो गई, लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों ने कांग्रेस को खासा मायूस किया है। उत्तराखंड में भी कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा है। हालांकि मणिपुर और गोवा में कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी से बेहतर प्रदर्शन किया, लेकिन सियासी रणनीति सही नहीं होने की वजह से कांग्रेस सरकार बनाने में नाकाम रही है।
 
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में साल 2009 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस 2004 के मुकाबले और ज़्यादा मज़बूत होकर सामने आई, तो उसका श्रेय राहुल गांधी को ही दिया गया। खासकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 21 सांसद जीतकर आने को राहुल गांधी की कामयाबी बताया गया। मगर उसके बाद से कांग्रेस को ज्यादातर नाकामी का ही सामना करना पड़ रहा है। जिस वक्त केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और उत्तर प्रदेश से कांग्रेस में 21 सांसद थे, तब साल 2012 में वहां हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस महज 28 सीटें ही जीत पाई थी। उस वक्त पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 117 में से 46 सीटें जीत सकी थी।
 
हार की वजह कैप्टन अमरिंदर सिंह से कांग्रेसियों का नाराज़ होना और पार्टी द्वारा अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद के लिए पसंद किया जाना बताया गया था। इसी तरह गोवा में भी कांग्रेस को सत्ता से बेदखल होना पड़ा। उत्तराखंड और मणिपुर में कांग्रेस सत्ता हासिल करने में कामयाब रही। गुजरात चुनाव में भले ही कांग्रेस को हार मिली हो, लेकिन देवभूमि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस ने जीत हासिल की।
 
फिर अगले साल 2013 में दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, त्रिपुरा और नगालैंड में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। मेघालय, मिजोरम और कर्नाटक में कांग्रेस को जीत हासिल हुई। पिछले 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को अपनी सत्ता गंवानी पड़ी। एक दशक से सत्ता पर काबिज कांग्रेस महज 44 सीटों तक ही सिमट कर रह गई।
 
इतना ही नहीं, साल 2014 में हरियाणा और महाराष्ट्र में हुए विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस की हार हुई और सत्ता उसके हाथों से निकल गई। इसी तरह झारखंड और जम्मू-कश्मीर में भी कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा। अगले साल 2015 में कांग्रेस बिहार में महागठबंधन में शामिल हुई और उसने जीत का मुंह देखा। साल 2016 में असम कांग्रेस के हाथ से निकल गया। केरल और पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को नाकामी ही मिली।पुड्डुचेरी में कांग्रेस को जीत नसीब हुई।
 
इस साल के आख़िर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। कुछ दिन बाद दिल्ली नगर निगम में चुनाव होने हैं। कांग्रेसनिकाय चुनाव में भी बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पा रही है। पिछले दिनों महाराष्ट्र निकाय चुनाव में कांग्रेस को नाकामी हासिल हुई। कांग्रेस महज 31 सीटों तक ही सिमट कर रह गई, जबकि साल 2012 के चुनाव में कांग्रेस के 52 पार्षद जीते थे।
 
हालत यह है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी कांग्रेस के ख़राब प्रदर्शन पर मायूसी जाहिर करते हुए कांग्रेस को नये सिरे से अपनी रणनीतियों पर विचार करने की सलाह दे डाली। कांग्रेस की लगातार हार से पार्टी के बीच से आवाज उठने लगी है। कुछ वक्त पहले दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री ने राहुल गांधी को अपरिपक्व कह दिया था। अब उनके बेटे संदीप दीक्षित ने पार्टी की रणनीतियों पर सवाल उठाते हुए कहा कि देवरिया से दिल्ली तक की यात्रा रोकने से पार्टी को काफी नुकसान हो गया है। सनद रहे कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले कांग्रेस ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया था और बड़े ही जोश से राहुल गांधी अगुवाई में देवरिया से दिल्ली की यात्रा शुरू कर दी थी, लेकिन बाद में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी से समझौता कर लिया।
 
राहुल गांधी बहुत अच्छे इंसान। वह खूशमिजाज, ईमानदार, मेहनती और सकारात्मक सोच वाले हैं और मेहनत भी खूब करते हैं। इसके बावजूद उतने कामयाब नहीं हो पाते, जितने होने चाहिए। आखि‍र उनकी नाकामी की वजह क्या है? अगर इस पर गौर क्या जाए, तो कई वजहें सामने आती हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि जो लोग ख़ुद को राहुल गांधी का करीबी और शुभचिंतक कहते हैं, वही लोग उनके बारे में दुष्प्रचार करते हैं। यूं तो राहुल गांधी जनसभाएं करते हैं, आम आदमी से सीधे रूबरू होकर बात करते हैं, लेकिन अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं से दूर हैं।
 
काबिले-गौर है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी बीमारी की वजह से सियासत में सक्रिय नहीं हैं। उनकी गैर हाजि‍री में पार्टी के सभी फैसले राहुल गांधी ही ले रहे हैं। इन फैसलों में उनके सियासी सलाहकारों की भी बड़ी भूमिका रहती है। हर चुनाव में पार्टी की हार के बाद राहुल गांधी को अपनी रणनीतियों में बदलाव लाने की सलाह दी जाती है। पार्टी को अपनी हार का विश्लेषण कर खामियों को दूर करना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता। पार्टी हर चुनाव में अपनी पुरानी खामियों को दोहराती है।
 
कुछ महीनों बाद फिर से दो राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। साल 2019 में लोकसभा चुनाव आ रहा है। कांग्रेस के पास ज्यादा वक्त नहीं है। उसे आने वाले चुनावों में जीत हासिल करनी है, तो ईमानदारी से अपनी खामियों पर गौर करना होगा। पार्टी को अपनी चुनावी रणनीति बनाते वक्त कई बातों को जेहन में रखना होगा। उसे सभी वर्गों का ध्यान रखते हुए अपने पदाधिकारी तक करने होंगे। पार्टी के क्षेत्रीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी विश्वास में लेना होगा, क्योंकि जनता के बीच तो इन्हीं को जाना है। बूथ स्तर तक पार्टी संगठन को मज़बूत करना होगा. राहुल गांधी को चाहिए कि वे पार्टी के आखि‍री कार्यकर्ता तक से संवाद करें। उनकी पहुंच हर कार्यकर्ता तक और कार्यकर्ता की पहुंच राहुल गांधी तक होनी चाहिए। उन्हें पार्टी के मायूस कार्यकर्ताओं में जोश भरना होगा और जनसंपर्क बढ़ाना होगा। अगर वह ऐसा कर पाए, तो फिर कांग्रेस को आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक पाएगा।
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